'यदि मुझमें फिल्म निर्माण के लिए कलात्मक और तकनीकी प्रतिभा न होती
और यदि मुझमें साहस और कुछ कर दिखाने की लगन न होती
तो भारत में 1913 में फिल्म उद्योग की स्थापना न हुई होती।'
(निधन से कुछ वर्ष पूर्व दादा साहब फाल्के की लिखित पंक्तियाँ)
भारतीय सिनेमा के जनक दादा साहब फाल्के का जीवन संघर्षों से भरा रहा है। वे हमेशा सिनेमा की बेहतरी को और आगे बढ़ाने के लिए प्रयासरत रहे। उन्होंने पूरा जीवन सिनेमा को समर्पित कर दिया। उनके इस योगदान और समर्पण को देखते हुए आगे चलकर भारत सरकार द्वारा सिनेमा में महत्वपूर्ण योगदान के लिए 'दादा साहब फाल्के पुरस्कार' की घोषणा की गईं यह पुरस्कार 1969 से प्रतिवर्ष सिनेमा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के लिए दिया जाता है। [1]
दादा साहब ने भारत में सिनेमा की ऐसी मजबूत नींव रखी जिसने आगे चलकर विश्वपटल पर भारतीय सिनेमा को गौरवान्वित किया। सिनेमा में इसी महत्वपूर्ण योगदान के लिए दादा साहब फाल्के को 'भारतीय सिनेमा का जनक' कहा जाता है।
भारतीय सिनेमा के पितामह दादा साहब फाल्के का पूरा नाम धुंडीराज गोविंद फाल्के था उनका जन्म 30 अप्रैल 1870 में [2] एक ब्राहम्ण परिवार के घर नासिक जिले के त्र्यंबकेश्वर नामक एक स्थान पर हुआ था। अपनी शिक्षा मराठा हाईस्कूल से करने के बाद फाल्के ने अपनी आगे की पढ़ाई बंबई (आज का मुंबई) के प्रसिद्ध कला विद्यालय जेजे स्कूल ऑफ आर्ट्स (1884) से की। ललित कलाओं के साथ छायांकन कला ने फाल्के को बहुत हद तक प्रभावित किया दादा साहब को बड़ौदा के कला भवन ने भी काफी आकर्षित किया। यहाँ उन्होंने रंगकर्म के पाठ सीखे और फोटोग्राफी तकनीकी की बारीकियों पर कई प्रयोग करते हुए फिल्म प्रोसेसिंग की तकनीकी से भी भली भाँति परिचित होते गए। दादा साहब ने नाटकों में मंच सज्जा का काम भी बखूबी निभाया। दादा साहब को फोटोग्राफी का इतना शौक था कि 1890 में उनको जो छात्रवृत्ति मिली उससे उन्होंने एक स्टिल कैमरा खरीद लिया था। सभी व्यस्तताओं के बावजूद दादा साहब अपने फोटोग्राफी के शौक से कभी अलग नहीं हुए।
शिक्षा पूरी होने के बाद दादा साहब फाल्के ने विभिन्न व्यवसायों में अपना भाग्य आजमाया, फोटोग्राफी में भी कॅरिअर बनाने का विचार किया लेकिन इसमें कोई खास सफलता नहीं मिली। दादा साहब फाल्के की सिनेमा में हमेशा कुछ नया करने की कोशिश ने आज उन्हें 'सिनेमा का जनक' बना दिया वरना वे एक सरकारी मुलाजिम होते। क्योंकि 1903 में वे शासकीय नौकरी में लगे। [3] दादा साहब को नौकरी करना पंसद नहीं आया और स्वदेशी आंदोलन से प्रेरित होकर उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ दी। दादा साहब पर लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का गहरा प्रभाव देखने को मिलता है। ड्राफ्टमैन और फोटोग्राफर के पद पर कार्य कर चुके दादा साहब फाल्के ने राजा रवि वर्मा की प्रेस में एक लंबे समय तक काम किया। यही वह समय था जब फाल्के ने अपने अनुभवों को एक नया रास्ता दिया और खुद का छापाखाना खोला। 1909 में वे जर्मनी गए। [4] दादा साहब ने जर्मनी में छापाखाने की मशीनों के संबंध में महत्वपूर्ण जानकारी हासिल की और तीन रंगों वाली छपाई मशीन लेकर भारत आए। छापाखाने का व्यवसाय लंबे समय तक नहीं चल सका। कुछ समय बाद उनकी भागीदारी टूट गई। दादा साहब फाल्के के लिए यह एक ऐसा समय था जब वह अंदर से बिल्कूल टूट चुके थे। छापाखाने में दिनों-रात काम करने के कारण उनकी आँखों पर इसका बुरा प्रभाव पड़ा जिसके कारण उन्हें एक लंबे समय तक आराम करना पड़ा। आँखों की समस्या से जूझते दादा साहब इन दिनों घोर निराशा में डूब चुके थे।
दादा साहब फाल्के और सिनेमा की उत्पत्ति :
नीरसता का जीवन व्यतीत कर रहे दादा साहब के जीवन में तब एक निर्णायक मोड़ आया जब उन्होंने क्रिसमस के दौरान 1910 में मुंबई के एक थिएटर में प्रभु यीशु के जीवन पर आधारित बनी एक फिल्म 'द लाईफ ऑफ क्राइस्ट' देखी। [5] यही वह समय था जब दादा साहब फाल्के के मन में 'द लाइफ ऑफ क्राइस्ट' देखकर प्रभु यीशु की जगह भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराम घूम रहे थे। यह चिंतन भविष्य में मूर्त रूप लेने वाला था और भारत में एक नई कला का उदय होने जा रहा था। एक नए इतिहास का उदय।
'द लाइफ ऑफ क्राइस्ट' फिल्म देखने के बाद दादा साहब फाल्के के मनोसंसार में एक हलचल उत्पन्न होने लगी और भविष्य में स्वयं के द्वारा बनाई जाने वाली फिल्मों की तस्वीर उनके मन-मस्तिष्क में घूमने लगी। 'द लाइफ ऑफ क्राइस्ट' को दादा साहब ने कई बार देखा और अपनी पत्नी सरस्वती 'काकी' फाल्के को भी दिखाई। 'द लाइफ ऑफ क्राइस्ट' का ही प्रभाव था कि उन दिनों दादा साहब फाल्के मुंबई के सभी सिनेमाघरों (थिएटरों) में लगी फिल्में नहीं देख लेते थे तब तक वह चैन से नहीं बैठते थे। दादा साहब फाल्के ने फिल्म निर्माण प्रक्रिया का आरंभ एक मटर के पौधे से किया। उन्होंने एक गमले में एक मटर का पौधा बो दिया और वह रोज उसके विकसित होने के चित्र लेते रहे। यह प्रक्रिया एक लंबे समय तक चली जब तक कि वह मटर का पौधा पूर्ण रूप से विकसित नहीं हो गया। इस प्रकार यह दादा साहब फाल्के की पहली फिल्म 'मटर के पौधे का विकास' बनकर तैयार हुई। यह वह फिल्म थी जिसको दिखाकर दादा साहब ने अपनी बीमा पालिसी पर बाजार की दर पर फिल्म निर्माण करने हेतु पैसा उधार लिया।
फिल्म निर्माण सामग्री को क्रय करने के लिए दादा साहब लंदन गए। उस समय विदेशों में फिल्म निर्माण की प्रक्रिया को गुप्त रखा जाता था। दादा साहब के लिए यह सुखद संयोग ही रहा कि प्रख्यात फिल्मकार सेसिल हेपवर्थ ने उन्हें न केवल फिल्म निर्माण प्रक्रिया के महत्वपूर्ण बिंदुओं से परिचित कराया अलवत्ता उन्हें अपना स्टूडियो दिखाया जो कि ट्रिक फोटोग्राफी के लिए उस समय प्रसिद्ध था। फिल्मकार सेसिल हेपवर्थ ने दादा की फिल्म निर्माण प्रक्रिया के प्रति रुचि को देखते हुए स्टूडियो के विभिन्न भागों से भी परिचित कराया। यही वह समय था जब दादा साहब फाल्के ने फिल्म निर्माण प्रक्रिया की गहराइयों को बारीकी से समझा। उस समय फिल्म की पी (रील) में छेद करना महत्वपूर्ण काम माना जाता था क्योंकि यह कार्य बंद अंधेरे कमरे में किया जाता था। रोशनी की एक भी किरण फिल्म को खराब कर देती थी और फिल्म पी में किया गया छेद अगर थोड़ा भी इधर-उधर हुआ तो फिल्म चलते समय कैमरे या प्रोजेक्टर में फँस जाती थी। यह जिम्मेदारीपूर्ण कार्य भी दादा बड़े आसानी से कर लेते थे। यही दादा की खासियत थी कि वह फिल्म निर्माण के हर क्षेत्र में माहिर थे। लंदन से लौटकर दादा साहब फाल्के ने पहली भारतीय फिल्म बनाने के लिए विषय का चुनाव 'राजा हरिश्चंद्र' के रूप में किया। चूँकि फिल्म 'द लाइफ ऑफ क्राइस्ट' देखते समय फाल्के के दिमाग में भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराम की कल्पना की थी लेकिन इन पर फिल्म बनाने के लिए अधिक धन और पात्रों (कलाकारों) की आवश्यकता होती इस कारण फाल्के ने प्रथम फिल्म के विषय के रूप में 'राजा हरिश्चंद्र' को चुना।
दादा साहब फाल्के ने अपनी पहली फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' बनाने का निर्णय लिया और इसकी तैयारियों में जुट गए। चूँकि फाल्के पहले ही फिल्म निर्माण संबंधी तकनीकी उपकरणों की खरीद लंदन से कर चुके थे इस कारण अब उनके पास 'हरिश्चंद्र' को बनाने के लिए अतिरिक्त धन की आवश्यकता थी इस संकट की घड़ी में जब कोई काम नहीं आया तो उनकी पत्नी जिन्हें फाल्के की प्रतिभा पर पूरा भरोसा था सामने आई और उन्होंने फाल्के के सपने को पूरा करने के लिए अपने सारे जेवर दे दिए, यह फिल्म निर्माण की पहली सीढ़ी थी जिसे फाल्के ने पार कर लिया। पैसों की व्यवस्था होते ही अब फाल्के को फिल्म में काम करने वाले पात्रों की जरूरत थी। 'राजा हरिश्चंद्र' में अधिक कलाकारों की आवश्यकता नहीं थी कहानी के हिसाब से तीन-चार कलाकारों की ही जरूरत थी लेकिन फाल्के की कोशिश यहाँ आकर एक बार फिर दम तोड़ती नजर आई क्योंकि उस समय थिएटर या नाटक-नौंटकी में काम करना समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता था। दादा साहब के अथक प्रयासों के बाद भी कोई फिल्म में काम करने को तैयार ही नहीं हुआ। यहाँ तक कि स्त्री पात्र को निभाने के लिए रेड लाइट एरिया की महिलाएँ भी तैयार नहीं थीं।
भारत में बनने वाली पहली फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' जिसके लिए नायिका की तलाश हो रही थी। नायिका न मिलने की घटना से भारत में फिल्म जगत की उद्भवकालीन स्थितियों का अंदाजा लगया जा सकता है। वही फिल्म उद्योग आज सौ वर्षों के अंतराल के बाद क्या से क्या हो गया है यह खुली आँखों से देखे हुए सपने के सच होने जैसा लगता है यही हमारे समाज में परिवर्तन की दिशा है। फाल्के ने विज्ञापन दिए, हर तरह से प्रयास किए लेकिन कोई ऐसा नहीं मिला जो इस फिल्म में अभिनय करने को तैयार होता। फाल्के को एक बार फिर अपना सपना टूटता नजर आने लगा। निराशा के इन क्षणों में फाल्के को सालुंके नामक युवक ने सहारा दिया। यह युवक एक रेस्तराँ में वेटर का काम करता था वह गोरा छरहरा महिला समान सुकुमार दिखने वाला युवक था। 'राजा हरिश्चंद्र' में तारामती की भूमिका इसी युवक के द्वारा निभाई गई है। कलाकारों की समस्या यहीं खत्म नहीं होती है। महिला किरदारों के साथ-साथ पुरुष पात्रों के लिए भी कलाकारों का मिलना विकट चुनौती थी। उस दौर में रंगमंच पर अभिनय करना समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता था। यही कारण था कि 'राजा हरिश्चंद्र' के पश्चात भी फाल्के की अनेक फिल्में आईं जिनमें उन्होंने महिला पात्रों के लिए या तो अन्ना सालुंके का सहयोग लिया या अपनी पत्नी काकी फाल्के को मनाया। फाल्के की एक फिल्म में तो सालुंके ने सीता और राम दोनों की भूमिका अदा की और वह उस फिल्म में नायक और नायिका दोनों ही बने। [6] इस प्रकार सालुंके भारतीय सिनेमा में डबल रोल निभाने वाले पहले अभिनेता भी बने।
'राजा हरिश्चंद्र' के निर्माण के दौरान, कर्मियों के अभाव में फाल्के ने अपनी प्रतिभा तथा अनुभव के बल पर सेट लगाने, दृश्य लेखन, फिल्म धोने तथा संपादन जैसे अनेक कार्य खुद ही किए। उनके पास फिल्म निर्माण संबंधी बारीकियों को समझने वाली अद्भुत दृष्टि थी और साथ में बेमिसाल तकनीकी ज्ञान। अंततः 3700 सौ फीट लंबी फिल्म के साथ 'राजा हरिश्चंद्र' भारत की पहली कथा फिल्म के रूप में तैयार हुई। लंदन में फिल्मकार सेसिल हेपवर्थ से सीखी ट्रिक फोटोग्राफी का उपयोग फाल्के ने इस 40 मिनट लंबी फिल्म में बखूबी किया। अपनी निर्माण कला से उत्साहित फाल्के ने 2 अप्रैल, 1913 को ओलंपिया सिनेमाघर में बंबई के संभ्रांत वर्ग के लिए इस फिल्म की एक विशेष स्क्रीनिंग रखी। [7] बाद में इसे व्यावसायिक रूप में कोरोनेशन थिएटर में 3 मई, 1913 को प्रदर्शित किया गया। [8] इस फिल्म के प्रति दर्शकों की पहली प्रतिक्रिया 'अविश्वसनीय' थी, उन्हें यकीन ही नहीं हो रहा था कि इसका संपूर्ण निर्माण कार्य एक भारतीय के द्वारा किया गया है। 5 मई, 1913 को बॉम्बे क्रॉनिकल अखबार में 'राजा हरिश्चंद्र' की समीक्षा प्रकाशित हुई। [9] अखबार ने फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' के संबंध में चमत्कार और अद्भुत जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हुए समाचार को प्रकाशित किया।
टिकट के ऊँचे दाम भारतीय दर्शक को रास नहीं आ रहे थे वह उन्हें हतोत्साहित कर रहे थे। क्योंकि भारतीय दर्शक सिनेमा टिकट के आधे दाम में पूरी रात का संगीतमय कार्यक्रम देखने के आदी थे। अतः उनके लिए सिर्फ 40 मिनट के मनोरंजन के लिए दो आना चुकाना हास्यास्पद था। फाल्के बड़ी ही सहजता से इन सारी बातों को महसूस करते हुए, इस निर्णय पर पहुँचे कि बिना प्रभावशाली व आकर्षक प्रचार के उनकी फिल्म को सही शुरुआत मिलना मुश्किल है। अतः उन्होंने आरंभ के कुछ दिनों के लिए दो यूरोपियन लड़कियों के 10-15 मिनट के नृत्य की व्यवस्था की, जबकि बंबई के बाहर उन्होंने अपने प्रचार के तरीके में थोड़ी तब्दीली की। उन्होंने अपने विज्ञापन में 40 मिनट की जगह फिल्म के दो मील लंबे 50,000 चित्रों (फ्रेम) की चर्चा करनी शुरू की। इस विज्ञापन को देखने के बाद लोगों को लगता था कि इतनी लंबी फिल्म के लिए दो आना खर्च करना समझदारी है। इसके साथ ही उन्होंने कुछ अग्रणी समाचारपत्रों के संवाददाताओं को आमंत्रित कर प्रेस के लिए अलग से शो रखा। फिल्म की गुणवत्ता से उत्साहित प्रेस ने 'राजा हरिश्चंद्र' की खूब तारीफ की। फाल्के की तरकीब काम कर गई और फिल्म को देखने के लिए लोगों की भीड़ जमा होने लगी। इस पूरी प्रक्रिया से फाल्के को एक ऐसा मूलमंत्र मिल गया था जो उनसे पहले के फिल्मकार समझने में असमर्थ रहे। उन्हें समझ में आ गया था कि सिर्फ फिल्म निर्माण ही काफी नहीं हैं, उसका अच्छे से प्रचार करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। इस तरह फाल्के स्वयं अपनी फिल्म के वितरक भी बन गए।
फिल्म की अपार सफलता के पश्चात फाल्के ने नासिक में 'फाल्के फिल्म्स' के नाम से अपना एक स्टूडियो शुरु किया और समूचा परिवार फिल्म निर्माण के क्षेत्र में लग गया। जल्द ही उन्होंने 'भस्मासुर मोहिनी' (1913) नामक दूसरी फिल्म का निर्माण कर लिया। [10] यह फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' की अपेक्षा थोड़ी छोटी थी और जिसकी लंबाई 3245 फीट थी। यह पहला मौका था जब फाल्के को पार्वती और मोहिनी के किरदारों को निभाने के लिए दो महिलाओं की सहायता मिली। दुर्गा गोखले और कमला गोखले नामक माँ-बेटी की इस जोड़ी ने यह भूमिकाएँ निभाई और फिल्म में अभिनय कर सिनेमा के इतिहास में सदा के लिए अपना नाम दर्ज कर लिया। फाल्के की तीसरी फिल्म 'सत्यवान सावित्री' अगले कुछ महीनों में बनकर तैयार थी और 1914 में रीलीज हुई। [11] दादा साहब फाल्के चित्रकार राजा रवि वर्मा की कला से बहुत प्रभावित थे, जिस प्रकार राजा रवि वर्मा हिंदू धार्मिक कथाओं को अपने केनवास में उकेर देते थे, उसी प्रकार फाल्के धार्मिक किरदारों को अपने चलित चित्रों में जीवंत रूप प्रदान कर देते थे। 'सत्यवान सावित्री' के बाद, फिल्म निर्माण से संबंधित बिजली-चलित कुछ मशीनें खरीदने हेतु फाल्के ने एक बार पुनः लंदन की ओर अपना रुख किया। वे साथ में अपनी कुछ फिल्में भी ले गए। फिल्म की उत्कृष्ट तकनीक से प्रभावित होकर कुछ स्टूडियो मालिकों ने उन्हें लंदन में ही फिल्में बनाने का प्रस्ताव दिया। परंतु फाल्के स्वदेश में ही फिल्म निर्माण को बढ़ावा देने का मोह त्याग न सके और उन प्रस्तावों को अस्वीकृत कर, भारत लौट आए।
बिजली-चलित उपकरणों का उपयोग, फाल्के फिल्म निर्माण के क्षेत्र में विश्व-स्तर पर भारत की अमिट छाप छोड़ने के लिए करना चाहते थे। परंतु प्रथम विश्व युद्ध ने एक बार पुनः परिस्थितियों को फाल्के और उनके सपनों के बीच अंतराल की स्थिति बना दी। आर्थिक संकट ने दोबारा फाल्के को आ घेरा। परंतु इन विपरीत परिस्थितियों में भी फाल्के और उनका परिवार फिल्म निर्माण के मोह को त्याग न सका और पुनः एकजुट और समर्पित होकर आगे बढ़े। काकी को दादा साहब की प्रतिभा पर अटूट विश्वास था इसलिए काकी ने विषम परिस्थितियों में भी दादा साहब का साथ नहीं छोड़ा और फिल्म निर्माण से लेकर संबंधित अन्य कार्यों में भी मदद की। फाल्के की निष्ठावान यूनिट जिसमें करीब 500 लोग शामिल थे जो आर्थिक संकट के वक्त आधे वेतन पर कार्य कर रहे थे, के लिए काकी अकेले भोजन तैयार करती, कपड़े और कास्ट्यूम धोती और बाद में खुद फिल्म निर्माण के कार्य में दादा साहब की मदद करती। इसी दौर में दादा साहब ने अपनी पुत्री मंदाकिनी से फिल्म 'कालिया मर्दन' में कृष्ण की भूमिका कराई तथा काकी को फिल्म 'लाइफ ऑफ श्रीयाल' में एक चरित्र निभाने को मनाया। काकी ने भूमिका निभाने से पूर्व दो शर्त रखी। पहली ये कि स्वयं दादा साहब उनके नायक की भूमिका निभाएँगे और दूसरी यह कि काकी का नाम फिल्म प्रचार में शामिल ना किया जाए। काकी कि इन शर्तों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि काकी दादा साहब की मदद तो हमेशा करती थीं लेकिन कैमरे के पीछे रहकर। अपने परिवार और निष्ठावान टीम के सहयोग से फाल्के ने युद्धकाल में ही 'लंका दहन' फिल्म का निर्माण किया। इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर सफलता के नए आयाम स्थापित किए। इसी फिल्म में सालुंके ने राम और सीता दोनों का चरित्र निभाया। सालुंके की फिल्म के सेट पर ही हर छह घंटे बाद दाढ़ी बनाने के लिए नाई तैनात रहता था। इस मामले में दादा की दृष्टि बड़ी सूक्ष्म थी। [12] इस फिल्म की सफलता के पश्चात दादा साहब एक बार पुनः कामयाबी और प्रसिद्धि के शिखर पर पहुँच गए। कहते हैं इस पौराणिक फिल्म का ऐसा असर था कि जब-जब अभिनेता श्रीराम की भूमिका में पर्दे पर दृष्टिगोचर होता, तब-तब दर्शक श्रद्धावश अपने पैरों से जूते निकालकर अलग रख देते। फिल्म की सफलता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इससे अर्जित धनराशि को पुलिस के संरक्षण में बैलगाड़ियों में भरकर दादा साहब के घर पहुँचाया जाता था। [13]
1917 में 'फाल्के फिल्म्स' का 'हिंदुस्तान कंपनी' में विलय हो गया। [14] हिंदुस्तान फिल्म कंपनी के साथ भी फाल्के का सफलता की वही स्वर्ण गाथा अनवरत जारी रही। परिणाम स्वरूप कंपनी के बैनर तले निर्मित 'श्रीकृष्ण जन्म' ने कामयाबी की नई आयतें लिखी। परंतु फिल्म की यही कामयाबी और आर्थिक सफलता फाल्के के हिंदुस्तान फिल्म कंपनी से अलगाव के कारण भी बनीं। व्यावसायिक भागीदारों द्वारा अनेक आर्थिक अड़चने डालने से खफा फाल्के ने बनारस को अपनी नई कार्य स्थली चुना और वहाँ उन्होंने एक नाटक लिखकर प्रदर्शित किया। परंतु फाल्के खुद को अपने पहले प्रेम, फिल्म निर्माण से ज्यादा दिनों तक पृथक नहीं रख पाए। वे 1922 में एक बार फिर हिंदुस्तान फिल्म कंपनी लौट आए। लेकिन तब तक स्थितियां बहुत परिवर्तित हो चुकी थी। शुरुआती दौर में जहाँ धार्मिक फिल्मों का प्रभुत्व था वहीं अब दूसरे विषयों पर निर्मित फिल्में सिनेमा में हावी होने लगी थी। नए-नए फिल्मकार फिल्म निर्माण के क्षेत्र में उतर चुके थे तथा उनके द्वारा बनाई गई सामाजिक एवं ऐतिहासिक फिल्में दर्शकों को खूब रास आ रही थी। फाल्के अपनी ही बनाई दुनिया में खुद को अजनबी सा महसूस कर रहे थे। विपरीत परिस्थितियों और ढलती उम्र के बावजूद फाल्के ने एक बार फिर हिम्मत की और खुद को चुनौतियों के लिए तैयार किया। उन्होंने फिल्म निर्माण से बहुत आर्थिक लाभ कमाया परंतु सारी पूंजी वे वापस फिल्मों में ही लगा देते।
14 मार्च 1931 में सिनेमा को आवाज मिली [15] और मूक फिल्मों का दौर पीछे छूट गया। 1931 में ही दादा साहब की अंतिम मूक फिल्म 'सेतु बंधन' आई। [16] परंतु अब सिनेमा को आवाज मिल चुकी थी इस कारण 'सेतु बंधन' में आवाज डालने (डबिंग) के बाद पुनः रिलीज किया गया।
बीस फीचर फिल्में और करीबन सौ लघु फिल्में बनाने वाले दादा साहब की जमा पूंजी में टका भी न था, इसलिए उन्हें आजीविका अर्जित करने के लिए निर्देशक के रूप में पुनः फिल्म उद्योग से जुड़ना पड़ा। [17] पिछले बीस वषरें में दादा साहब अनेकों फिल्में बना चुके थे। 64 वर्ष की उम्र में दादा साहब ने कैमरा थामा और कोल्हापुर सिनेटोन के लिए हिंदी व मराठी में धार्मिक फिल्म 'गंगावतरण' बनाई। इस फिल्म को निर्मित होने में करीब दो साल का समय और तकरीबन दो लाख रुपये खर्च हो गए। 6 अगस्त, 1937 को यह फिल्म बॉम्बे के रॉयल ओपरा हाउस में प्रदर्शित हुई। [18] अद्भुत कलाकारी और बेहतर चित्रण के बावजूद फिल्म बॉक्स ऑफिस पर सफल नहीं हो सकी। परंतु रॉयल ओपरा हाउस में प्रदर्शित होने वाली प्रथम फिल्म का सम्मान इसे जरूर मिला। निर्देशक के रूप में दादा साहब की यह पहली सवाक फिल्म थी और साथ ही यह उनकी बनाई अंतिम फिल्म भी साबित हुई। [19] बिगड़ते स्वास्थ्य ने उन्हें फिल्म निर्माण से विमुख कर दिया। यह कैसी विडंबना है कि जिस शख्स ने भारत में सिनेमा रूपी बीज को बोया जिसकी फसल आज भी फिल्मकार बड़े गर्व और हक से काट रहे हैं और विश्व पटल पर पहचान दिलाई, वही शख्स अपने अंतिम दिनों में खुद अपनी पहचान से वंचित हो गया। फिल्मी दुनिया की चकाचौंध और फिल्मी लोगों से दूर 16 फरवरी, 1944 को नासिक में [20] दादा साहब फाल्के ने इस संसार को अलविदा कह दिया।
सम्मान जो जीते जी ना मिला :
1930 का दशक दादा साहब के लिए मुसीबतों भरा रहा। सिनेमा के जनक कहे जाने वाले और अपने समय के महान फिल्म निर्माणकर्ता को यह दशक रास नहीं आया। दादा साहब 1920 से 30 के दशक में आखिरी कुछ वर्ष सिनेमा से दूर हो गए थे। यही कारण रहा कि जब दादा साहब पुनः सिनेमा में वापस होते हैं तो उनको सिनेमा बदला हुआ नजर आता है। अब सिनेमा की प्रस्तुती और विषय बदल चुके थे और दादा साहब इस बदलाव को अपनी निर्माणकला में शामिल नहीं करना चाहते थे। वे सिनेमा को एक पवित्र कला के रूप में देखते थे। सिनेमा की दुनिया ने अब उन्हें भूला दिया। सिनेमा का पितामह अब गुमनामी के अंधेरों में गुम हो गया था और उसका बनाया हुआ सिनेमा जोर-शोर से रोशन हो रहा था। दादा साहब को इस बात का हमेशा दुख रहा कि सिनेमा और सिनेमा के लोगों ने उन्हें जीते जी भूला दिया।
फाल्के पुरस्कार और सम्मानित हस्तियाँ :
सिनेमा में वैसे तो अनेकों सम्मानों की प्रतिवर्ष घोषणा की जाती है लेकिन 'दादा साहब फाल्के' सम्मान की घोषणा का सबको वेसब्री से इंतजार रहता है क्योंकि यह सम्मान सिनेमा का सबसे महत्वपूर्ण सम्मान है, जिसे पाना हर सिनेकर्मी का सपना होता है। 1969 से प्रतिवर्ष सिनेमा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के लिए दिए जा रहे इस सम्मान से वर्ष 2013 तक निम्नलिखित सिनेकर्मियों जिनमें अभिनेता, अभिनेत्री, संगीतकार, निर्देशक, गायक, गायिका, सिनेमैटोग्राफर, लेखक, निर्माता, गीतकार आदि को सम्मानित किया जा चुका है। सम्मानित विभूतियों के नाम इस प्रकार हैं -
1. 1969, श्रीमती देविकारानी, अभिनेत्री, आंध्र प्रदेश।
2. 1970, बी एन सरकार, निर्माता, पश्चिम बंगाल।
3. 1971, पृथ्वीराज कपूर, अभिनेता (मरणोपरांत), पंजाब।
4. 1972, पंकज मलिक, संगीतकार, पश्चिम बंगाल।
5. 1973, सुलोचना (रूबी मेयर्स), अभिनेत्री, महाराष्ट्र।
6. 1974, बोमिरेड्डी नरसिम्हा रेड्डी, निर्देशक, आंध्र प्रदेश।
7. 1975, धीरेन गांगुली, अभिनेता, निर्देशक, पश्चिम बंगाल।
8. 1976, काननदेवी, अभिनेत्री, गायिका, पश्चिम बंगाल।
9. 1977, नितिन बोस, सिनेमैटोग्राफर, लेखक एवं निर्देशक, पश्चिम बंगाल।
10. 1978, रायचंद बोराल, संगीतकार, निर्देशक, पश्चिम बंगाल।
11. 1979, सोहराब मोदी, अभिनेता, निर्माता एवं निर्देशक, महाराष्ट्र।
12. 1980, पैड़ी जयराज, अभिनेता, निर्देशक, आंध्र प्रदेश।
13. 1981, नौशाद अली, संगीतकार, निर्देशक, उत्तर प्रदेश।
14. 1982, एल बी प्रसाद, अभिनेता, निर्माता एवं निर्देशक, आंध्र प्रदेश।
15. 1983, दुर्गा खोटे, अभिनेत्री, महाराष्ट्र।
16. 1984, सत्यजित राय, निर्देशक पश्चिम बंगाल।
17. 1985, वी शांताराम, अभिनेता, निर्माता एवं निर्देशक, महाराष्ट्र।
18. 1986, बी नागी रेड्डी, निर्माता, आंध्र प्रदेश।
19. 1987, राजकपूर, अभिनेता, निर्देशक, महाराष्ट्र।
20. 1988, अशोक कुमार, अभिनेता, बिहार।
21. 1989, लता मंगेशकर, गायिका, महाराष्ट्र।
22. 1990, अक्कीनेनी नागेश्वर राव, अभिनेता, आंध्र प्रदेश।
23. 1991, भालजी पेंढारकर, लेखक, निर्माता एवं निर्देशक, महाराष्ट्र।
24. 1992, भूपेन हजारिका, कवि, लेखक, पत्रकार, गायक, संगीतकार एवं अभिनेता, असम।
25. 1993, मजरूह सुल्तानपुरी, गीतकार, उत्तर प्रदेश।
26. 1994, दिलीपकुमार, अभिनेता, महाराष्ट्र।
27. 1995, डॉ. राजकुमार, अभिनेता, कर्नाटक।
28. 1996, शिवाजी गणेशन, अभिनेता, तमिलनाडु।
29. 1997, कवि प्रदीप, गीतकार, मध्य प्रदेश।
30. 1998, बी आर चोपड़ा, निर्माता, निर्देशक पंजाब।
31. 1999, ऋषिकेश मुखर्जी, निर्देशक, पश्चिम बंगाल।
32. 2000, आशा भोसले, गायिका, महाराष्ट्र।
33. 2001, यश चोपड़ा, निर्माता, निर्देशक, पंजाब।
34. 2002, देव आनंद, अभिनेता, निर्माता एवं निर्देशक, पंजाब।
35. 2003, मृणाल सेन, निर्देशक, पश्चिम बंगाल।
36. 2004, अडूर गोपालकृष्णन, लेखक, निर्माता एवं निर्देशक, केरला।
37. 2005, श्याम बेनेगल, निर्देशक, आंध्र प्रदेश।
38. 2006, तपन सिन्हा, निर्देशक, पश्चिम बंगाल।
39. 2007, मन्ना डे, गायक, पश्चिम बंगाल।
40. 2008, वी के मूर्ति, सिनेमैटोग्राफर, कर्नाटक।
41. 2009, डी रामानायडू, निर्माता, निर्देशक, आंध्र प्रदेश।
42. 2010, के बालचंदर, निर्देशक, तमिलनाडु।
43. 2011, सौमित्र चटर्जी, अभिनेता, पश्चिम बंगाल।
44. 2012, प्राण किशन सिकंद, अभिनेता, दिल्ली।
फाल्के और वर्तमान सिनेमा की धारा :
कहते हैं बदलाव प्रकृति का नियम है और हर बदलाव अपने साथ कुछ नयापन लेकर आता है जो मानव जाति तथा समाज के लिए उपयोगी एवं फायदेमंद हो। बहरहाल बदलाव भले अपने साथ नवीनता सँजोए रहता है परंतु कुछ क्षेत्र है जहाँ ये उपयोगी साबित नहीं होते। यह तथ्य हिंदी सिनेमा पर सटीक बैठता है। हिंदी सिनेमा पिछले कुछ दशकों में, संपूर्ण बदलाव के दौर से गुजरा और वर्तमान में एक बिल्कुल नए अवतार में हमारे सामने है।
फिल्म निर्माण की कला एक बिल्कुल नए रूप में हमारे समक्ष है चाहे वो फिल्मों की विषयवस्तु हो, संगीत हो, फिल्मांकन हो, तकनीकी, वितरण पद्धति हो या प्रचार के तरीके। हर क्षेत्र में एक नया पक्ष है कुछ ऐसा जो शुरुआती दौर में किसी स्वप्न से कम न था। तकनीक ऐसी कि हर किसी को दाँतों तले उँगली दबाने पर मजबूर कर दे चाहे वो फिल्म 'रोबोट' में नायक का पीछा करते हुए मशीनी मानव का अलग-अलग छदम रूप धारण करना हो या फिल्म 'रॉ-वन' में मशीनी मानव बने नायक शाहरुख खान का बुलेट की रफ्तार से भागती ट्रेन पर दौड़ना, रोहित शेट्टी की फिल्मों में गाड़ियों को हवा में लहराते हुए नायक के सिर के ऊपर से निकल जाना हो या 'जिंदगी न मिलेगी दोबारा' की समुद्र में स्कूबा डाइविंग, तकनीकी ने सब कुछ बदल दिया है। बहरहाल ये सभी कदम स्वागत-योग्य हैं। परंतु फिर भी एक ऐसा तथ्य है जो इन सारी खूबियों के बावजूद वर्तमान सिनेमा को प्रारंभिक दौर के सिनेमा के समक्ष बौना सिद्ध कर रहा है। ऐसा नहीं कि गुणवत्तापूर्ण फिल्में बननी बंद हो गई हैं परंतु सामाजिक परिवेश, तथा भारतीय दर्शकों की विशिष्ट पसंद, प्राथमिकताओं, मूल्यों तथा संवेदनाओं को देखते हुए ऐसी फिल्मों की संख्या नगण्य है। ऐसा प्रतीत होता है मानो आज का सिनेमा समाज में हो रहे तकनीकी विकास तथा संचार क्रांति से समरसता स्थापित कर अपना अस्तित्व बचाने का प्रयास कर रहा है। इस प्रक्रिया में फिल्म निर्माता इस महत्वपूर्ण तथ्य को पूर्णतः नजरअंदाज कर रहे हैं कि लोग (दर्शक) अभी भी अपनी सदियों पुरानी परंपरा, मूल्यों तथा भावनाओं से जुड़े हुए हैं। उनके लिए विकास सिर्फ जीवन को और आरामदेह बनाने का जरिया है ना कि उनकी भावनाओं और मूल्यों की प्रतिपूर्ति करने का कोई विकल्प और यहीं वे धोखा खा गए और नतीजा फ्लॉप फिल्मों की लंबी फेहरिस्त के रूप में हमारे सामने है।
तकनीकी रूप से आज के फिल्मकारों से काफी पीछे दादा साहब दर्शकों के इस स्वभाव से भली-भाँति परिचित थे। वे अच्छी तरह जानते थे कि संस्कार तथा धार्मिक भावनाओं की जड़ें भारतीयों के हृदय में काफी गहरी हैं। वे इस तथ्य को पूर्णतः मानते थे कि समाज भले ही कितना भी भौतिकवादी और अवसरवादी हो जाए, मशीनी युग के प्रभाव से धर्म का बाहरी रूप कितना भी बदल जाए परंतु यथार्थ में एक आम आदमी का विश्वास कभी शिथिल नहीं होगा। 20 वर्षों में दादा साहब ने 117 फिल्मों का निर्माण किया। परंतु उनकी हर फिल्म दर्शकों की सामाजिक तथा धार्मिक अवधारणा को संतुष्ट करती है। यहाँ तक कि जब दादा साहब अपनी फिल्म यात्रा के दौरान असफलता के दौर से गुजर रहे थे और उनके समकालीन फिल्मकार अपनी फिल्मों में अभद्र दृश्यों का समावेश कर सफलता के घोड़े पर सवार शोहरत की बुलंदियों को छू रहे थे, तब भी दादा साहब ने अपने आदर्शों तथा मान्यताओं को कभी दाँव पर नहीं रखा। उनके जिंदा रहते फिल्मी दुनिया के लोग उन्हें भूल गए। इसका दुःख उन्हें जीवन के अंत तक रहा। उनकी मृत्यु के बाद सन 1969 से सिनेमा के क्षेत्र में सर्वाधिक योगदान करने बाले व्यक्ति को दादा साहब फाल्के के नाम से फिल्मी दुनिया का सर्वोच्च सम्मान प्रदान किया जाता है। दादा साहब ने हमेशा आम लोगों के लिए फिल्में बनाई शायद इसलिए उनकी हर फिल्म वास्तविकता, सामाजिक तथा धार्मिकता के धरातल पर आधारित थी। परंतु इसके विपरीत आज के फिल्मकार फिल्मों का निर्माण उन कुछ मुठ्ठी भर लोगों के लिए करते हैं जिनकी पहुँच मल्टीप्लेक्सों तक सीमित है। फिल्म निर्माण के जरिए धन एकत्रित करने की अपनी असीमित लालसा के चलते आज के फिल्मकार समाज से हटते चले जा रहे हैं। अपने सामाजिक दायित्वों तथा मूल्यों की अनदेखी कर ये फिल्मकार धन कमाने की होड़ में लगे हुए हैं।
व्यावसायिकता तथा भूमंडलीकरण के आगमन ने आग में घी डालने का काम किया। अब इन फिल्मकारों की लालसा राष्ट्रीय सीमा पारकर अंतरराष्ट्रीय जमीन तक पहुँच गई है। भूमंडलीकरण ने इन फिल्मकारों को मौका दिया कि वे अपनी फिल्में दुनिया के दूसरे छोर पर प्रदर्शित कर सके। आज सिनेमा की गुणवत्ता का मूल्यांकन इस बात पर आधारित होता है कि रिलीज होते ही किस फिल्म ने कितनी कमाई की। मल्टीप्लेक्स संस्कृति ने इसे और अधिक प्रबलता प्रदान की है। समाज को आइना दिखाने के ध्येय से सिनेमा का निर्माण अब अतीत का विषय बन चुका है। महंगाई और आर्थिक मुश्किलों को झेलते आम लोगों का हाल सिनेमा द्वारा अब किसी भी कोण से परिभाषित नहीं होता। भूमंडलीकरण ने जिन विकृतियों को जन्म दिया है सिनेमा ने उसे स्वीकृति देकर विज्ञापित किया है।
ये तथ्य सभी फिल्मी प्रेमियों के लिए निराशाजनक हैं। हम अपने मूल संस्कृति तथा उद्देश्यों को बिखराकर सिर्फ दूसरे देशों की संस्कृति की अंधी नकल करने में मशगूल है। भारत में सिनेमा के 100 वर्ष पूर्ण होने के अवसर पर हमें सिनेमा के मूल उद्देश्यों सामाजिक दायित्वों को पुनः परिभाषित करने की आवश्वयकता है।
संदर्भ गंथ :
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