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सिनेमा

शहरी और आदिवासी चरित्रों की पड़ताल करती फिल्म : अरण्येर दिन रात्रि

गरिमा भाटिया


फिल्‍म समीक्षकों द्वारा बहुचर्चित बहुप्रशंसित फिल्‍म अरण्येर दिन रात्रि (सन 1970) लीजेंड फिल्म निर्माता-निर्देशक सत्यजित राय की फिल्मों की फेहरिस्त में एक संक्रमण बिंदु की ओर इशारा करती है। इसी फिल्म से उन्होंने ग्रामीण एवं कस्बाई बंगाल के समकालीन मुद्दों पर ध्यान देना शुरू किया। उनकी आगे की फिल्में कोलकाता पर आधारित हैं। ये फिल्में हैं - सीमाबद्ध (1971), प्रतिद्वंद्वी (1972) एवं जनअरण्य (1975) ये फिल्में कोलकाता त्रयी कही जाती हैं जिसमें बंगाल के इतिहास के अशांत समय की गूँज और इसके एक गाँव में जन्मे नक्सलवादी आंदोलन के चरम की अभिव्यक्ति हुई है। अरण्येर दिन रात्रि इन फिल्मों की अग्रिम कड़ी कही जा सकती है। अरण्येर दिन रात्रि में समाज के नैतिक पतन की ओर संकेत किया किया गया है, जो संभवतः नक्सलवादी आंदोलन की तह से फूटा हुआ असंतोष है।

बांग्ला भाषा के सुप्रसिद्ध लेखक सुनील गंगोपाध्याय के उपन्यास पर आधारित इस फिल्म में कोलकाता के चार शहरी युवकों द्वारा बिहार के पलामू जिले में जाने की कहानी है। ये चारों अलहदा व्यक्तित्व के मालिक है। असीम का चरित्र सौमित्र चटर्जी द्वारा निभाया गया है। पढ़ा-लिखा और आत्मविश्वास से भरा हुआ शख्‍स असीम, जो इस समूह के अघोषित नेता जैसा है, कोलकाता की एक फर्म में मुलाजिम है। संजय फिल्म का दूसरा चरित्र है, जिसे शुभेंदु चटर्जी ने निभाया है। यह चरित्र अत्यंत आत्मकेंद्रि‍त एवं संकोची स्वभाव वाला प्रबुद्ध चरित्र है। हरि फिल्म का तीसरा चरित्र है। हरि जिसकी भूमिका समित भांजा द्वारा निभाई गई है। यह चरित्र मौज-मस्‍ती में रहने वाला व कम सोच-विचार करने वाला है। फिल्म का चौथा व अंतिम पात्र शेखर है, जिसकी भूमिका का निर्वाह रबि घोष ने किया है। शेखर मस्तमौला टाइप का चरित्र है, जिसकी उपस्थिति से पूरे समूह का मनोरंजन होता रहता है। इन चारों में से केवल एक शेखर (जो बेरोजगार है) को छोड़कर सभी का इस यात्रा में आने का कारण स्पष्ट है - असिम एवं संजय ने रोज-रोज की आपाधापी से निजात पाने के लिए इस यात्रा का चुनाव किया है जबकि हरि प्यार में मात खाने के बाद इस समूह में शामिल हुआ है। शहरी जीवन के बंधनों से मुक्त होने के लिए एक खास सुख की कामना में ये शहर से निकल पड़ते हैं।

जंगल एवं जंगलवासी आदिवासियों के प्रति शहरी छैलों का रवैया फिल्म के प्रारंभ से ही दिखने लगता है। इस जंगली क्षेत्र एवं जीवन पर आधारित एक आलेख (पलामू नाम का यह आलेख गत उन्नीसवीं शदी के लेखक बंकिम चंद्र चटर्जी के बड़े भाई संजीव चटर्जी द्वारा लिखा गया है) संजय द्वारा पढ़ा जा रहा है। जिसमें बताया गया है कि संथाल स्त्रियाँ युवावस्था में गहरे रंग की होती हैं और उन्मुक्त जीवन की लती होती हैं। पुरुषों के साथ ये स्वच्छंदतापूर्वक मदिरापान करती हैं। संजय यह आलेख जोर-जोर से बोलकर पढ़ रहा होता है और अन्य तीनों इससे दिशा निर्देश प्राप्त कर रहे होते हैं। बाद में वे एक स्थानीय मदिरालय पहुँचते हैं, जहाँ उन्हें कुछ संताली औरतें मिलती हैं। हरि उनमें से एक को पसंद कर लेता है। वह भरे-पूरे शरीर की आकर्षक युवती दुली है जिसकी भूमिका फिल्‍म में सिमी ग्रेवाल ने निभाई है।

जंगल में घूमने को आए सभी युवा अपनी विशि‍ष्‍टताओं को लेकर आत्मविश्वास से लबरेज हैं। यह दबंगई उनके क्रियाकलापों और व्यवहार में शुरू से ही दिखाई दे जाती है, जब वे जंगल के रेस्ट हाउस में दाखिल होते ही आमतौर पर ईमानदार चौकीदार की मुट्ठी गरम करते हैं और उसको अपनी चालाकी से अनजान रखने के लिए असीम अंग्रेजी में बुदबुदाता है - "थैंक गाड फार करप्शन।" ताकि चौकीदार समझ न पाए। एक युवा हरि का बटुआ गुम होने पर आदिवासी सहायक को फौरन बरखास्त करने से वे नहीं चूकते, दूसरी ओर बहुत कम मेहनताने पर एक संथाली औरत पर नजर भी गड़ाए रहते हैं जिसे उन्होंने कमरे की सफाई के लिए रखा है। चौकीदार की बीमार बीवी की खैरियत जानने में उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं है। उनकी एक मात्र चिंता है कि अब खाना कौन पकाएगा। बाकी की दुनिया से उनका कोई सरोकार नहीं, वे सिर्फ अपना हित साधने में लगे रहते हैं। वे अपने इस विश्वास पर अडिग हैं कि पैसे के बूते पर किसी भी स्थिति से बाहर आया जा सकता है। वे पांरपरिक बंगाली समाज में आए बदलावों को और युवा पीढ़ी में बढ़ते हुए व्यक्तिवाद और भौतिकवाद को पश्चिमी सभ्यता की देन मानते हैं।

संयोग से वे एक बंगाली परिवार के संपर्क में आ जाते हैं और इस परिवार के मित्र बन जाते हैं, जिसमें अवकाश प्राप्त एक सहृदय बुजुर्ग व्यक्ति के साथ उनकी युवा व सुंदर पुत्री अपर्णा (शर्मिला टैगोर) और विधवा पुत्र वधू जया (कावेरी बोस) रह रही हैं। समान पृष्ठभूमि और इस परिवार की मेहमानवाजी वाले स्वभाव के कारण चारों युवा दोस्तों का इस परिवार में द्वार दिल खोलकर स्वागत किया जाता है। उनका इस अभिजात्‍य परिवार के सदस्‍यों से परिचय, उनके जंगल में छुट्टी बिताने के फक्‍कड़ अंदाज से अलग अपनी तरह के सभ्‍य वाशिंदों का स्‍वागत करता है । फिल्म के अगले हिस्से में यह 'प्रेमालाप के खेल' (मेटिंग गेम - चिदानंद दास ने 'द सिनेमा ऑफ सत्यजित राय' में इसे यही संज्ञा दी है) में रूपांतरित हो जाता है। असिम अपर्णा की ओर खिंचता है और जया संजय की ओर आकर्षित होती है। जैसे-जैसे समय बीतता है, इन पुरुषों का दंभ और आत्मविश्वास का अतिरेक सामने आने लगता है जिससे स्‍पष्‍ट हो जाता है कि उनकी नजर में स्त्री का दर्जा दोयम है। उनका मानना है कि स्त्रियों एवं विनाशकारी घटनाओं का आगमन साथ-साथ होता है। उन्‍हें यह भी लगता है कि औरतें तो जैसे हाथ बढ़ाते ही हासिल हो जाएँगी। फिल्म में उनकी गतिविधियाँ उनकी मनोवृत्तियों का खुलासा कर देती हैं। जैसे, जब वे खोए हुए बटुए को वापस करने के लिए गेस्ट हाउस आते हैं या और खुले में स्नान करने का अवसर पाते हैं और साथ ही एक दूसरे अवसर पर कार की रोशनी में दिखाई पड़ता है कि वे नशे में धुत्त होकर आधी रात को सड़क पर नाच रहे हैं। परिणामतः आमंत्रित सुबह के नाश्‍ते पर नहीं पहुँच पाते हैं। इसके साथ दूसरे मौके पर एक किशोर फारेस्टकर्मीं द्वारा उनके दरवाजे को खटखटाने (जगाने के लिए) पर ये चारों मिलकर उसकी धुनाई करते हैं। अपर्णा और जया द्वारा बीच-बचाव करके उस फारेस्टकर्मी आदिवासी की जान छुड़ाई जाती है।

इस हादसे से असिम बहुत गहराई से प्रभावित होता है और उसका अहं आहत होता है। उसके ईगो को तुष्ट करते हुए उसे इससे निकालने की जरूरत है, अपर्णा इसे समझकर एक खेल आयोजित करती है। खेल एक पिकनिक के दौरान होता है, जिसमें सभी अपने दायरे से बाहर निकलने लगते हैं और उनका मूल चरित्र खुलकर सामने आ जाता है। अपर्णा यहाँ जान-बूझकर असिम से हार जाती है और असिम अपने खोए हुए आत्मविश्वास को पा जाता है।

सत्यजित राय ने सुनील गंगोपाध्याय की मूल कहानी के स्वरूप में सिनेमांतरण करते समय थोड़ा-बहुत परिवर्तन भी कर दिया है, जिससे लेखक की सहमति नहीं थी। किताब मे चारों युवक बेरोजगार बताए गए हैं और बिना टिकट यात्रा करके पलामू पहुँचते हैं। फिल्म में वे आर्थिक रूप से संपन्न (एक शेखर को छोडकर) हैं और जीवन में ऐशो आराम के आदी हैं। किताब की तुलना में फिल्म में आदिवासी समाज की सजीवता कुछ कमजोर सी पड़ गई है और सरलीकरण का शिकार हो गई है। जो कई जगह दिखाई पड़ती है, जैसे-शेखर द्वारा कमरे की साफ सफाई के लिए बुलाई गई संताली स्‍त्री को देखकर गैर-आदिवासी चौकीदार झिड़कते हुए कहता है कि - 'सरकार ये गंदी औरतें होती हैं।' इसके साथ वह यह भी जोड़ता है कि ये नैतिक रूप से गिरी हुई औरतें हैं। फिल्म देखने वाले समझ जाते हैं कि हमारी जाति/वर्ग के सबसे निचले पावदान पर आदिवासी समाज अवस्थित है। बाद में दिखाया जाता है कि वह संताली महिला पैसे लेकर हरि के साथ सोने के लिए तैयार हो जाती है। साथ ही सपना देखने लगती है कि वह गहने खरीदने के लिए शहर जा रही है और खूब सूखी जीवन जी रही है। यह दृश्य भी सरलीकरण का सामान्य उदाहरण है। जब हरि का बटुआ खो जाता है तो आदिवासी किशोर पर चोरी आरोप लगाया जाता है कि और उसे पीटा जाता है। जंगल में यही आदिवासी किशोर अपने अपमान का बदला लेता है परंतु बटुआ लेने के झूठे इल्‍जाम से इनकार नहीं करता। इस दृश्य के द्वारा यह दिखाने की कोशिश की गई है कि आदिवासी प्रतिशोध लेने वाले होते हैं, बेशक वे चोर न हों तो भी। यह भी सरलीकरण का ही एक दूसरा नमूना है।

फिल्म के अंत में सभी प्रमुख पात्रों को जंगल मे ही दिन और रात बिताते दिखाया गया है। सभी चरित्रों को सूक्ष्मता से गढ़ा गया है। असिम का अति आत्मविश्वास या दंभ अपर्णा द्वारा झकझोरा जाता है। असिम अपर्णा को नैतिक और अपने से ज्यादा प्रबुद्ध मानने लगता है साथ ही उसे खुद में संवेदनशीलता की कमी का अहसास होने लगता है। वह इस की पूर्ती करना चाहता है। संजय का साबका अपनी भीरुता से होता है। जब वह जया की उन्मुक्तता एवं प्रगतिशीलता का सामना नहीं कर पाता तो असहाय सा महसूस करने लगता है। इस बीच हरि दुली के साथ सहवास करके अपनी मर्दानगी पर विश्वास हासिल कर लेता है। जंगल से लौटकर उसका यौवन अगले शिकार के लिए मुस्तैद नजर आता है। सिर्फ शेखर ही वह व्यक्ति है जिसमें इन तमाम घटनाओं के बाद भी खास बदलाव दिखाई नहीं देता। आदिवासी नुमाइंदों के रूप में दो फिल्म में दो चरित्र हैं - आदिवासी सहायक और दुली। दोनों शहरी वाशिंदों के संपर्क में आकर कुछ बदलते जरूर हैं। हालाँकि फिल्म दुली में होने वाले बदलाव को एक सनसनीखेज तरीके से जाहिर नहीं करती, पर कुछ घटनाओं के जरिये उनकी मासूमियत को होते अवश्य दिखाया गया है। इसी क्रम में आधुनिक शहरी मानसिकता का एक कड़वा सच भी बखूबी जाहिर हो गया है कि शहरी लोगों के लिए जंगल और जंगल के वाशिंदे एक ओर सिर्फ तात्‍कालिक उपभोग का जरिया हैं, दूसरी ओर यह भी रेखांकित होने से नहीं चूकता कि जंगल के संसाधन निर्ममतापूर्वक उपभोग करने के बाद फेंक देने के लिए बने हैं।

यह फिल्म जब पहली बार भारत में प्रदर्शित हुई तो इसका स्वागत उदासीनतापूर्वक ही किया गया और इसके पात्रों में नैतिकता के अभाव के कारण कटु आलोचना भी की गई। पर विदेशों में इसे बहुत पसंद किया गया और सराहा गया। वहाँ इसे मानव जीवन की जटिल संश्लिष्टताओं को गहराई से दिखाने वाली मास्टरपीस फिल्म कहा गया। सत्यजित राय ने स्वयं इसे अपनी श्रेष्ठ फिल्मों में से एक माना है (स्पीकिंग आफ फिल्‍म्‍स - सत्यजित राय) वस्‍तुतः अरण्येर दिन रात्रि मानव चरित्रों की बारीक पड़ताल करने वाली फिल्म के रूप में एक अलग धरातल खड़ी दिखाई देती है - जहाँ शहर और गाँव के भीतरी संघर्ष से उपजे अंतर्द्वंद्व, विचारों और भावनाओं की सघनता को संवादों से ज्यादा क्रियाकलापों और दृश्यों के माध्यम से स्थापित किया गया है।


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