उधड़ गया हूँ कितनी-कितनी जगह किरनें मेरी तुरपाई कर रही हैं देखिए न आप - बाँच रहा हूँ धरती और भरा जा रहा है आसमान पूरब का लाल रंग अभी गीला है बहुत दवात में भरा हुआ इसी लाल से सुबह-सुबह मैं अपनी आयु के प्रूफ देखता हूँ।
हिंदी समय में प्रेमशंकर शुक्ल की रचनाएँ