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कविता

पृथ्वीे का उपालंभ

मत्स्येंद्र शुक्ल


ये शब्‍द पंक्तिबद्ध जो दिख रहे चमकते
सपाट शंखई गगन में
इनका मूल्‍य मत पूछो मर्म-वाहक हैं ये
शिविरों में किसी देश का इतिहास नहीं पलता
आए हैं
पृथ्‍वी आकाश के मध्‍य तरंग-सम
दुख रत्‍ती भर सुख जो भी उपलब्‍ध
चिंता उपहास शोषण उसे मापने
रख सकते यथार्थ-गाथा पत्‍ते की झुकी नोक पर
जितना समझ सकेंगे
ले जायँगे साथ
धोकर रख देंगे आकाश-गंगा तट पर
कि जियो कहो काल की कथा अविराम
तारे भी समझें
किस पीड़ा से व्‍यथित है वसुंधरा
कितना व्‍यक्‍त कितना है अनकहा
शब्‍दों में नहीं समाता पृथ्‍वी का उपालंभ

 


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