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कविता

क्योंकि हम सब भेड़ हैं

मत्स्येंद्र शुक्ल


दल-बदल क्रूरता के चलते समाज कई खेमों में विभक्‍त है
जमीन और अन्‍न के बँटवारे में आदमी पहले से ज्‍यादा सतर्क है
खोदता जिस दर पे कुआँ वहीं सतह से नीचे खिसक जाता पानी
रात में चिल्‍लाते राहगीर पेड़ से लटकती बंदूकें
क्रूरता से घबराया समूह पीटता खाली पेट सीझी मृदंग
काँपते पखेरू हो रहा अजूबा कहीं कुछ
पीले जल में गोते लगा बंदर लोटते काली जमीन पर
चिलबिले से घिरे पत्‍थरों पर सोए कंजड़ों ने आँख मींच कंधा सहलाया
धरती से आसमान तक पुतली नचा भविष्‍य का अनुमान लगाया
कठिन व्‍यूह जो प्रत्यक्ष भीड़ में अग्नि स्वयंवर
चितेरे खड़े नौका की तलाश में नदी-बाँह पर सूनापन
ठेलमठेल जंजीर की जकड़न प्रतिवादी नहीं होता जवाबदेह
मस्‍त तबलची नशे में हिलाता हवेली के स्तंभ
बिल्‍ले की चमकीली आँख गर्म चेहरा पंजे की चकलाई
हँसते मसखरे नवाब के बच्‍चे टोपी की आड़ में
क्‍या हम सब भेड़ हैं हँकवारे की डपट पर भटकते रहें हजार वर्ष तक
रंग का चमत्‍कार पूछने कितनी बार जायँ रंगसाज के गाँव
ओस भीगी रात के चौथे पहर में बड़बड़ाती बंजारिन -
जो चीज मेहनत से न जोड़ पाएँ उस पर क्‍यों तपाएँ आँख
झोंपड़े की आड़ में कतवारिन पछोरती खली के दाने
बिसात जहाँ बिछी वहाँ कोयलरी का मालिक पुल का ठीकेदार
उपेक्षित वनवासियों के पक्ष में उजाली रात सुखद रात है
पानी मिले, मिल जाय रोटी बस, इतना ही पर्याप्‍त है


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