मुझे अच्छी तरह मालूम है देश-प्रेम और नागरिकता की व्याख्या
चाल चलन रूप रंग से मैं इसी देश का बासिंदा हूँ
समझ रहा संधि-विच्छेद सामासिकता का प्रयोजन
जिसे मुट्ठी में समेट वक्ता दे रहे सरलीकृत व्याख्यान
भगई बाँध देश का महासंत होना चाहता समय का सुलतान
कौन हैं जो पूछ रहे प्रश्न उन्नीस का पहाड़ा।
वह घड़ी स्मरण है मुझे जब तमाम किताबें रखी गई थीं सामने
मनन कुछ चिंतन करो चार वर्ष उपलब्ध होंगी किताबें बाद में
बूढ़ा दिलावर जो अक्ल का तेज फुसफुसाया संक्षिप्त
किताबें बहुत और अखबार टीवी के उत्तेजक चैनल
दैनिक जरूरत का एक भी पाठ नहीं कविता अनुपस्थित
नैतिक शिक्षा का कारोबार जब शुरू होता नए मुद्दों के संग
खास कर पाठ्यक्रम संशोधन अगला पाठ जोड़ने की तरकीब
चहेट पर पकड़े जाते केवल स्कूली बच्चे शिक्षक प्रशिक्षक
गंगा-घाट की विधवाएँ नवेली वेश्याएँ भिखारी लूले-लंगड़े
शेष जो मुल्क में खास सरोकार नहीं नैतिक मूल्य से
समाज का व्याकरण तोड़ने से हलंत की दशा में पहुँच रहा महादेश
भाषा से असहज खेल बेहद खतरनाक जबकि आदमी मौजूद प्रेक्षागृह में
मेरी ही शक्ल-सूरत में जो दिख रहे काली छाया के प्रभाव में
वे हर हाल मुझ पर विश्वास करने को तैयार नहीं
घूरे पर टटोलते छप्पर की देह जिसमें हजार छेद
जब जेहन में आता पढ़े गए शब्दों का खास उपयोग नहीं
धोखाधाड़ी की सेज पर चल रहा बड़प्पन का राष्ट्रीय कारोबार
हालतयह कि मेरा हक छीनने पर उतारू है एक समूह
शासन और कानून जैसे शब्दों से होता नहीं भय का संचार
भविष्य में बच्चे क्यों पढ़ेंगे बेमतलब की किताबें
सोचो नए पाठ्यक्रम में क्या शामिल करने की जरूरत है