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कविता

इक्कीसवीं शताब्दी

मत्स्येंद्र शुक्ल


आँख में काली पट्टी बाँधे
अंधकार को बाँहों में लिपटाए
चली जा रही इक्‍कीसवीं शताब्‍दी
रेत भरी बह रही उदास राप्‍ती
नदियाँ भूल रहीं अस्तित्‍व का इतिहास
गझिन वनों में लकड़हारों का डेरा
सरकारी खजानों भवनों में
गिरहकट वाक्पटुओं का बसेरा
गोदाम कल-कारखाने बंद
सत्‍ता को ज्ञात सब किंतु पुलिस का पहरा
गरीबों के साथ भेद-भाव गहरा
समय का नहीं मालूम शायद
भूल चुका वह घटनाएँ शोषण-अनर्थ
जो घट चुकीं पिछली शताब्‍दी में


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हिंदी समय में मत्स्येंद्र शुक्ल की रचनाएँ