जूझ रहे जन भीड़ बना कर
कारण क्या ? कुछ पता नहीं
चेहरे पर व्याकुलता हारे-हारे
टूट रहा है संचित साहस
मध्यस्थ नहीं दिखता कोई
युग-संस्कृति का कहाँ विधाता ?
कौन बनेगा जन का त्राता ?
आते जाते लोग अनेक
शंकित मन द्वन्द्व अबूझ
मौन खिसक जाते दीर्घा - पर
छद्म प्रपंचित जग-व्यवहार
झगड़ेंगे केवल गँवई लोग
पालेंगे निज में दैन्य रोग
कौन सिखाएगा जन को?
लोकतंत्र का महायोग