अपनी अपनी हदों में चिने हमारे वजूद
जब भी दखल करते हैं
हदों की खामोशियों में
एक जंगल चिंघाड़ उठता है
दरख्त सहम जाते हैं
पंछी उड़ जाते हैं पंख फड़फड़ाते
घोंसलों को छोड़ना कितना दुरूह होता है
मगर चीखें कब जीने की मोहताज हुई हैं
शब्दों के पपीहे कुहुकना नहीं जानते
शब्दों का अंधड़ हदों को नागवार गुजरता है
तो तूफान लाजिमी है
फिर सीमाएँ नेस्तनाबूद हों
या अस्तित्व को बचाने का संकट
हदों के दरवाजों पर चोट के निशाँ नहीं दिखते
गहरी खामोशियों की सिलवटों पर
केंचुए रेंग रहे होते हैं अपनी अपनी सोच के
और करा जाते हैं अपनी अपनी उपस्थिति दर्ज
अपने अपने दंभ की नालियों में सड़कर
क्षणिक नागवारियाँ, क्षणिक कारगुजारियाँ
काफी होती हैं जंगल की आग को हवा देने के लिए
और तबाहियों की चटाइयों पर काले काले निशान
जलते शीशमहल की आखिरी दीवार का
कोई आखिरी सिरा खोज रहा होता है
मगर जुनूनी ब्लोटिंग पेपर ने नमी की स्याहियों को सोख लिया होता है
फिर निर्जीव हदों की तासीर कैसे ना अपनी आखिरी साँस को मोहताज हो???
सितारों से आगे कोई आस्माँ है ही नहीं
गर होगा तो सुलगता हुआ
"हम" की सुलगती जद पर ...तुम और मैं ...जहाँ... "हम" की तो कोई हद है ही नहीं
अपने-अपने किनारे ...अपनी-अपनी हद और तन्हा सफर
और मुकम्मल हो गई जिंदगी...)
चिह्नित होने के लिए काफी है दरख्त पर काले निशान लगाना...
यूँ भी खामोशियों के जंगलों की आग किसने देखी है?