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कविता

आज की मिट्टियों में ऐसे कँवल नहीं खिला करते

वंदना गुप्ता


उसने कहा

खुली किताब खुले पन्ने

हर्फ फिर भी पढ़ ना पाया

चल जालिम पढ़ने का शऊर भी ना सीख पाया तू ...फिर मोहब्बत क्या खाक करेगा

सुन जालिम चिल्लाया

मोहब्बत का हुनर किताबों में नहीं मिला करता

वो बोली

अरे शैदाई यहाँ कौन सी किताब पढ़नी है

एक लफ्ज है प्रेम जिसकी इबादत करनी है

और पढ़ा दिया मोहब्बत का पहला पाठ

ढाई आखर की तो कहानी है

मगर उससे पहले जरूरी है

रेखाओं को रेखांकित करना,

किसी के दर्द को महसूसना,

किसी के अनकहे जज्बातों को

हर्फ-दर-हर्फ पढ़ना...

यूँ ही मोहब्बत नहीं की जा सकती

मानो माला के मनके फेरे हों

और हृदय में बीजारोपण भी ना हुआ हो...

मोहब्बत करने के लिए

आत्मसात करना होता है बेजुबानों की जुबान को,

दर्द के मद्धम अहसास को,

इश्क की टेढ़ी चाल को,

पिंजरे में बंद मैना की मुस्कान को,

मुस्कुराहट में भीगी दर्द की लकीर को,

उम्र के ताबूत में गड़ी आखिरी कील को

जो निकालो तो लहू ना निकले और लगी रहे तो दर्द ना उभरे...

मोहब्बत के औसारों पर फरिश्ते नहीं उतरा करते

वहाँ तो सिर्फ दरवेश ही सजदा किया करते हैं

क्या है ऐसा माद्दा तुझमें मोहब्बत का जानाँ

जोगी बन अलख जगाने का और हाथ में कुछ भी ना आने का

गर हो तो तभी रखना मोहब्बत की दहलीज पर पाँव

क्योंकि

यहाँ हाथ में राख भी नहीं आती

फिर भी मोहब्बत है मुकाम पाती

उम्र की दहलीजों से परे, स्पर्श की अनुभूति से परे, दैहिक दाहकता से परे

सिर्फ रूहों की जुगलबंदी ही जहाँ जुंबिश पाती

बस वहीं तो मोहब्बत है आकार पाती

...कभी खुश्बू सा तो कभी हवा सा तो कभी मुस्कान सा

निराकारता के भाव में जब मोहब्बत उतर जाती

फिर ना किसी दीदार की हसरत रह जाती

फिर ना किसी खुदा की बंदगी की जाती

बस सिर्फ सजदे में रूह के रूह पिघल जाती

और कोई खुशगवार छनछनाती प्रेम धुन हवाओं में बिखर जाती

बाँसुरी की धुन में किसी राधा को गुनगुनाती सी...

और हो जाता निराकार में प्रेम का साकार दर्शन

गर कर सको ऐसा जानाँ

तभी जाना किसी पीर फकीर की दरगाह पर प्रेम का अलख जगाने...

जो सुना तो शैदाई ना शैदाई रहा वो तो खुद ही फकीर बन गया

आज की मिट्टियों में ऐसे कँवल नहीं खिला करते जो देवता को अर्पित हो सकें


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