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उदयन वाजपेयी


वे रात भर अन्त की

वे रात भर अन्त की
प्रतीक्षा करते रहे जो
घुप्प आकाश के एक अदृश्य
कोने में पड़ा
सोता रहा रात भर

उसने मुझे कन्धे हिलाकर
जगाया, बोली धीरे से
मेरे पंख ! मेरे पंख !!
नींद में चलते मैंने वे
चुपचाप उसके हाथों में रख दिए
जैसे वह उन हाथों से
गुसलख़ाने से भूले हुए
कपड़े माँग रही हो, धीरे से


वह घर से निकली है

वहवह घर से निकली है
खिड़की से सड़क देखता है

उसके साथ चुपचाप चल रहा है अनिश्चय
उसके साथ बैठी है अपने से निरन्तर उत्पन्न होती हुई प्रतीक्षा

पल भर को ही सही
वे इन्हें आपस में बदल सकते
उन क़िताबों की तरह
जिन्हें कुछ कहे बिना
वे बदलने वाले हैं आज शाम

वह लगातार घर से निकल रही है
वह खिड़की से देख रहा है सड़क की निस्पन्द अन्तहीनता

वह उसकी सिहरती देह में

वह उसकी सिहरती देह में
बोता जाता है अनेक स्पर्श

अपनी ही आभा की झील में
डूब रहा है
चाकू-सा पैना चन्द्रमा

वह अँधेरे कमरे में
चुपचाप उठकर खोजती है
कहाँ गिर गया वह कनफूल !


उसने उल्टी सेण्डिल को सीधा कि या

उसने उल्टी सेण्डिल को सीधा किया
कि इससे झगड़ा होता है
किनमें? पूछने पर वह चुप रही थी

आकाश में काँच के शिल्प की तरह टँगा
मूक चन्द्रमा इन्तज़ार करता है
फ़र्श पर अपने टूट कर गिरने की आवाज़ का

वह कमरे में उल्टे पड़े
एक जोड़ा एकान्त को
सीधा कर फ़र्श पर जमा देता है
कि वह आए और इन्हें पहिनकर चली जाए
उस ओर जहाँ से आते हुए
वह लगातार दिखती रही थी।


सम्भव है वह भूल जाए अपना प्रेम

सम्भव है वह भूल जाए अपना प्रेम
सम्भव है वह भूल जाए वह स्पर्शगंगा
जिसमें वह तिरी थी
लेकिन एक शाम सड़क पर चलते-चलते
हल्के लाल आकाश को देखकर क्या वह
एक क्षण को भी यह नहीं सोचेगी :
यह कौन है,
यह कौन है
मैंने इसे ज़रूर कहीं देखा है !

ज़रूर कहीं देखा है ! !

क़िताब के अँधेरे में लगातार

क़िताब के अँधेरे में लगातार
बीत रही हैं कुछ ज़िन्दगियाँ

हरी घास में अपनी तेज़ दौड़ में
घुल रहा है एक सुनहला कुत्ता

वह बिस्तर पर लेटी है
उसका एक पाँव दूसरे पाँव पर रखा है
हाथों में खुली क़िताब के हर दो शब्दों के बीच
वह सबसे आँख बचाकर
लगातार खोज रही है एक पारदर्शी
प्रेम वाक्य !

 


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