मैं नहीं जानता था कि यह उनसे अंतिम भेंट होगी। मार्च, सन दो हजार आठ में वे कुशीनगर आए थे, कवि सम्मेलन की अध्यक्षता करने। बुद्ध स्नातकोत्तर महाविद्यालय के दीक्षांत-सप्ताह के कार्यक्रमों की श्रृंखला के अंतर्गत कवि सम्मेलन भी था। प्राचार्य के रूप में मैंने उन्हें सादर आमंत्रित किया था और अस्वस्थ होने के बावजूद न केवल आए बल्कि तीन दिन रूक कर उन्होंने अनेक कार्यक्रमों में भाग लिया। अशोक वाजपेयी का दीक्षांत सुना, मुझे असीसा और फिर आने की बात कहकर चले गए।
प्रेमशंकर जी को मैं चाचा कहता था। वे मेरी पीढ़ी के सभी लोगों के सदाबहार चाचा तो थे ही, मेरे पहले और बाद वाली पीढ़ी के भी चाचा थे। प्रेम और उत्साह से भरे हुए। सगों से भी ज्यादा वत्सल ओर आत्मीय। कुशीनगर-प्रवास के उन तीन दिनों में मैंने देखा धीमी और कमजोर-सी हो गई थी उनकी आवाज। बहुत दुबले हो गए थे, मगर आवाज में वही झंकार थी। प्यार और दुलार की चाशनी में भीगी हुई वह आवाज जो पिछले पचास साल से सुन रहा था।
इस आवाज को पहली बार मैंने सुना था, सन उन्नीस सौ अड़सठ में। उन दिनों मैं अपने गुरु पं. विद्यानिवास मिश्र के निर्देशन में वाराणसी में शोध कर रहा था। एक दिन मेरे मित्र अंबिकेश्वर ने, जो उस समय वि.वि. के प्रेस विभाग में काम करते थे, कहा कि चाचा आए हैं और मुझसे मिलना चाहते हैं।
* * *
अंबिकेश्वर के घर पहुँचा तो चाचा गमछा लपेटे सिल-बट्टे पर भाँग घोंट रहे थे। मटके में कुछ सूखे मेवे भीग रहे थे जिनका उपयोग अभी होना था। मैं कुर्सीं पर बैठ कर विजया 'सिद्ध' होते देखता रहा।
विजया का कल्प पूरा हुआ। ठंढई छानी गई और चाचा ने भोग लगाकर प्रसाद बाँटा। फिर मेरी ओर मुड़े और कहने लगे, 'देखो भतीजे! मैं किशोरावस्था से विजया की उपासना कर रहा हूँ। इसके विधि-विधान के साथ। इस मामले में मेरे समानधर्मा केवल अमृतलाल नागर हैं। विधि-विधान के साथ जो कार्य किया जाय वही सिद्ध होता है।'
'आप मुझे कैसे जानते हैं? अंबिकेश्वर और वागीश के मित्र के रूप में ही न?'
'मैं तुम्हें क्या, तुम्हारे बाप को और उनके भी बाप को जानता हूँ।' चाचा ने मेरी सात पुश्त गिना दी और बोले - केवल इसी कारण से नहीं 'ज्ञानोदय' और 'कल्पना' में तुम्हारे जो लेख और कविताएँ आईं हैं, उनके लिए तुम्हें आशीर्वाद देने के लिए बुलाया है। इस पंक्तिपावन बिरादरी की नई पीढ़ी में वागिशवा है, तुम हो और भी कुछ लौंडे हैं - जो कुछ करना चाहते हैं और करोगे। खूब पढ़ो खूब पढ़ो।
इस पहली भेंट में चाचा ने प्रथम परिचय से जुड़े सारे विधि-विधान को खुद ही छिन्न-भिन्न कर दिया और आदेश दिया, 'अब जाओ, अपने कमरे में जाकर कल की तैयारी करो। मैं कल दोपहर का भोजन तुम्हारे यहाँ करूँगा। स्वपाकी हूँ इसलिए बनाऊँगा मैं ही। सामग्री नोट करो।'
लंबी-चौड़ी लिस्ट में कुछ मसाले ऐसे भी थे जिनका मैंने नाम भी नहीं सुना था।
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दूसरे दिना चाचा आए, 'द्विजेश-दर्शन' की एक प्रति भी दी, पंक्तिपावनी विधि से भोजन बनाया, खाया और खिलाया। भोजन अत्यंत स्वादिष्ट और दिव्य था। मैंने पूछा, 'चाचा यह कला कहाँ से सीखी? स्वाद और दिव्यता का ऐसा मेल नहीं मिलता।' देखो विधि-विधान से दिव्यता आती है और सही मिकदार का ज्ञान स्वाद लाता है। तुम लोग लड़के हो, झूठी आधुनिकाता का भरम तुम्हें घेरे हुए है। जो चीज तुम्हारे भीतर गहरा अहसास पैदा न कर सके वह न सुंदर होगी, न दिव्य होगी। भोजन बनाते हुए भाँग छानते हुए, कविता लिखते हुए या कपड़ा धोते हुए जिस तन्मयता से वे कार्य करते थे उसमें एक पूजा-भाव झलकता था। उस समय उन्हें देखकर एक बात की जो गाँठ मैंने बाँधी, वह थी, सकारात्मकता और सक्रियता की परंपराता।
प्रेमशंकर जी के भतीजे और मेरे मित्र अंबिकेश्वर ने फोन किया, 'चाचा गए। अर्थी उठने जा रही है। लो सुनो' ... और फोन पर आवाज आने लगी - 'राम नाम सत्य है।'
कई स्वजनों के निधन पर चाचा के साथ मैंने भी कहा था, 'रामनाम... '। एक प्रियजन के निधन पर हम लोग एक साथ घाट पर गए थे। चिता हरहराकर जल रही थी और चाचा कह रहे थे, 'देखो अपनी साँसों का हिसाब जो मुसतैदी से रखता है, वह कभी नहीं मरता। मैं चँकि हिसाब रखता हूँ इसलिए मैं नहीं मरूँगा।'
लेकिन वे चले गए। मैंने बहुतों को देखा है समय से पूर्व वृद्ध होते या समय पर वृद्ध होते और अपनी असहायता के सामने घुटने टेकते, विदीर्ण होते, बिलखते अकेले होते। लेकिन घनघोर अभावों के बीच भी चाचा को मैंने नहीं देखा बढ़ाते या उसके सामने घुटने टेकते। वे ऐसे चिरयुवा थे कि साँसों की हर बूँद उनके लिए सक्रियता का पर्याय थी। इसीलिए जरा उन्हें कभी दबोचकर निष्क्रिय नहीं कर पाई। ऐसा भी नहीं कि जरा ने उन्हें परास्त करने की कोशिश न की हो। उसने अपने कई भयंकर रूप दिखाकर उन्हें पस्त करना चाहा - रोग शोक-दोनों ही माध्यमों से मगर वे जीवन का विष पी-पीकर पूरी जिजीविषा के साथ खड़े ही न रहे, उसे गहरी सर्जनात्मकता बनाकर जीते रहे।
* * *
एक बार बनारस में उन्हें एक विख्यात शास्त्रीय संगीतकार के घर ले गए। दो घंटे तक ख्याल-गायन सुनने के बाद जब लौटे तो मैंने पूछा, 'कैसा लगा?'
'देखो, जिस ख्याल गायन में भीगे रस में डूबे हुए स्वर नहीं लगते, जिसमें भावुकता और रोचकता नहीं होती, उसमें कल्पना का भी कोई आभास नहीं होता। ऐसे गायक का गला चाहे जितना भी मँजा हुआ हो, वह कुछ रूखा-सा लगता है और ऐसे गायक की कट्टर सात्विकता उसकी कल्पना-शक्ति को उभरने नहीं देती। इनमें दिमागी अनुशासन की झलक तो थी लेकिन भावुकता का बहिष्कार भी था।'
चाचा के पिता स्व. द्विजेश जी बहुत अच्छे कवि तो थे ही, संगीत के संरक्षक और प्रेमी भी थे। राजा बस्ती के दरबार में विख्यात गायक मेंहदी हसन के पिता दरबारी संगीतकार के रूप में रहते थे। मेंहदी हसन प्रेमशंकर जी के समवयस्क और मित्र थे।
एक बार चाचा ने बहुत मुश्किल से लखनऊ में मेंहदी हसन से भेंट की। उस समय बस्ती का 'मेंहदी' विश्वविख्यात गजल गायक उस्ताद मेंहदी हसन हो चुका था और भारत सरकार के निमंत्रण पर अपना कार्यक्रम प्रस्तुत करने भारत आया था।
प्रेमशंकर जी को देखते ही मेंहदी हसन ने उन्हें अपनी बाँहों में बाँध लिया और बचपन के नाम से पुकारते हुए कहा, 'अस्पताली बाबू! इतने दिन कहाँ रहे।'
चाचा ने बताया कि कैसे उनका पीछा करते हुए वह दिल्ली-कानपुर होते हुए यहाँ आए और कितनी मुश्किल से यहाँ भेंट हो पाई। मेंहदी हसन उन्हें अपनी कार में बिठाकर समारोह में ले आए और मंच पर अपने साथ बैठाया।
कार्यक्रम के आरंभ में मेंहदी हसन ने प्रेमशंकर जी का परिचय देते हुए बताया कि उन्हें संगीत का संपूर्ण का संपूर्ण संस्कार बस्ती में मिला है जहाँ उनके पिता दरबार में गायक थे। मेरे बचपन के साथी प्रेमशंकर जी उर्फ 'अस्पताली बाबू' ने यहाँ आते हुए कहा कि मेंहदी भाई, तुम शास्त्रीय संगीत छोड़कर गजल-गायकी के क्षेत्र में कैसे आ गए? तो दोस्तों मुझे माफ करिएगा। मैं आधा घंटा प्रेमशंकर जी के लिए खाली गाऊँगा। उसके बाद आपके लिए गजल।'
मेंहदी हसन ने गाना शुरू किया। राग केदार में फिर विलंबित, फिर द्रुत। जैसे कोई जादूगर संगीत के सागर में आलाप-तान की लहर पर लहर उठा दे। श्रोता भी जलपरी बनकर, उन लहरों से खेलते हुए उस संगीत के आनंद सागर में हिलोरे लेने लगे। आधे घंटे के बाद जब जादू टूटा तो श्रोताओं को लगा कि वे एक दिव्य स्वप्न देखने के बाद जागे हैं।
चाचा बता रहे थे कि मेंहदी हसन के पिता ने तरानों पर बहुत खोज की थी और उनका कंपोजिसन खुद किया था। वे कहते थे कि तराना एक सार्थक संरचना होती है। वे तराना को 'जप' मानते थे, जिसे सूफी 'हाल' की अवस्था में दुहराते हैं। आध्यात्मिकता और रहस्यवादिता से उनका संगीत-दर्शन उपजा था। संगीत में तैयारी के प्रदर्शन को ही वह सब कुछ नहीं समझते थे। सौंदर्य, शास्त्रीय, आभिजात्य, शुद्धता ओर सरसता पर उनका पूरा बल होता था। संगीत का पहले नियम में राग और रंजक होना। अधिकांश शास्त्रीय संगीतकार स्वर, राग ताल की शुद्धता पर ही ध्यान देते हैं। इस तरह का संगीत तकनीक की दृष्टि में पूर्ण हो सकता है, परंतु सौंदर्य की दृष्टि से इसे भयंकर कहा जाएगा। मेंहदी हसन के पिता में तकनीक और सौंदर्य का समन्वय था तो विरासत में यह उनके बेटे को भी मिला।
प्रेमशंकर जी जैसा स्नेही सहयात्री मिलना कठिन है। रास्ते भर सहयात्रियों की चिंता। अवसर मिलते ही संस्कृत, हिंदी, अवधी और ब्रजभाषा की कविताओं का निर्झर बहा देते थे। अमृतलाल नागर की तरह विजया के साथ त्रिकाल-संध्या करने वाले चाचा उन्हीं की तरह बजोड़ किस्सा-गो भी थे। जब वे संगीतकारों, कवियों, वादकों, नर्तकों के संस्मरण सुनाते थे तो समां बंध जाता था। यात्रा के संदर्भ में इसका उल्लेख करना भी आवश्यक है कि पंक्तिपावन ब्राह्मण होने के नाते वह बाहर का बना हुआ अन्न नहीं खाते थे। वे स्वपाकी बनाते थे या फलाहारी। लोगों को उनका यह व्यवहार अंतर्विरोध से ग्रस्त लगता था, पीठ-पीछे इसकी आलोचना भी होती थी। विचारों में लोक की लीक पर नहीं चलते थे पर व्यक्तिगत आचरण में यही लीक पूर्वजों द्वारा निर्धारित लक्ष्मण-रेखा बन जाती थी। मैंने कई बार सोचा है और सोच-सोचकर इसी निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि दो विपरित ध्रुवों का एक साथ निर्वाहन करने की क्षमता रखने वाला कोई महाप्राण ही हो सकता है।
जो महाप्राण होता है वही अपने से छोटों को महत्व देता है और समकक्ष होने का एहसास दिलाता है। औरों के बारे में सोचना उनकी जीवन दृष्टि होती है और मनुष्यता की परिभाषा भी। उनके कविता संकलन के लोकार्पण समारोह में अपने मित्र अनंत मिश्र के साथ फैजाबाद गया थ। अपने मित्र और फैजाबाद के तत्कालीन उपपुलिस महानिरीक्षक के.एन.डी. द्विवेदी के यहाँ ठहरने की व्यवस्था थी। चाचा आए और समारोह में ले गए। फैजाबाद के मित्रों ने भव्य आयोजन किया था। लोग बोल रहे थे और चाचा अपनी प्रशस्ति सुन-सुनाकर भार से दबे जा रहे थे।
कार्यक्रम समाप्त होने के बाद वे मुझे छोड़ने के.एन.डी. द्विवेदी के बँगले पर आए। मैंने चाय पीते हुए चाचा से कहा, आपकी कविताओं का जन्म मिट्टी के अंधकार में व्याप्त पंक-रस में हुआ है। लेकिन उसका गंतव्य कही और है, संभवत: विपरीत दिशा में। अंधकार के पंक-रस में जन्म लेकर, उस रस से विकसित होकर आकाश लोक की ओर उसका अभिसार होता है। आप अनवरत कुछ बनाना चाहते हैं और इस बनाने के बीहड़ विस्तार में स्थित होने की लघु द्वीप हैं आपकी कविताएँ।
'आप आलसी गधे हैं' - चाचा ने मुझे असीसते हुए कहा, यह सब आप कहेंगे लेकिन लिखेंगे कभी नहीं। लिखिए, तब जानूँ। हालाँकि मैं जानता हूँ कि आप और वागीश केवल गाल बजाएँगे, लिखेंगे कभी नहीं। लिखेंगे तब, जब मैं नहीं रहूँगा। वैसे भी आप लोग मृत्यु-लेख लिखने में सिद्धहस्त हैं। मरने के बाद आप लोग मेरे शब्द-श्राद्ध की व्यवस्था कर दीजिएगा।'
मैं ऐसे लोगों को देखा है जो संपन्न होने के बाद भी एक-एक तिनका जोड़ते हुए अभाव का जीवन व्यतीत करते हैं। चाचा ने एक-एक तिनका उजाड़कर भाव से भरा हुआ जीवन जीया। चालीस-पैतालिस साल उनके सान्निध्य में रहते हुए मैं हर रंग में उन्हें देखा था। कवि, साहित्यकार, कला-मर्मज्ञ, संगीत विशारद, पाकशास्त्री, किस्सा-गो और वक्ता की भूमिकाएँ बदलती रहती थीं और वे हरदम एक नई भूमिका में तैयार मिलते थे।
प्रेमशंकर जी पक्षी-आत्मा थे। आस्ट्रेलिया के आदिवासियों में एक कहानी चलती है - 'प्राचीन समय में आकाश बहुत नीचे हुआ करता था। इतना नीचा, कि धरती के मनुष्य सिर उठाकर नहीं चल सकते थे। तब पृथ्वी पर भी इतना अंधकार था कि खाने-पीने की वस्तुएँ भी टटोल-टटोलकर खोजनी पड़ती थीं तब पक्षियों को ख्याल आया कि अगर आसमान को धकेलकर कुछ ऊँचा कर दिया जाए तो इंसान पृथ्वी पर सर उठा कर चल सकेगा। कहते हैं कि पक्षियों ने लंबे-लंबे तिनके इक्कठा किए और पूरा जोर लगाकर आसमान को ऊपर उठाना शुरू किया और आसमान सचमुच ऊपर उठ गया। जो लोग घुटनों के बल चलते थे वे सिर उठा कर चलने लगे।'
पुरानी होते हुए भी यह हर काल की कहानी है। पक्षी-आत्मा वाले मनुष्य अपने जतन से, इंसानी रिश्तों के जंगल में भी अपना आसमान ऊँचा उठाकर दूसरों के लिए सूरज की रोशनी खोज लेते हैं। हर समाज, हर सियासत के अंधेरे में, जहाँ और जितनी बार रोशनी दिखाई देती है, वह उन कुछेक लोगों की वजह से है जिन्होंने अपने जतन से कहीं न कहीं अपना आसमान ऊँचा किया है। कविता की धरती पर सचमुच कुछ कवि-लेखक होते हैं 'पक्षी-आत्मा' जैसे और उनकी कलम ही वह तिनका होती है जिनके जोर से आसमान को ऊँचा उठाकर वे मनुष्य का सिर ऊँचा कर देते हैं। प्रेमशंकर चाचा ऐसे-ही पक्षी आत्मा थे।