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कविता

ओस की वह बूँद

राहुल देव


सहसा दृष्टि पड़ी उस पर
वह ओस की बूँद !
सूक्ष्म क्षेत्र में सिमटी
शून्य से अनंत की ओर
अवगुंठन से विकल हो
अश्रुओं के क्षेपण से मानो
लाज के घूँघट में सिमटना चाहती हो;
छिपाना चाहती हो
अपना अव्यक्त स्वरूप
रात्रि के अवसान पर
प्रभातकरों के स्पर्श से
हर्षातिरेक में झूमना चाहती हो,
बजना चाहती हो वह
घुँघुरुवों की तरह
बूँद !
पूर्ण है स्वयं मैं
समेट सकती है
विश्व को स्वयं में
स्रोत है भक्ति का -
नवशक्ति का
वह ओस की बूँद
प्रतीक है जीवन का
गति का !


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