छप छप छप
पानी पर
पनघट पर
दर्शन पर
तन पर
मन पर
छप छप छप
एक टपकती साँझ की पदचाप
चढ़ती आ रही है
छाँव पर चुपचाप
अपने आप।
डोलती टहनी
कुपुटती फुगनियों की
मलयगंधी मौन चुटकी
भिंच रही सी साँस
क्रम क्रम
सिमटते
भ्रम ज्ञान के भुजपाश
धरती पर पसरता
छा रहा आकाश।
आज की बरसात
अनगिन प्रश्पवाली
पोर पुटकाती हुई बरसात
श्रम से शिथिल नीली रात
झर झर
उतरते
गिरते
सम्हलते
लाज ढँकते हुए से तृणपात।
इस गरभ में
कौन जाने
पल रहा है
किस तरह का प्रात?
छप छप छप
पानी पर
अपने आप तक।