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कविता

तुम्हारा बादल

प्रेमशंकर मिश्र


अपनी कुटिया में
रामधुन में मस्‍त
मैं अपने में संतुष्‍ट होने का
अभ्‍यास कर ही रहा था
कि तुम्‍हारे महलों के बादल
मेरे जँगलों पर आए
मैंने अपनी जान
मुँह फेरने का यत्‍न भी किया
पर
उनके नरम-नरम गरम-गरम
खद्दरके फुहियों ने
मेरे सोते हुए विश्‍वास को
कुछ ऐसा जगाया
मानो सचमुच
उसे बापू की साधना का आश्रम मिला हो।
और फिर
बरबस
गड़बड़झाले की फुटपाथ पर
मेरी गुदड़ी तुमने लगवा ही दी।

ऐसी बात नहीं कि
मुझे इमीटेशन वाले
युगधर्म का ज्ञान नहीं था
मैं रोज
यह भी देखता हूँ कि
कोऑपरेटिव की दुकान पर
तुम उसी लुंगी को ढ़ूँढ़ते हो

जो बिल्‍कुल सन इक्‍कीस की सी लगे,
मुझे यह भी मालूम है
कि
विलायती काँटे चम्‍मच पर
तुम अपने होटल वाले को डाँटते भी हो,
लंबे-लंबे भाषणों के साथ
हरिजन सम्‍मेलन में
सहयोग करने वाले
मेरे दोस्‍त!
तुम्‍हारी बीबी
कफन को दिए गए कर्जों पर
दो पैसे रुपए सूद लेती है
और तुम
अपनी लखनऊ-दिल्‍ली जाने वाली फीस के साथ
उसे मिलाकर
बचत योजनाएँ कामयाब बनाते हो
इसे मैं भी जानता हूँ
और तुम
तुम तो जानते ही हो।
माफ करना
तुम्‍हारे बादलों से
बात तुम पर आ गई
बात घर की है
मेरी ही नहीं
छाती आपकी भी धड़की है
ये लक्ष्‍यभ्रष्‍ट बादल
हमें ही नहीं
हमारी चारों दिशाओं को भी ले डूबेंगे
और फिर
ओ मीरजाफर!
तुम्‍हारे सिराज की पगड़ी
जो तुम्‍हारे कदमों पर है
इस बाढ़ में

तुम्‍हारे साथ बह जाएगी
जल ही जल होगा
और
राजा परीक्षित का
बचा हुआ
यह राजमुकुट भी
पिघल जाएगा
अस्‍तु सावधान।


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