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कविता

भूख : वक्त की आवाज

प्रेमशंकर मिश्र


भूख
हर वक्त की आवाज
पीढ़ियों का बोझ थम्‍हे
नंगी नरम बाहें
रात-रात दुहारती हैं
भूख ! भूख !! भूख !!!
कमरे में बंद
अंधी लालटेन की
धुआँसी रोशनी में
एक टूटी चारपाई
रीती करवटें बदलती है।

एक निर्वसन आकार
माँसल आहार
जो दाँतों से बिछल जाए
फिर अतृप्‍त
भूख और ज्‍वाला
फिर एक ग्रास
फिर और ज्‍वाला।

इस जीवंत सत्‍य की मीमाँसा
लंबी चौड़ी सड़क
चहल-पहल
भीड़-भाड़

विधि निषेध का घटता बढ़ता बाजार
मन के नाम पर तन का व्‍यापार।
अभावों का अघोरी
संहिताएँ फूँक रहा है
चाहे ईसा सलीब चढ़ें
सुकरात जहर पिए
गांधी और केनेडी
ठन-ठन गोली खाए
और
सरकारी राशन की ट्रक के पहिए में फँसा
इस बेलौस आवाज का उद्घोषक
जाने अनजाने
लड़ता जाए घिसटता जाए।

किंतु
भाई बहिन का
निर्विकार आदिम जोड़ा
श्‍मसान की चिड़ायँध में
युगतंत्र सिद्धि से
अनागत को आगत करेगा।

कोड बिलों और
भिन्‍न-भिन्‍न छूँछे समाधानों से तुष्‍ट
मंदाग्नि के ओ कामी पिताओ!
अपनी मौत मारने के लिए
रास्‍ते से हट जाओ
नई हवा
कमरे में जोरों से आ रही है
आने दो।
वक्त की आवाज
कोई भी नहीं पकड़ सकता
बेपर्द बेशऊर असलियत से जूझने की कोशिश
बेकार है रायगाँ है।


नाइट क्‍लबों के शीशे टूटेंगे
गुब्‍बारे फूटेंगे
सतरंगे ग्‍लोब की छाती पर
नाचता गाता पेट बजाता
उभरेगा
आदम और हौआ का प्रेत
जिसे अब तक
इंसान बनाकर
चुप रक्‍खा गया था


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