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कविता

एक उंगली उठ जाती है

अंजना वर्मा


एक उँगली सिर्फ उठ जाती है
तुम्हारी ओर
छूती भी नहीं तुम्हें
लेकिन उस उँगली के उठते ही
ऐसा क्यूँ होता है कि तुम
धराशायी हो जाती हो स्त्री?
इसलिए कि मिट्टी की बनी हो तुम
मिट्टी का घड़ा हो - जल से भरा कलश!
दोनों दुनिया में रहती हो बारी-बारी से
घूमती हो चकरघिन्नी की तरह
मैके में छोटे भइया से लेकर दादा जी तक
ससुराल में
वहाँ के कुत्ते से लेकर पति और सास-ससुर तक
|कौन नहीं तुम्हारी सेवा का जल पीता है?
यही जल है जो
आटा में मिलता है तो रोटी बनती है
चावल के साथ खदकता है तो भात बनता है
कुएँ से घड़ों में भरकर
घर में आता है तो स्नान-पूजा होती है
चंदन के साथ घिसा जाता है
तो माथे पर तिलक लगता है
स्तन से उतरता है तो
बच्चे का पेट भरता है
शिराओं में दौड़ता रहता है तो
जीवन की साँसें चलती रहती हैं
आँखों से झरता है तो रिश्तों की गाँठें बनती हैं
इस घड़े को फोड़े कर कहाँ रहेगा तू पुरुष?
कहाँ रहेगी तेरी दुनिया?


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