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कविता

इसी सरगम की लौ से

अंजना वर्मा


माँ हँसती है अपनी गोद के लाल को देखकर
और खुशी में भरकर
चूम लेती है उसके गाल
यह शाश्वत कविता रचती है
एक अनपढ़ माँ भी
हर बार जब वह उसे गुदगुदाती है
हँसा-हँसाकर खेलाती है
तो सिखाती जाती है प्यार का गीत
अपने दुधमुँहे को
उसका लाड़ला भी
कोई शब्द बोलने से पहले
जमीन पर पैर धरकर खड़ा होने से भी पहले
अपनी थरथराती उँगलियों से
पकड़ता है माँ का आँचल
उसकी हँसी में मिलाता है
अपने बिना दाँत वाले मुँह की खिलखिलाहट
वह सीखता है ढाई अक्षर
शुरू करता है जीवन का आलाप
इसी सरगम की लौ से जलते हैं
किताबों की दुनिया के अक्षर-दीये
और पृथ्वी मुस्कुराती रहती है

 

 

 

 

 

 

 

 


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