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कविता

उन्हें जाना था

अंजना वर्मा


तीन संन्यासिनें उतरीं ट्रेन से
और बैठ गईं प्रतीक्षालय में
किसी दूसरी गाड़ी के इंतजार में
हँसती खिलखिलाती युवा संन्यासिनें
गेरुए वस्त्रों में थी
रुक नहीं रही थी उनकी हँसी
पच्चीस से तीस के बीच की युवतियाँ
कोई फर्क नहीं था
उनमें और दूसरी लड़कियों में
शायद वे कुछ अधिक ही खुश
और खुली हुई दिखाई दे रही थीं
कुछ देर बाद
उनके पुरुष मित्र या भाई
दाखिल हुए अंदर
एक संन्यासिन ने सहज भाव से
मिठाइयों का डब्बा बढ़ाया
अपने बैग से निकालकर
बाकी दो एक साथ बैठी
गप्प में मशगूल थीं
तभी उद्घोषणा हुई कि गाड़ी आ गई
उन पुरुषों ने बैग उठा लिए
बाकी हल्के-फुल्के सामानों को
संन्यासिनों ने उठा लिया
और चल दीं मुस्कुराती हुई बाहर
लेकिन उनकी हँसी वहीं ठहर जाना चाहती थी
उस प्रतीक्षालय में जहाँ
शादीशुदा बाल-बच्चों वाली औरतें थीं
और एक दुल्हन-घूँघट निकाले
मेंहदी रचे हाथों की चूड़ियाँ
बार-बार खनकाती हुई बैठी थी
पर ट्रेन आ चुकी थी
उन्हें जाना था उसीसे
वे निकल चुकी थीं बाहर।


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