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कहानी

लड्डू गोपाल

विद्या विंदु सिंह


गायत्री आपन लरिका लाय कै हमरी कनियाँ म डारि कै बोलीं- ''दीदी! ई हमार लड्डू गोपाल
     हैं, ल्या खेलावा।''
            हम हैरान रहि गयेन। ई कुटिया क पुजारिन गायत्री कै ई तौ नवा रूप होय। दुबरी छरहरी गायत्री क देह थोड़ी गदबदाय गै रही। जे रात दिन मन्दिर कै लड्डू गोपाल, राम-लछिमन जानकी औ सालिगराम की सेवा म लागि रहत रही। आज वोकरे चेहरा पै माई कै ममता चुइ चुइ परति रही।
           हम बोलि परेन- ''ई केकर जियत जागत लड्डू गोपाल पाइ गइउ गायत्री! का तोहरी पूजा से प्रसन्न होइकै लड्डू गोपाल अपुनै परगट होइ गये?''
          हाँ, इहै समुझि ल्या दीदी! अब हम गायत्री ना होई, आपन नाव बदलि के अहिल्या धै लिहे हयी। मुला ऊ अहिल्या तौ धोखा खाइ कै, सराप पायके पाथर होइगै रहीं। मुला ई अहिल्या पाथर नाय भै, खाली नाव बदलि लिहिस। ई जानत है कि त्रेता जुग कै राम अब अहिल्या क उद्धार करै न अइहैं। यही लिये लड्डू गोपाल का जनम दै दिहिस। अब चाहे यन्हैं अहिल्या से पाथर का नारी बनावै वाला सिरीराम कहा, चाहै नरकासुर की कैद से सोलह हजार नारियन कै उद्धार करै वाला सिरी किसन माना।
         हम बहुत बरिस बाद अपने गाँव गै रहेन। हम हैरान होय गयेन देखिके कि ऊ कुटिया कै सीधी साधी पुजारिन हमरे सामने यहि रूप मा खड़ी बा।
जब ऊ कुटिया म आय रही त छुई मुई यस किसोरी रही।
ऊ पुजारी कै झाड़ू-बोहारू, चौका-बरतन, रसोई कुल करति रही। ऊ पुजारी काँ भगवान मानति रही।
          बहुत बरिस पहिले हम वनसे पूछे रहेन कि तूँ कहाँ की रहै वाली हयू? ई पुजारी तोहार के लागत हैं?
            तब ऊ बताये रही- ''ई पुजारी जी हमरे गाँव गये रहे। अपनी झोरी म बड़ी नीकि-नीकि मूरत धरे रहें। हमार मन ललचाय गै। हम मूरत माँगेन, तौ कहिन इहाँ न मिले। हमरे घरे चला त उहाँ बहुत मूरत देबै। औ हम उनके पीछे-पीछे गाँव के बहिरे चली आय रहेन।''
          वहि समय आगे अउर बाति नाय होइ पाये रही। आज ऊ हमसे आपन आपबीती बतावै लागि-

''गरमी कै दुपहरिया गनगनात रही। पन्नि भरे म केऊ नाय मिला।
            गाँव से निसरतै पुजारी हम्मै लै के चला आइन। पहिले एक गाँव म लै गइन। उहाँ वनकै माता जी रहीं, उनके लगे छोड़ि दिहिन।
            हम्मैं अपने गाँव घर कै सुधि आय औ हम रोवै लागेन। हम हाथ-पैर पटकि-पटकि कहति रहेन कि हम्मैं हमरे घरे चला पहुँचाय द्या।
            मुला पुजारी वहँ से जाय चुका रहिन।
            माता जी हम्मै कनियाँ म बैठाय कै समझावै लागीं औ अपुनौ रोवै लागीं। हमार हाथ-मुँह धोवायीं, हम्मैं गुड़ डारिके दूध पीये क दिहीं। अपुने हाथे से खाना खियायीं औ अपने साथे सोवाय लिहीं।''
          हम अपने गाँव कै याद कइकै बहुत रोई मुला माता जी कै यतना दुलार मिलै लाग कि धीरे-धीरे हम संतोष कै लिहेन। हम जब पुजारी जी के बारे मे पूछी त सब बतावै कि वै तो भगवान होंय। भक्तन कै दुख दूर करै खातिर यहर-वहर जात रहथिन। वै कब्बौ एक जगह ठहरते नाहीं।''
            हम यक दिन पूछेन- ''पुजारी जी इहाँ कब अइहै? हम्मैं मूरत कब देइहैं?''
            माताजी पूजा क कोठरी खोलिके देखायीं कि देखा ई सब मूरत तोहरे लिये धै गये हैं। हम रंग-बिरंगे कपड़न म सजी मूरत देखिके खुस होइ गयेन। पुजारी भगवान आपन वादा पूरा किहे रहिन।''
          माताजी बहुत पूजा पाठ करति रहीं। उनकी देखा देखी हमहूँ पूजा-पाठ करै लागेन। माताजी का पुजारी जी माई कहत रहे, तौ हमहूँ वन्है माई कहै लागेन।''
          माई हम्मै धीरे-धीरे घर कै कुल काम सिखाय दिहीं। हम उनके सेवा करै लागेन। उनका बनाय-खियाय कै उनसे सोवत क रोज कथा-कहानी सुनी।''
            पुजारी पहिले जल्दी-जल्दी घरे आवत रहिन। अब माई क सेवा होत देखिकै निस्चिन्त होय गय रहिन।''
            एक बेर कइउ महीना बाद आइन तौ माई जी वन पर बहुत नराज भयीं। कहीं- तू दुनिया भै घूमत रहथौ, अपुना क भगवान कहत हो, मुला अब हमार जिउ नाय नीक रहत। जिउ घबरात रहथै। कउनिउ दिन हमार जिउ निसरि जाये त ई बिटिया कै काव होये? हमरे यही बात कै चिन्ता खाये जाति बा।''
            बच्चा! अब ई सधुवई छोड़ि कै घर बसावा औ हम्मै छूट्टी द्या।'
            पुजारी जी रोवै लागे-''माई! हम्मै सब भगवान यस पूजत हैं। हम तौ अपुनै भगवान काँ खोजै निसरा रहेन। मुला जब सब हम्मैं सिद्ध महात्मा मानि कै, वरदान देवै वाला भगवान मानै लाग तौ हमार इहै दुनिया होय गइ। अब हम निस्चिन्त होइगे रहेन कि तोहार सेवा ई गायत्री करति बा। यक मुँह बोलारौ तोहरे लगे बा। माई! हम्मैं अब ना रोका। हमरी दुनियाँ म रहै द्या।''
            माई् जोर से बोली रहीं- 'तौ ई बिटिया काँ वोकरे घरे छोड़ि आवा।'
            पुजारी भगवान हमसे पूछे रहिन कि तू वापस अपने घरे जाबू? तौ हम मिनहा कै दिहे रहेन। हम अब घरे जाबै तौ हमार भौजाई हम्मै मारि डारे, हम डेरात रहेन।''
          सब बतावत रहे कि हम जब साल भरे क रहेन तबै हमार महतारी मरिगै रहीं। बाप जब हम पेटे म रहेन तबै दुनिया से चल बसा रहिन। एक भाय बारह बरिस कै रहा एक छह बरिस कै। आजी पुरनिया रहीं। आजा का तौ हमरे बड़का भइयौ नाय देखे रहिन। घर सम्भारै वाला केउ नाय रहा।''
          आजी बड़के भइया क बियाह कै दिहीं। भइया बारह बरिस क रहा औ भौजाई बीस बरिस कै। गाँव वाले हँसी करैं कि अपने मरद कै महतारी लागत है ई दुलहिनियाँ।''
          सब बतियावत रहे कि भौजी जब आयीं तौ ऐसन नाही रहीं। सबसे प्रेम से बोलैं, घर सम्भारैं। लेकिन कुछ दिन बाद वै भइया के उप्पर बहुत गुस्सा करै लागीं। हमरौ सबकाँ हरदम डाँटै-फटकारै लागीं। आजी के मरे के बाद तौ घर एकदम घर यस नाय रहिगा।''
          एक दिन छोटके भाये काँ भौजी मारि दिहीं त ऊ घर छोड़ि कै भागिगै। उकरे गये के बाद बड़कौ भइया दिन भर घर से बहिरे रहै लागिन। भौजी राति-दिन झाँव-झाँव लगाये रहैं। यही से हमहूँ काँ घर म रहब फारि खाय लाग। औ हम पुजारी जी के साथे चली आय रहेन।''
         पुजारी जी के झोला म से ठाकुर जी कै एक मूरत जौन हम माँगे रहेन ऊ बिलकुल हमरे छोटके भइया के मुखारी कै रही। यही से हम मूरति पावै खातिर बेचैन होइगै रहेन।''
         हमरे करम म जौन लिखा रहा ऊ भै। आपन घर, आपन धरती सब छूटिगै।''
''पुजारी जी के माई से माई क दुलार मिला, उनहूँ चल बसीं। बचे रहि गये पुजारी भगवान। वन्हैं घर गृहस्थी से कौनौ मतलब नाय रहा। घर-दुवार, खेती-बारी, गाँव सब छोड़ि कै बाबा निहाल दास की कुटिया म आइ गइन।''
''हम सोलह बरिस कै होइगै रहेन। वहि गाँव क सब कहै लाग यहीं गाँव म रहा। ई बिटिया क लैकै कहाँ भटकबा?''
''मुला माई कै आखिरी काम-किरिया कइके ऊ हम्मैं साथे लैकै निसरि परे।''
''काफी दूर पैदर चलिके बस पकरिन।
फिर बस से उतरि के रिक्सा किहिन।
रिक्‍शा पै बैठतै आन्हीं-तूफान आइगै। पानी बरसै लाग।
रिक्‍शावाला बरसाती अपुनौ ओढ़िस औ हमरे टपरौ पै खोलि दिहिस। मुला हवा से तेज बौछार रिक्‍शा के भीतर हम्मैं भिजावै लाग।
         पुजारी जी हम्मैं पकरि के अपने से सटाय लिहिन औ पूछिन कि भीजि गयू? जाड़ लागत बा? कहिके अपने चदरा म हमकाँ समेट लिहिन। पहिले बेर वै हम्मै ऐसन पकरि के छुइन कि हम्मैं नीक लाग कि हमार चिन्ता यन्हैं बाय।''
         हमरी देहिं मा झुरझुरी यस आइगै। यकरे पहिले ऐसन झुरझुरी कबौं नाय आय रही। हम पुजारी भगवान की ओर देखेन तौ वै हमरी ओर ताकत रहिन। हमार आँखि मिलतै वै नजर चोराय लिहिन मुला वहि चितवन मा जाने काव रहा कि हमरी आँखी म ऊ चितवन बसिगै। वही दिन हम पुजारी जी काँ ध्यान से देखे रहेन। दाढ़ी मूँछ बड़ी-बड़ी रही त हम्मैं वनसे डरि लागत रहा। मुला वहि दिन वै हम्मै नीक लागिन। हम वोनकी ओर ताकत-ताकत वनसे और सटि गयन। वै हम्मै और कसिकै सटाय लिहिन।।''
         हम यहि गाँव कै कुटिया ले आयेन तौ अन्हियार होइगै रहा। पुजारी ताला खोलिके भीतर लै आइन, दीया बारिन, भगवान कै मन्दिर खोलिन। नहाय धोय के आरती किहिन।''
         मन्दिर म ठाकुर जी कै मूरत देखिकै हमार कुल दुख भागिगै। राम-लछिमन-जानकी भरत-सत्रुहन, हनुमान जी कै बड़ी बड़ी सफेद मूरत रहै और छोटे छोटे सिंहासनन पै सालिगराम, लड्डू गोपाल, गनेस जी, संकर-पार्वती सभै बिराजमान रहे।''
          हमहूँ नहाय-धोय के आयन तो देखन पुजारी जी चूल्हा बारत रहे।''
हम आइके बोलेन- ''हम भोजन बनाय देबै, काव बनावै का बा?
समान कहाँ बा बताय द्या?''
         पता नाही काहें वनसे बाति करै म हमरे लाजि लागति रही। बेर-बेर रिक्‍शा म बैठि कै भीगै वाली बाति याद आवै और झुरझुरी यस लागै।''
        पुजारी जी सामान लाइके धै दिहिन। साथे म मिलि कै भोजन बनवाइन और अपने साथे बइठाय कै खाये क कहिन।''
            हम बोलेन-आप खाय लेयँ हम बाद म खाबै। हम्मैं पुजारी जी की माई क याद आवै लागि। वै पुजारी भगवान काँ बड़े प्रेम से भोजन परोसि कै खियावैं औ अपुना बादि म खायँ हमैं साथे बैठाय के।''
          वनकै याद कै के हमारि आँखि डबडबाय गै।
पुजारी जी पूछिन का भै?
हमरे मुँह से निसरा-माई क सुधि आइगै। सुनिकै वनहू क आँखि भरि आय।''\
''अइसे जिन्दगी चलत रही।
पहिली बार एक घर मा एक आदमी के साथे अकेले रहेन।
जब पुजारी जी कहूँ बहिरे चला जायँ तौ कुटिया एकदम सूनि लागै।
पुजारी जी बहुत चुप-चुप रहत रहे। जब गाँव क लोगै आय जायँ तौ प्रवचन देंय, भजन कीर्तन करैं औ सबसे बोलैं।
         मुला सबके जातै फिर गुमसुम होइ जायँ। जैसे कौनिउ गहरे सोच मां परा होंय। बड़ी-बड़ी पोथी वनके चारिउ ओर धरी रहै। वै हरदम पढ़ा करैं।
          हमार कोठरी अलग रही। पुजारी जी मंदिर की कोठरी के बहिरै वाली जगह मा तखत डारि कै सोवैं।
          हम्मैं राती म अकेले डरि लागै। अबले माई के साथै सोवत रहेन। जब डरि लागै तौ आपन नाक, कान मुंह कुल चदरा म लुकुवाय कै चुपचाप परि जाई। माई बताये रही कि जब डरि लागै तव हनुमान चालीसा पढ़ा करौ त हम मनै मन हनुमान चालीसा पढ़त-पढ़त सोइ जाई।
         एक दिन जोर-जोर से सियार हुँवात रहै और खूब कुकुर झौं झौं होय लागि। कोठरी म बिलारि आय कै लुकाय गै रही तौ अन्हियारे म वोकर आँखि देखि के हम डेराय कै बहिरे भागेन औ पुजारी जी के लगे वनसे चिपटि गयन- भगवान! हमरी कोठरी म कौनौ जनावर बैठा बा।
         पुजारी उठिन औ कोठरी म देखै जाये लागिन तौ हम वन्हैं पकरे रहि गयन। डरि के मारे वनकर हाथ नाय छोड़ेन। पुजारी जी कोठरी म गइन तौ बिलारि कूदि कै भागि गै।
           पुजारी जी हँसि कै बोले- पगली! ई तौ बिलारि होय। कहिकै हमैं फिर अपुना से सटाय लिहिन और हमरी पीठी पै थपथपाय दिहिन।
           हम्मैं बहुत नीक लाग कि हमैं केहू से डेराय कै जरूरत नाय बा। हमारि रक्षा करै वाला भगवान हमरे साथे बाय।
            वहि समै हम्मैं नाय मालुम रहा कि जानवर से ज्यादा खतरा मनई से होत है। मनई कब जानवर होइ जाय एकर पता नाय रहत। जानवर तौ
जानवर होंय वनसे सब सतर्क रहत हैं कि यस न होय हमला कै देंय। मुला मनई पै त सब भरोसा करत है औ निस्चिन्त रहत हैं।
           ई मनई जब जानवर बनत हैं तौ सब कुछ तहस-नहस कय देत हैं। जानवर तौ आपन जान बचावै खातिर औ पेट भरै खातिर हमला करथै, मुला मनई कै भूख कब जागि जाय औ केतना नुकसान करे, इहउ केहू नाय जानत।''
         इतनी बात बतावत-बतावत गायत्री अधीर होइ उठी। वोकर कंठ रुँधि गै औ जाने केतना आतंक वकरे चेहरा पै छाय गै।
         हमरी समझ म बात आइगै कि ई पुजारी जानवर बनिगै औ वहि क परिणाम ई लड्डू गोपाल होंय।
हम गायत्री से कहेन- ''तौ ई कहानी होय लड्डू गोपाल के जनम कै?''
गायत्री बोलि परी- ''नाहीं दीदी! ई सच होतै तब तौ हमार धरम बचा रहतै। मुला ऐसन नाय भय।''
         मैं चौंक उठी-फिर क्या हुआ?''
गायत्री बोलि परी- ''हम पुजारी जी काँ आपन भगवान मानत रहेन। वनकै सेवा करै  मां हम्मै सुख मिलत रहा। वनकै मूड़े म तनिकौ दर्द होय तौ हम बेचैन होय जाई। वनहू हम्मैं बहुत मानत रहे। हमरी कुल जरूरत कै ध्यान रखैं। मुला हमसे एक दूरी बनाये रहै लागिन।''
         अब हमहूँ क मर्द-औरत के सम्बन्ध के बारे में सब कुछु मालुम होइगा रहै। गाँव क बिटिया पतोह आयकै हमसे किसिम-किसिम के सवाल पूछैं कि तू कैसे पुजारी जी के साथे अकेले रहति हयू? वनसे डरि नाय लागत?''
         औ वो सब हमसे रोजै कहैं कि ऐसे कैसे जिन्दगी पार होई। तूँ पुजारी जी से कहा कि बियाह कै लेंयँ तुँहसे। मर्द जाति कै कउनौ भरोसा नाय है। कउनौ ऊँच-नीच होय जाई तौ वनकै कछु न बिगड़े मुला तोहार जिन्दगी बिगड़ि जाई।''
         यक अधेड़ मेहरारू बोली- ''पुजारिन बिटिया! दुनिया बड़ी खराब है, लोगै तरह-तरह कै बाति करथें। सब कहथैं कि पुजरिया यहि पुजारिन काँ कहूँ से भगाय लायबा औ ओकाँ राखे बा।''
         राखे बा कै मतलब हम नाय जानत रहेन तौ ऊ समझाई- एकर मतलब होय बिना बियाह भये केहू औरत काँ आपन मेहरारू बनाय कै राखब।''
         फिर आँखि मटकाय कै बोलिस- ''मुला ई कैसे होइ सकत है कि आग औ फूस एकट्ठा रहैं औ बरै नाहीं। वइसे पुजारी जी तुँहसे ढेरि उमिर कै नायँ होइहैं इहै दस पन्‍द्रह बरिस बड़ा होइहैं और का। त मरद कै उमिर नाय देखी जात। औरत त लता होय ओकाँ एक पेड़ कै सहारा लेवही क परथै।''
         सब की बाति सुनिकै हम सोचि म परिगै रहेन। अबही ले त हम ई कुलि सोचेन नाय रहेन। हम न बाप कै प्यार-दुलार पाये रहेन न बड़े भाई कै। मरद के रूप म पुजारी भगवान कै साथ, वनकै प्यार-दुलार हम्मैं मिला रहा। उनके आसरे म हम निस्चिन्त रहेन। हाँ, वै हम्मैं अच्छा लागत रहे। मन कहै कि उन्हैं देखा करी, वनके छाती से लागिकै बड़ा सुख मिलत रहा, वनके कान्हे पै लागि कै निरभय होइके सोवै क मन करत रहा, मुला वनके साथे पति-पत्नी के सम्बन्ध के बारे में कब्बौ ना सोचत रहेन।
           सबकै बाति सुनिकै हम बोलि उठेन- वन्हैं त हम भगवान मानिथै। वनसे बियाह, नाहीं नाहीं, ई हमसे ना होये।''
           यक नई दुलहिन घुँघट उठाय कै हमरे काने म फुसफुसान रही-अच्छा पुजारिन दीदी! ई बतावा कि जब पुजारी जी से तुहार देहि छुइ जाथै तौ तुहैं कइसन लागथै?
         जौ कुछ अलग लागथै तौ ई जानि ल्या कि उहै पिरेम है, दुलहा-दुलहिन कै। हमरे मन्सेधू हम्मैं छुइ देथैं तौ हमारि देंहि सनसनाय जाथै।''
         ई बाति सुनिकै हम सोच म परि गयन। हम्मै फिर याद आइगै कि रिक्‍शा म भीगत कै जब पहिली बार पुजारी जी छुए रहिन तौ हमरौ देंहि काँपिगै रही। लेकिन हम अपने मन से ई बेर-बेर झिटकै क कोसिस करै लागेन, मन का समुझावै लागेन कि भीजै के कारन ठंड से सिहरन भै रही होये। मुला गाँव कै मेहरारुन कै बाति हमरे मन मा ऐसन घर कै गै रही कि हम राति-दिन मनै मन घुलै लागेन।''
           पुजारी जी चुपचाप पूजन-भजन म लगा रहैं। कइसे वनसे ई बाति कही, समुझ म नाय आवत रहा।
           हम्मैं न खाब नीक लागै न बोलै क मन करै। हम मंदिर म बैठी इहै मनाई कि भगवान हम्मैं राह देखावा, हम का करी?
यक दिन पूजा म बइठे बइठे हम हुवैं लुढ़ुकि गयेन। हम अपुनै नाय जानि पायेन कि हम सोइ गयेन कि मुर्छा आइगै रही।
       हम्मैं गोदी म उठाय कै पुजारी जी हमरी कोठरी म सोवावै लागे त हमरे चेत आइगै। हम पहिले ई नाय समुझि पायेन कि हम सपना देखत हई कि ई सच होय।
          हम पुजारी जी की ओर बुकुर-बुकुर ताकत रहेन। वै हमार माथा सुहराय कै बोलिन- का होइगै तुहैं? औंघाई आय गै रही तौ जाय कै सोय जाये क रहा न?
हम ओनकै हाथ पकरि कै रोय परेन-
पुजारी भगवान! गाँव म सब हमरे बारे म काव-काव कहथैं, आपका नायँ मालुम बा।''
           हम्मैं सब मालुम बा। ई त दुनिया होय। आपन आत्मा ठीक रहै त केहू के कहै क डरि नाय करित। तुहूँ ई सब कै चिन्ता न कीन करा।''
                 हम वनकी छाती से लागिकै और जोर से फफकि परेन- मुला हम तौ औरत जात होई, हम नाइ सहि पाइत ई कुलि। सब कहथैं कि पुजारी जी से कहा कि तुहँसे बियाह कइ लेयँ।''
         पुजारी काँ जैसे बिच्छू डंक मार दिहिस। वै अलग हटिकै बोलिन- हम बाल ब्रह्मचारी होई, हम ई सब मायाजाल, गृहस्थी के जंजाल मा नाय फँसै चाहीथे।
      हम चुप होइ गयेन। लड्डू गोपाल की सेवा म मन लगावै लागेन।
मुला पुजारी जी वही दिन से और गुमसुम रहै लागें। हम पूछेन कि का बाति है काहें आप यतना उदास रहथ्या? आजकल प्रवचनौ करै कहूँ नाय जात्या?''
         पुजारी बोलिन-गायत्री! सब सास्तरन म नारी काँ माया कहा गै बा। हम सोचित है कि तुहैं लाइकै हम बहुत बड़ी गलती किहेन।
तोहरौ जिनगी खराब किहेन, अपुनौ बदनाम भयेन। मुला हम तुँहसे बियाह नाय कै सकित। तूँ कहूँ जाये चाहा त चली जा।''
           हम पुजारी जी कै हाथ पकरि कै रोय परेन। हम ऐसै परी रहब, सेवा करब तोहार। तुहैं छोड़िकै कहूँ ना जाब। हम माई काँ बचन दिहे हई कि तुहार जनम भै सेवा करब।
       पुजारी जी हमरे साथे रोइ परिन और हम बड़ी देर ले एक दुसरे कै आँसू पोंछत बैठा रहि गयेन ओर हमैं कब नीन आइगै, सोइ गयन पतै न लाग। हमारि आँखि खुली तौ चारिउ ओर घुप्प अन्हियार रहा और हम अपुना काँ पुजारी जी के छाती से लिपटा पायेन। पुजारी जी हम्मैं जागिकै उठत देखिन तौ वन्है जाने काव भै कि हम्मैं कसि कै अपुनी छाती से लगाइ लिहिन औ फिर उनकै सारा संजम, ज्ञान सब बिलाय गै। हम वनकी पकड़ माँ छटपटात रहि गयेन। हम कुछ नाय समुझि पायेन कि हमरे साथे ई सब काव होइगै।
           सबेरे उठेन तौ पुजारी जी अपराधी यस हमसे आँखि चोरावत रहे और नहाय-धोय कै आपन झोरा उठाय कै बहिरै जाय लागिन।''
                 हमरे देही कै पोर-पोर दुखात रही। यतना प्यार से सहलावै वाला मनई यतना कठ करेजी कैसे होइगै। हमार चीख न निसरै यहि लिए हमार मुह पहिले अपने मुह से फिर हाथे से बन्द कै दिहे रहिन।
कौनिउ खान उठिकै बहिरे आयन। अपनी देहीं से मन घिनाय गै रहा। ई सब बिना ब्याही के साथ नाहीं होवै क चाही, यतना ज्ञान रहा, यही लिये पाप बोध से मन ग्लानि से गलै लाग।
             हम तौ अपुनै आपन सब कुछ अर्पित करै क तैयार रहेन मुला ई पुजारी बियाहे से त इनकार कै दिहिन, हमसे कहिन कि तूँ इहाँ से चली जा, मुला ई सब काव होइगै?
       हम उठि कै बहिरे आयन औ पुजारी जी काँ झोरा लैके निकरत देखेन त हमार माथा ठनका। ई तौ हम्मैं दगा दै के जाये चाहत हैं।
अबले हम पुजारी काँ आदर करै क साथे डेरातौ रहेन। मुला आज हमार मन बहुत दुखी रहा, क्रोध से और जरै लाग जब वन्हैं जात देखेन तौ।हम दौरि कै जाइ के झोरा पकरि लिहेन औ बोलेन-
हम्मैं पापिन बनाइ कै कहाँ चलि दिह्या?''
''वै आँखि चोरावै लागिन। हम हाथ पकरि लिहेन औ कहेन-अब तौ हम कहूँ नाय जाय सकित। हमार तोहार दूनौं कै धरम बचि जाय यहि लिहे तुहैं गृहस्थ पुजारी बनही क परी।''
''वहि दिन तौ रुकि गइन वै।
दुइ-चार दिन बाद पुजारी जी राति म कुटिया छोड़ि के चला गइन।
हम अकेले रहै लागेन। गाँव कै कुछ मर्द लोग कहै लागिन- पुजारी जी बाल ब्रह्मचारी रहिन। सब लोग वनके चरित्र पै कीचड़ उछालै लागे तौ वै गाँवै छोड़ि कै चला गये।
       हमारि उदासी औ दुख देखि कै सब इहै समुझै कि पुजारी जी के चले गये से हम अकेल होइ गयेन और यही से दुखी हई। कुछ नौजवान लरिकै हमदर्दी देखावै काँ रोज कुटिया म दर्सन करै आवै लागिन।''
                  वै आवैं त पुजारी जी काँ गरियावैं- ''ससुर हिम्मत नाय रही त ऐसन सोना लड़की काँ लाय काहें रहा? अरे बनवै-खियावै काँ तौ यही गाँवै से तमाम गरीब मिलि जाते, जेकरे रहै खाये क ठेकान नाय बा। अब ई बेचारी अकेलै कुटिया म कैसे रहै?''
          एक दिन एक बोलि परा- ''पुजारिन! अबहीं तोहार उमिरि संन्यास लेय कै नाय बा। तूँ अपनी पसंद कै केहू से बियाह कै ल्या औ ठाट से रहा। वहि दढ़ियल बुढ़ऊ से ज्यादा सुख देई तुँहै।''
              ''हम्मैं ई सब सुनिकै लगै कि हम्मैं गारी दीन जाति बा। औरत क आपन सत तबै रहथै जब ऊ एक कै होइकै जिनगी काटि देय। हम जौन पोथिन म पढ़ेन और पुजारी औ वनके माई से सुने रहेन ऊ पाथर क लकीर यस हमरे मन पै खींच उठा रहा।''
गाँव कै औरतै अब कुटिया म देर ले रुकै लागीं। पहिले पुजारी के संकोच के मारे सब कम आवै। अब सब आवैं त कुरेदि-कुरेदि कै पूछैं- ''काव भै? पूजारी काहें चला गइन?
तूँ बियाहे क बाति किह्यू त काव कहिन?''
          ''हम पुजारी क उत्तर सबकाँ बताय दिहेन। मुला पुजारी क करनी केहू से नाय बतायन। वनकै बदनामी होये त हम नाय बर्दास्त कै पाउब।   हम अपने मन के सात ताला के भीतर ई बाति छिपाय कै धरि लिहेन जौन हमरे साथे भै रही और हमरे मन मा राति दिन काँटा यस कसकति रही।
             हम मनही मन भगवान से माफी मांगी कि हमरे ऐसन पापिन कॉं छिमा करा। हमार देह अपवित्र होइगै त हमार मनौ अपवित्र होइगै बा। मन करै कि केहू से आपनि बाति बताय देई त मन कै बोझ कुछ हलुक होइ जाय। मुला हिम्मत नाय परै। यतनी बड़ी बाति सुनिकै गावँ वाले हमहूँ से नफरत करै लगिहैं और पुजारी जौ कबौं लौटहू चहिहैं त वन्हैं गाँव म घुसै न देइहैं। वनसे सब नफरत करै लागे त केहू न दान दक्षिणा देई न चढ़ावा। इहै त रोजी रोटी कै सहारा रहै।
कबौं-कबौं मन करै कि अपने गाँव लौटि जाई। मुला हिम्मत नाय परै।
पुजारी के गाँव जाई त पुजारी नराज होइहैं। हम काव करी? हमार दिमाग सोचत-सोचत बौखलाय गै।
मन मा कौनिउ बात छिपाये से रोग होइ जाथै, ई कहानी सुने रहेन 'राजा के दुइ सींग' कहानी मा। नउवा मारे डरि के केहू से नाय बतावै कि राजा के दुई सींग बा। जब बैद जी कहिन कि तू कौनिउ बाति छिपाये हया यही क रोग बाय। केहू से कहि द्या तौ ठीक होइ जाये। नउवा पेड़े से ई बाति बताइस औ ठीक होइगै रहा। त हमहू पेड़ से कहि देई का?
फिर हम पेड़न से घूमि-घूमि कहै लागेन- पुजारी, हमरे पुजारी हमसे धोखा किहिन, हमरे साथे गलत किहिन। हम भ्रष्ट होइ गयेन।
मंदिर माँ भगवान से रोइ-रोइ आपन दर्द कही त थोड़ा मन सांत होय।
चारिउ ओर सोर होइगै कि पुजारिन बौखलाय, बौराय गै बा। पेड़न से बतियात है। मंदिर म मूड़ पटकि-पटकि कै रोवथै। पुजारी के जाये के गम से ऊ टूटि गै बा।''
       ''साल भरे बाद एक दिन एक ठू सुन्दर जवान लड़का आय और पानी पीयै क माँगिस।
हम पानी पियायन तौ हालि-चालि पूछै लाग। मंदिर म चढावै क लिए पाँच सौ रुपया कै नोट दिहिस औ चलत कै बोला- हमार नाव कुन्दन होय। हम सहर से अपने गाँव आय रहेन। वापिस जात हई। ई हमार माई गाँव कै समान दिहे हईं। हम्मै सीधे सहर नाय जाये क बा। नौकरी के काम से कइयो जगह जाये क बा। ई सब कहाँ लादे-लादे फिरब। ई तूँ धै ल्या। माई कै मन राखै के मारे लै लिहे रहेन। कहिके पूरे झोले कै समान छोड़ि कै चला गै। ओकरी बातचीत औ व्यवहार म कुछ ऐसन रहा कि हमार मन ओकै याद करै लाग।'' तीन महीना बाद ऊ फिर लौटा औ बोला- ''गाँव जात हई। सोचेन आपकाँ देखत चली। कैसन हयू? कौनौ दिक्कत होय तौ बताय देयँ। चार दिन बाद लौटै क बाय। हमार माई बाप हमार बियाह एक गँवार काली-कलूटी लरिकी से करावै क जिद किहे हइन। बरिच्छा के लिए बोलाये हइन। हम जात त हई मुला मना करै। हम्मैं त तोहरी नाय कौनिउ समझदार, सुन्दर लड़की मिलि जाय तौ बियाह कै लेब। घर वाले मानै या न मानै। अपुना बढ़ियाँ कमात-खात हई, ठाठ से अपने मेहरारू काँ राखब।''
           ''जात-जात फिर पाँच सौ कै नोट मंदिर म चढ़ावै क दै कै चला गै। हम सोचै लागेन। केतना भला मनई हइन। हम अकेलि हई यही संकोच मा मंदिर के अंदर जाये क नाय कहिन। बहिरे से चला गइन। नाहीं त अब तौ दस पैसा चढ़ावै खातिर लोगै मंदिर के भीतर जाय चाहथैं।
         हम कुन्दन कै भलमनसी कै कायल होइ गयन। पैसा ऐसे चढ़ावै क दै देथै जइसे कि पैसा काँ कुछ समुझतै न होय। असली पुजारी तौ एैसने लोग होंय। ऐसन लोगै नाय, जौन भगवान की पूजा कै चढ़ावा पावै के लिये किसिम-किसिम कै ढोंग रचथैं।
      ऊ पुजारी जेकाँ दुनिया भगवान समझथै, बाल ब्रह्मचारी समझथै, यतना विद्वान, पोथी-पत्रा बाँचै वाला, ज्ञानी समझथै, दुनियाँ काँ छल-कपट से दूरि रहै क उपदेस देथैं, ऊ हमरे साथे जौन छल-कपट कै गे, हम वनके छल केहू से बतायू नाय सकित। हाँ कबौं-कबौं मन काँ समझाइथै कि जब वहि पाप मा हमार मन नाय रहा त हमरे सरीर क साथे जौन पाप भै वोकर दोस हम्मैं काहें लागे।
           यक दिन पुजारी प्रवचन देत कै कहत रहे कि पंचकन्या नाम से जे पूजी जाथीं- तारा, अहिल्या, मंदोदरी, कुन्ती, द्रोपदी, ई पाँचों पवित्र कन्या मानी जाथीं। जबकि वनहू से छल भै रहा। मुला वै यही लिये पवित्र मानी गयीं कि वहि पाप म वनकै मन नाय सामिल रहा। वै भोली-भाली रहीं। वन्हैं पाप कै ज्ञान नाय रहा। जब ई कथा सच है तब तौ हमहूँ पवित्र हई।
        ई सब सोचत-सोचत हमार मन हलुक होइगै। हम कुन्दन कै दीन पाँच सौ कै नोट पकरे बैठी रहेन। वनकै बाति बेर-बेर काने म गूँजै लाग। ''तोहरी क नाय कौनिउ समझदार, सुन्दर लड़की मिलि जाय त बियाह कै लेब।''
        हमरे मन म यक ललक यस जागिगै। का ऐसन होइ सकथै? जौ वनकै माई-बाप ना मानै तब? माई-बाप कै मरजी के बिना बियाह करब का ठीक होई, वन्हैं केतना दुख पहुँची? यही सवाल पै आइकै हमार सोच रुकि जाय।
       मुला कुन्दन कै सुन्दर रूप, मीठा व्यवहार कै याद कैके हम राति-राति भर सोय नाय पायेन। बेरि-बेरि पुजारी के बगल म कुन्दन का खड़ा कै के हम देखै लागेन। फिर मन मा उहै पाप-पुन्य कै बात घूमै लाग। हम सोचत-सोचत थकि जाई तौ भगवान काँ आपनि चिन्ता सौंपि कै सोय जाईं।''
      ''हम भगवान से इहै पूछी कि जौ हम पुजारी काँ आपन भगवान मानत रहेन, तौ वनके सुख की खातिर हमार सरीर काम आइगै तौ ई त पाप ना होय न? ई तौ सब कुछ अर्पन करब होय न? अब वहि भगवान काँ हमार जरूरत नाय बा तौ हम्मैं त्यागि कै चला गइन। अब तौ हम अपने तन-मन काँ चाहे जेकाँ सौंपी ई त हमार अधिकार होय ना? जौ ऊ हम्मैं ना त्यागे होते तब तौ दुसरे के बारे म सोचबौ पाप रहा। यही तरह के उहापोह मा राति-दिन बीतत रहा।''
         तीसरे दिन कुन्दन कुटिया पै लौटिकै आइन औ बोलिन- ''हम अपुने माई-बाप का साफ मना कइ दिहेन कि हम वहि लड़की से बियाह न करब। दहेज के लालच म हमार जिनगी न खराब करा। हम अपनी पसन्द कै लड़की पाउब त बियाह करब नाहीं त कुँवारा रहिकै जिनगी काटि देब। हम्मैं दहेज नाय अच्छी लड़की चाही। कहिके ऊ बड़ी प्रेम से हमरी ओर देखै लागिन औ वनकै गला भरि आय।
          हम्मै वनसे बड़ी हमदर्दी होइगै। उनसे आँखि मिलतै हम्मैं पता नाय काव भै औ मन कहिस कि अब्बै वनकै हाथ पकरि कै समुझाय देई कि ऐसन जीवन साथी बड़ी भाग वाली काँ मिलथै। हम तौ तोहरे लायक नाय रहि गै हई। हमार पाप जानि लेबा तौ हमसे नफरत करै लगबा। हम अपवित्र होइगै हई।
         मुला हम कुछ बोलेन नाय। लेकिन आँखि त मन कै सब भाव कहि देथै। हमरी आँखी म अपुने लिये प्रेम औ हमदर्दी देखि कै वै हमार हाथ पकिर के पूछिन- ''तूँ हमसे बियाह करबू?''
        ''हमरे भीतर कै औरत अब चौकन्नी होइगै रही। हम कहेन कि अपने घर वालन से पूछि लेब तब कुछ तय करब।
          वै मोबाइल मा आपन नम्बर डारिकै हम्मै दिहिन औ बोलिन कि हमसे आपन हालि-चालि बतावा किह्यू। कहिके वै चला गइन।
              हम कहै क त कहि दिहेन लेकिन कौन हमरे घर वाले हइन जेसे पूछिकै बताउब। अचानक पुजारी कै याद आइगै। यक बार आय जाते वै औ कहि देते कि तूँ बियाह कइ ल्या, हमार इन्तजार जिनि करा। तौ हम हाँ कहि देइत। के जानै पछतावा औ ग्लानि के मारे पुजारी जी न आवत होंय। आय जाते तौ हम वन्हैं माफ कइ देइत। हमहूँ त दोसी हई, हमही त बियाह कै बाति चलायन तबै वनके मन म दबी लालसा औ पाप जगा होई। मनइन तौ होयँ। विस्वामित्र जी कै तपस्या भंग किहे रही यक अप्सरा औ हमरे कारन पुजारी जी कै तपस्या भंग भै।
             हमार मन फिर से ऊहापोह म बूड़ै लाग।''
           ''एक दिन पुजारी राति म आइकै कुन्डी खटकाइन। वोनकै खटकावै क ढँग अलग रहा। लेकिन हम्मैं डरि लागत रही। अकेले रहे प बहुत सावधान रहै क परत है। गाँव वाले कइयो जने तैयार रहैं कि हम कुटिया म राति कै सोइ जाब मुला अब हम्मैं सबसे डरि लागत रहा। जेनकाँ आपन सब कुछ मानेन माई, बाप, गुरु, भगवान वनही धोखा किहिन त और केह पर भरोसा करी?
अंदरै से हम पूछेन- के होय?''
''हम पुजारी होई।''
''आवाज पहिचनतै हम्मैं अपने प जोर नाय रहिगै। हम दरवाजा खोलि कै एक किनारे खड़ी होइ गयेन। पुजारी भीतर आय कै दरवाजा बन्द कै लिहिन औ हम्मैं पकरि कै रोवै लागिन। हमरी गलती काँ माफ कइ द्या गायत्री! हम तुहँ से दूर नाय रहि सकित। यतने दिन माँ हम तोहरे बिना कैसे काटेन है, हमही जानिथै।''
''हमहूँ रोय परेन औ जैसे कौनौ सहारा पाइकै आदमी हिम्मत हारि कै भहराय परत है वैसे वनके देही पै गिरि गयन। वै हम्मैं उठाये उठाये कोठरी म लाये औ खटिया पर डारि दिहे।
वै बहिरे जाय कै हाथ मुह धोय कै आइन औ वहीं खटिया प बैठि गइन।
हम उठि कै बैठि गयन औ कहेन कि कुछ खाये क बनाइ देई?
वै उठै नाय दिहे औ बोले हम खोये क मिठाई लाय हई लेव तुमहू खाओ। औ मिठाई के डब्बा खोलि कै अपने हाथे से हम्मैं खियाये, अपुनौ खाये।''
हम कहेन कि तोहार बिछौना बिछाय देई चला आराम करा। ऊ बोले- ''हम्मैं अब्बै जाये क बा हम्मैं महंत कै गद्दी मिलि गै बा। तुहँ से मिले बिना नाय रहि गै तौ चला आयन।
कुछ दिन बाद फिर आइब तौ रुकब।
गायत्री! जीवन कै जौन सुख तुहँ से पायन वोकर कर्जा हम नाय उतारि सकित। तूँ हमार शक्ति हयू, हम तोहार शिव। बिना शक्ति के हम अधूरा हई। तोहरे भीतर समाय कै हमैं जौन संतोष, सुख मिला ओकाँ हम मूढ़ प्राणी पाप समुझि कै ग्लानि से गलत रहे। ऊ पाप नाय है, ऊ साधना कै सिद्धि है। तुहैं मालूम नाय बा भैरव कै साधना भैरवी से ही पूरी होत है। वहि दिन हम तोंहसे पूछे बिना ई साधना किहे रहेन। आज तुहार आज्ञा लइके ऊ साधना करै चाहित है। कहि के बड़े प्यार से हम्मै थामि लिहिन औ हम फिर हक्की बक्की यस उनकी साधना कै राह बनी रहि गयन।''
''वहि दिन हम गायत्री से भैरवी बनै क गरिमा पाइ गै रहेन। मुला सबेरे उठतै हम फिर साधारण स्त्री गायत्री होय गै रहेन। भोर म पुजारी नहाय धोय के निसरै लागे त हम आगे जाय कै खड़ी होइ गयेन। आज हम्मैं साफ बताइ द्या कि हमसे बियाह करबा न?''
पुजारी चुप रहिन- ''ई हम नाय करि सकित काहें से कि हम महन्त कै गद्दी प बैठि कै गृहस्थ नाय बनि सकित।''
''हमार सारी कमजोरी, दया, क्षमा क भाव भैरवी बनै के गौरव कुलि हेराय गै औ हम तनि कै खड़ी होइ गयेन- तौ सुनि ल्या, अब हम केहू से बियाह कै लेब औ आज के बाद हमैं आपन मुँह न देखाया।''
''पुजारी चुपचाप चला गइन।
हम दरवाजा बन्द कै के फूटि फूटि कै खूब रोयन। अपने उपर रिसि लागै लागि कि हमार यतनी बेइज्जती कइके जौन मनई इहाँ से गै रहा ओकरी बातन म आइकै हम फिर ओकरे उपर दया किहेन, ओकर लालसा पूरी किहेन।
पुजारी के गये के बाद हम क्रोध म गलै लागेन। हम्मैं लाग कि कुन्दन से बियाह कै के हम पुजारी से बदला लै लेब, पुजारी काँ इहै दण्ड होये। हमरे सोचै समझै क सक्ति खतम होइगै रही। हम तुरन्तै कुन्दन काँ फोन कै दिहेन। कुन्दन फोन उठाइन।
हम गायत्री बोलत हई, तूँ आइजा हम तोहँसे बियाह करै क तैयार हई।''
कुन्दन बोले- ''हम क्वार्टर कै इंतजाम कै के एक हफ्ता मा आउब। शनिवार कै राते मा हमरे साथे निकरै क परे, इतवार कै छुट्टी रहे। सोमवार क फिर आफिस जाय क परे।''
''एक हफ्ता म कुन्दन आइगै। वहि दिन कुन्दन रात म आय पूरे गाँव म सूता परा रहा।
हमकाँ ओकरे साथे बिना केहू के बताये जाये म थोड़ा डरि लागि। मुला मन म यतना क्रोध रहै कि अब हमार काव केहू बिगाड़ि देये। एक पवित्र इज्जत रही ऊ लुटि गै तौ केथुवा क परवाह बाय?
एक दिन पहिले हम गाँव की एक बहू से बताइ दिहे रहेन कि हम तीरथ करै जात हई, मन बहुत दुखी बा।
गाँवै क एक बूढ़े बाबा काँ कहि दिहे रहेन कि मंदिर म ताला बन्द कै के चाभी कहीं ऊपर ताखा म धै जाब तूं आइकै दिया-बाती, आरती, भोग कै दिह्या, जबलै हम न लौटी।
हम आपन ई ठेकाना छोड़ि कै नाय भागै चाहत रहेन। का जानै इहौ धोखा देय तौ लौटि कै आये पै रहै कै आसरा त रही। कहावत याद रही कि- 'दूध क जरा माठा फूँकि कै पीयथै।'
कुन्दन से बियाह करै के फैसला त हम पुजारी से बदला लेवै खातिर लिहे रहेन।''
आपन यतना दुख गाथा कहत-कहत गायत्री हाँफै लागि रही।
हम ओकां ढाँढस दिहेन त आगे ऊ जौन कुछ बताइस ऊ सुनि कै हम सोचै लागेन कि के कहथै कि औरत कमजोर होथै?
आगे ओकर कहानी ई रही कि कुन्दन ओकाँ रातै म लैके चला गै। आपन कुलि जमा पूंजी गायत्री साथै लै गयीं कि इहाँ कुटी सूनी रहे त कहूँ चोरी न होय जाय।
कुन्दन गायत्री क लैके एक धरमशाला म गै। सामान धैके एक मंदिर म लैगै। मंदिर के पुजारी काँ चढ़ावा चढ़ाइस। वनसे मंत्र पढ़वाय कै भाँवरि घूमा, सेन्हुर पहिराय कै औ वापस धरमशाला के कमरा म लौटि कै सुहागरात मनाइस।
चार दिन अपनी बड़ी नौकरी, आमदनी कै रुआब देखाइ कै ऊ गायत्री काँ सोवत छोड़ि कै अंतर्ध्यान होइगै।
गायत्री ओसे ओकरे घरे क पता, माई बाप कै नाव लिखवाय के पहिलेन लै लिहे रही। सबेरे जब ऊ गायब मिला तौ दुइ दिन इंतजार कै के वापस अपनी ससुराल के गाँव गई। पता लाग कि कुन्दन नाम के आदमी केहू दूसर होय औ ऊ दुइ बच्चन कै बाप होय।
गायत्री अपनी कुटिया म लौटि आयीं। केहू काँ बियाहे क खबर न होय, यहि लिहे मांगि क सेन्हुर अपुनै रगड़ि-रगड़ि के धोय डारीं।
वही बियाहे क सुफल लड्डू गोपाल होंय।
गायत्री पुजारी काँ दण्ड देय खातिर केहू से नाय बतायीं कि लड्डू गोपाल केकर लरिका होय। ऊ पुजारी कै लरिका होय सब इहै जानथै।
गाँव भरे क मेहरारू पुजारी काँ पानी पी-पी कै कोसथीं औ गरियावथीं कि ऊ भगोड़ा अब गॉंव म मुंह न देखाये। बेचारी गायत्री कै नाय त अपने
लरिकै क मुँह देखै खातिर आवै क चाही।लेकिन गायत्री कै मन आपन ई रहस्य छिपावै के बोझ से बहुतै दुखी रहा। ओंकाँ पुजारी पै तरस आवै औ कुन्दन मिलै त ओकर मुँह नोचि लेय।
          ऊ कहै लागि- ''दीदी! हम बहुत दिन से अगोरत रहेन कि अपने मन कै बोझ तुँहसे कहि कै हम हलुक होइ जाब। हम जानित है कि तूँ हमार ई रहस्य दुनियाँ से छिपाय लेबू।''
कुछ दिन बाद पता चला कि एक रात कुटिया म चोर घुसि आइन।
गायत्री डरिगै। वहकाँ सबसे ज्यादा चिन्ता अपने अनोखे जीयत जागत धन लड्डू गोपाल कै रही। ऊ चहारदिवारी फाँदि कै लड्डू गोपाल के लैकै भागी। जाड़े क दिन, अँधेरी रात रही, सींचे गीले खेतन म से भागत कै ऊ गाँव क आसा बहू के दरवाजे पहुँचि गै।
        ऊ जब अकेली रही तो ई आसा बहू बहुत मदद किहे रहीं। उहाँ पहुँच के ऊ जोर-जोर से गोहार लगावै लाग। ई ढाँढ़स होइ गै रहा कि केतनउ जबर चोर होये तबौ ठाकुर के दुआरे आवै क हिम्मत न करे।
पूरा गाँव सोवत रहा, गोहार सुनिकै लोग जागि गै मुला डरि के मारे केव ना निसरत रहा।
आसा बहू के काने म आवाज परी त ऊ अपने परिवार वालन काँ जोर-जोर से जगावत कै बाहर की ओर दौड़ी। वन्है देखतै गायत्री सहारा पाय कै जमीन पै गिर परी। गोड़े के घुटना ले कीचड़ से लथपथ होइगै रही। आसा बहू लड्डू गोपाल काँ उठाय लिहीं औ अपने लरिकन के साथे बिस्तर म लइ जायके बैठाय दिहीं। ऊ डरि के मारे सहमा सहमा रोवय लाग रहा। लरिकन क पायके चुप होइगै।
तपता बारि गै, गायत्री कै हाथ पाँव धोवाय के कपड़ा बदलवाय गै औ ठंड औ डरि से ठिठुरे ओकरे तन-मन कँ गरमी पहुँचावै क कोसिस कीनि गै।
सबेरे सब गै त देखिस कि कुटिया म से सब मूरति गायब रहीं। गायत्री कै जमा पूँजी एक बेर कुन्दन कै दहेज बनिगै रही। अब चोर मूसि(लूटि) लै गै रहे।
मुला गायत्री मगन रहीं कि ओकर लड्डू गोपाल बचि गै रहे। अबहिन ले ओकरे मन माँ ई संका बाय कि चोर चोरी के लिए नाहीं आय रहे उनके लड्डू गोपाल क लै जाये क आय रहे। ऊ चोर कुन्दन भेजे रहा कि पुजारी, ई रहस्य गायत्री आज ले नाय जानि पायीं।
मूरति कै लड्डू गोपाल अपुना चोरन के साथे जाइके आपन जीयत जागत रूप गायत्री की झोली म डारि गै रहिन।
अब गायत्री कुटिया म अकेले रहथै। खाली दान दक्षिना से अब काम नाय चलइ वाला हय। ई सोचि कै ऊ कुटिया म स्कूल चलावथै। आसा बहू की मदद से आँगनबाड़ी कै केन्द्र कुटिया म खुलि गै बा। अब ऊ अपने लड्डू गोपाल कै जिनगी संवारै क खातिर पूजा-पाठ के साथे साथे खूब मेहनत कै के पैसा जुटावइ क कोसिस करथै। लड्डू गोपाल कै उहै माई होय, उहै बाप होय।
अब गायत्री काँ न कुन्दन कै इन्तजार बा, न पुजारी कै। अब ऊ अपने लड्डू गोपाल के साथे मगन रहथै।



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हिंदी समय में विद्या विंदु सिंह की रचनाएँ