यूँ तो सरसरी तौर पर यह एक सनसनीखेज फिल्मी पटकथा है जिसे पढ़ते हुए डर है कि कहीं लोग किसी ब्लू फिल्म का आनंद न लेने लगें। हालाँकि ब्लू फिल्म में भी कहीं कोई
आनंद होता है, यह एक अलग विवाद का विषय है। फिलहाल इस कहानी में कहीं-न-कहीं, कुछ-न-कुछ तो ऐसा है जो इस अनजान अबोध लेखक को बाध्य कर रहा है लिखने को, और लिखना
भी ऐसा कि रातों की नींद हराम हो जाए।
तो लिखना पड़ रहा है, इस डर के साथ कि लोग पढेंगे और हँसेंगे। हालाँकि हँसना अच्छा है, स्वास्थ्यप्रद है, फिर भी कभी कोई कहानी पढ़कर हँसना त्रासद भी हो जाता है।
ठीक उसी तरह जैसे किसी ब्लू फिल्म का आनंद त्रासद होता है।
तो मित्रो, यह कहानी की भूमिका थी और मुझे लगता है कि जरूरी थी। क्यों जरूरी थी, इसका कोई जवाब नहीं है मेरे पास। सिर्फ कुछ संभावनाएँ हैं और उन संभावनाओं से ही
इस कहानी का विकास होना है।
पहली संभावना यह कि कथाकार को डर है एक ऐसी फिल्मी पटकथा से जिसमें एक होता है नायक और एक होती है नायिका। दोनों पूरे नौ दिन संभोगरत रहते हैं। सो भी खजुराहो के
किसी बियाबान होटल में। जंगल में नहीं रहते, यही गनीमत है।
खजुराहो में नायक और नायिका का नौ दिनों का संभोग यहाँ कोई रूपक नहीं है। यह दरअसल कई रूपकों का एक रूपक है। दिक्कत यह है कि मिथकों के इस देश में इस कार्यक्रम
के लिए फिलहाल हमारे पास ऐसा कोई शब्द नहीं है जो इसकी संपूर्ण व्याख्या कर सके। इसलिए हम इसे संभोग ही कहेंगे। हालाँकि मनोरंजन की तर्ज पर कुछ लोग इसे तनोरंजन
भी कहते हैं। लेकिन उससे अर्थ की जटिलता कहीं और ज्यादा जटिल न हो जाए, इसलिए फिलहाल उसे छोड़िए और आइए अपने उस मूल कथानक की तरफ जहाँ वस्तुतः कथाकार की इन
ऊलजलूल बातों और शुरुआतों का सार छिपा है।
इस कथानक का नायक है एक कलाकार जो वस्तुतः आवारा है और बेवजह चित्र बनाता है।
इस कथानक की नायिका है भारतीय मूल की एक धनाढ्य फ्रांसीसी युवती जो वस्तुतः एक टूरिस्ट है और भटकते-भटकते यहाँ आ पहुँची है खजुराहो में।
खजुराहो का इतिहास एकाएक जाग उठा है इन दोनों के यहाँ आने से, और कहानी है कि बार-बार भागना चाहती है इतिहास की उन्हीं मध्ययुगीन कंदराओं में जहाँ चंदेल वंश के
परम प्रतापी राजा धंगदेव ने कभी एक सपना देखा था।
सपने में उन्होंने जो देखा वह इतिहास की नहीं, बल्कि इतिहास के बाहर की कथा है। कहते हैं कि राजा धंगदेव काफी उदार, स्नेहिल और प्रजावत्सल राजा थे। जैजाकभुक्ति
का उनका सिंहासन इंद्र के सिंहासन से कहीं जाता अटल माना जाता था। इतिहास का यह वही दौर था जब पूरे हिंदुस्तान में कहीं कोई केंद्रीय शक्ति नहीं बची थी। दक्षिण
में राष्ट्रकूटों का पराभव हो चुका था और कन्नौज पर एक कमजोर और नपुंसक राजा राज्य कर रहा था। उत्तर में गहड़वाल थे, दक्षिण में पांड्य, होयसल, चालुक्य और यादव।
दिल्ली में जरूर चौहानों के सशक्त दावेदार काबिज हो चुके थे। पश्चिम में मुल्तान की सीमा उस समय भी सबसे कमजोर सीमा मानी जाती थी और हर समय मुस्लिम आक्रांताओं
का खतरा वहाँ मंडराया करता था। पूरे हिंदुस्तान का कहीं कोई नक्शा नहीं था और सीमाओं में अक्सर उलटफेर हो जाया करते थे।
जिस समय राजा धंगदेव ने वह सपना देखा उस समय भी जैजाकभुक्ति के चंदेल कन्नौज के प्रतिहार नरेश से युद्ध में व्यस्त थे।
चूँकि राजा धंगदेव का सपना इतिहास के बाहर की कथा है इसलिए इतिहास में उसका कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता। लेकिन राजा धंगदेव ने सपना देखा था और सपने में उन्होंने
देखा कि तंत्र की अधिष्ठात्री देवी तारा अपने प्रचंड आवेग में प्रकृतिस्थ हो, उनके निकट और निकट चली आ रही हैं। उनकी देह का अपना एक व्याकरण, अपनी एक भाषा थी।
देवी तारा ने पूछा, '' हे राजन! तुम कौन हो?''
''मैं आपका एक दीन-हीन भक्त हूँ माते।''
देवी तारा हँसीं और भयानक अट्टहास पूरे ब्रह्मांड में गूँजने लगा।
''मुझे भक्त नहीं, प्रेमी चाहिए राजन!'' देवी तारा एक कुटिल मुस्कान से मुस्कराईं। राजा धंगदेव काँपने लगे। एकाएक देवी तारा की वीभत्स नग्न मुद्रा एक लावण्यमयी
चंचल सुकुमारी में तब्दील होने लगी। राजा ने देखा की वह चंचल सुकुमारी और कोई नहीं, उन्हीं की पुत्री राजकुमारी अलका थी।
उधर प्रतिहार नरेश से युद्ध चल रहा था और इधर राजा धंगदेव अपने उस सपने का गूढ़ार्थ खोजने में अपनी तमाम राजनीतिक प्रतिभा को दाँव पर लगा रहे थे। कवि, ज्योतिषी,
तांत्रिक, साधु, संन्यासी सब के सब राजा का सपना विचार रहे थे और इधर देवी तारा थीं कि हर रात पंचमकार में लिप्त अपने भक्तों पर जादू कर रही थीं।
राजा का सुख, चैन सब छिन गया, भूख मर गई, नींद हराम! अराजकता के उसी दौर में राज्य में एक भयानक महामारी आई। जैजाकभुक्ति के चंदेलों का सिंहासन डोलने लगा। यह
वही सिंहासन था जो कभी इंद्र के सिंहासन से कहीं ज्यादा अटल माना जाता था।
डोलते हुए सिंहासन पर आसीन देवी तारा ने पूछा, ''राजन! तुम प्रेमी कब बनोगे?''
राजा मौन थे और सिंहासन डोल रहा था।
कि अचानक दरबार में एक ब्राह्मण संन्यासी का आगमन हुआ। संन्यासी ने कहा, ''राजन! आपके राज्य में क्षुधापीड़ित एक कलाकार मृत्यु का ग्रास बन रहा है। उसकी कुंद
होती प्रतिभा महाविप्लव का रूप ले रही है। चेतो राजन! अन्यथा अनर्थ हो जाएगा।''
उस भूखे कलाकार की खोज में राज्य की पूरी सैन्यशक्ति लगा दी गई और अंततः कलाकार ढूँढ़ लिया गया। भूख से बेहाल, फटेहाल कलाकार ने बताया कि देवी तारा निरंतर उसके
स्वप्नों में भी आती रही हैं और प्रेम की भीख माँगती हैं।
राजा स्तब्ध। चिंतातुर। उसने अपने मंत्रियों व पुरोहितों से परामर्श किया।
पूर्व से आई तांत्रिकों की शाखा ने बताया, ''राजन! देवी तारा तुम्हें अपने प्रेम यज्ञ की समिधा बनाना चाहती हैं। तुम्हारे इस पावन स्वप्न को भगवान महादेव का भी
आशीर्वाद प्राप्त है। याद करो राजन... भगवान महादेव का नौ दिनों का वह सतत संभोग... आर्यावर्त के इतिहास का वह गौरवशाली अध्याय...!'' तांत्रिकों की टोली कह रही
थी मगर...
मगर राजा धंगदेव के स्वप्निल नेत्र इस महादेश की उस मिथकीय दुनिया में चले गए थे जहाँ कैलाश पर्वत पर विराजमान भगवान महादेव को एकाएक ज्ञात हुआ कि इस महादेश का
काम कुंठित हो गया है। उस समय देवासुर संग्राम चल रहा था और बैकुंठ स्वामी भगवान जगन्नाथ चिंतातुर क्षीरसागर पर टहल रहे थे। युद्ध और युद्धातुर शक्तियों को
रोकने का अब कोई विकल्प नहीं बचा था और उधर असुरों की प्रचंड शक्ति देवताओं को छिन्न-भिन्न कर रही थी।
युद्धलिप्सा से त्रस्त भगवान महादेव ने एकाएक एक निर्णय लिया और देवी पार्वती के साथ नौ दिनों के महाअनुष्ठान पर चले गए। युद्ध चल रहा था और भगवान महादेव
अज्ञातवास पर थे।
अज्ञातवास का एक-एक दिन जब बरसों लंबा खिंचने लगा तब बैकुंठ स्वामी भगवान जगन्नाथ की व्याकुलता बढ़ी। वे दौड़ पड़े उस एकांत स्थल की तरफ जहाँ भगवान महादेव उस
महाअनुष्ठान में रत थे।
''धगद्धधगद्धज्ज्वलल्लाटपट्टपावके
किशोचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम्।''
उस महाअनुष्ठान में रत भगवान महादेव की ललाटाग्नि धक्-धक् जल रही थी और मस्तक पर किशोर चंद्रमा अपनी शीतल रश्मियाँ बिखेरते हुए विराजमान था।
द्वारपाल ने भगवान जगन्नाथ को उस महाअनुष्ठान कक्ष में जाने से रोक दिया। शिष्टाचारवष भगवान जगन्नाथ रुक गए। लेकिन कब तक? दो दिन, चार दिन पूरे नौ दिन तक भगवान
महादेव अनुष्ठान कक्ष से बाहर नहीं निकले। सहस्रबाहु भगवान जगन्नाथ को क्रोध आ गया। दनदनाते हुए पहुँचे गर्भगृह में और जो देखा वह सृष्टि का वही रहस्य था जो कभी
कहा नहीं गया और जिसे कहने के प्रयास में इस धरा-धाम के तमाम कवि-द्रष्टा पागल हो गए।
युद्ध लिप्सा से त्रस्त और क्रोध के वशीभूत सहस्त्रबाहु भगवान जगन्नाथ ने भगवान महादेव को जो शाप दिया उसके अनुसार उन्हें इस मर्त्यलोक में युग-युगांतर तक
लिंग-योनि के रूप में ही पूजा जाना था। भगवान महादेव के लिए यह शाप एक वरदान भी था।
पूर्व से आई तांत्रिकों की शाखा बता रही थी कि 'राजन! भगवान महादेव का वह महाअनुष्ठान अपूर्ण रह गया और बस, उसी दिन इस महादेश का 'काम' कुंठित हो गया। राजन! यही
जैजाकभुक्ति के चंदेलों का संकट है। समस्त राज्य की देह तुमसे देह का अधिकार चाहती है।'
राजा धंगदेव तत्पर थे इस अधिकार को देने के लिए मगर इधर राजकुमारी अलका थीं कि राजा का प्रतिपक्ष बनी हुई थीं। पूर्व के तांत्रिकों का समूह नित नई दार्शनिक
व्याख्याएँ दे रहा था और भूख से पीड़ित कलाकार शिल्पी तटस्थ द्रष्टा की मुद्रा में आ गया था।
राज्य के सभी स्त्री-पुरुषों को देह का अधिकार मिल चुका था। दुंदुभि बज रही थी। समाज के तमाम नीतिज्ञ पुरुषों का विवेक देवी तारा ने एक ही झटके में हर लिया था।
भगवान महादेव का आशीर्वाद, देवी तारा की इच्छा कि खजुराहो की इस पुण्यभूमि में एक मोक्षमार्ग बने, लिंग-योनि की पुनः प्राणप्रतिष्ठा की जाए, अन्यथा अनर्थ हो
जाएगा।
कलाकार को बुलावा आया। वह भूखा-नंगा कलाकार ही अब जैजाकभुक्ति के चंदेलों की कीर्ति बचा सकता है। काम के इस उद्दाम वेग को रोकना अब बस इस भूखे-नंगे कलाकार के
हाथों में ही शेष है।
देवी तारा फिर एक बार लावण्यमयी, चंचल, सुकुमारी राजकुमारी अलका में तब्दील होने लगी और कलाकार... वह राजकुमारी अलका की तटस्थ भाव से नग्न मूर्तियाँ बना रहा था।
इतिहास का वही एक छोटा लम्हा ठीक एक हजार साल बाद आज फिर खजुराहो की उसी पुण्यभूमि में खुद को दोहरा था। वह फ्रांसीसी युवती जो इस पटकथा की नायिका है, नग्न देह
धारण कर निद्रामग्न है होटल के एक कमरे में और ब्राह्मण पुत्र हमारा कलाकार नायक कागज-पेंसिल लिए उसके चित्र खींच रहा है।
वस्तुतः इस कहानी का प्रारंभ यहीं से है। ऊपर जो कुछ कहा गया, वह तो इतिहास की एक गप्प मात्र थी जिस पर ध्यान न देना ही श्रेयस्कर होगा।
तो, हमारा कलाकार नायक अपनी कलात्मक दृष्टि से उस फ्रांसीसी नायिका को देख रहा है। देख रहा है और काँप रहा है। उसकी दृष्टि केंद्रित है और होंठों से अस्फुट से
कुछ शब्द फूट रहे हैं जो देखते-देखते खजुराहो के पूरे इतिहास में गूँजने लगते हैं।
उसी गूँज में उभरता है एक बिंब जिसमें राजकुमारी अलका पूछती है शिल्पकार से, ''हे शिल्पी! मेरी नग्न देह में तुमने क्या देखा?''
शिल्पी मौन है, मगर मौन में ही कहता है, ''देवी! तुम्हारी देह में मैंने संपूर्ण ब्रह्मांड को देखा है।''
राजकुमारी हँसती है और कहती है, ''नहीं शिल्पी! मेरी देह को इतना अमूर्त न करो। भरसक तुम इसमें मेरी कामनाएँ देख सकते हो।''
शिल्पी मुस्कुराता है और कहता है, ''देवी! मैं तुम्हारी देह में संपूर्ण ब्रह्मांड की कामना देख रहा हूँ।''
राजकुमारी गंभीर है और पूछती है, ''क्या राजा धंगदेव की यशोलिप्सा भी?''
राजकुमारी हँसती है और कहती है, ''तुम सचमुच कलाकार हो शिल्पी... मेरी परीक्षा में खरे उतरे। देवी तारा ने ठीक तुम्हारा वरण किया। मैं भी तुम्हारा वरण करती हूँ।
आओ शिल्पी... मेरे निकट आओ... जैजाकभुक्ति के चंदेलों की तुम अंतिम आशा हो।''
कुछ ऐसा ही कहती है वह फ्रांसीसी नायिका भी हमारे कलाकार नायक से। और हमारा कलाकार नायक उसके न्यूड स्केच का अंतिम स्ट्रोक मारता है।
कलाकार नायक फ्रांसीसी नायिका के होंठों को चूम रहा है। फ्रांसीसी कलाकार नायक के सपनों को सहला रही है। दोनों गुत्थमगुत्था हैं होटल के इस कमरे में और कहीं
दूर... बहुत दूर एक गीत बज रहा है, 'बैरी भयो रे देस हमार...।'
एकाएक कलाकार नायक चौंकता है। उत्तेजित साँसे अपने आरोह-अवरोह के बीच एक अजीब आध्यात्मिक स्थिरता की माँग कर रही हैं। देवी तारा के शब्द नायक के कानों में गूँज
रहे हैं -
'अहम् विभूत्या बहुभिरिह रूपैर्यदास्थिता।
तत्संहृतं मयेकैव तिष्ठाभ्यजौ स्थिरो भव...'
मैं अपनी ऐश्वर्यशक्ति से अनेक रूपों में यहाँ उपस्थित हुई थी। उन सब रूपों को मैंने अपने समेट लिया है। अब अकेली ही युद्ध में खड़ी हूँ। तुम स्थिर हो जाओ।
कलाकार नायक स्थिर खड़ा है और सिगरेट का धुआँ निगल रहा है। फ्रांसीसी नायिका बिस्तर पर अलमस्त बिखरी हुई है। उसकी नीली, गहरी आँखें कलाकार नायक के पूरे अस्तित्व
को छेद रही हैं... गहरे... बहुत गहरे तक!
पल भर को जैसे पूरा का पूरा दृश्य फ्रीज हो जाता है। फ्रांसीसी नायिका के होंठों पर एक जुंबिश है और अंगड़ाई लेते हुए वह कह रही है, ''फनी... वैरी फनी... आज इस
खेल में सचमुच मजा आ गया।''
कलाकार नायक ने जैसे उसके शब्द सुने ही नहीं। एक गहरी साँस ली और कहा, ''ओम् मणि पद्मे हुम्!''
''इट मींस?'' फ्रांसीसी नायिका ने पूछा।
''ईश्वरीय मैथुन!'' एक निःश्वास छोड़ते हुए कलाकार नायक ने कहा।
और फिर पल भर का सन्नाटा। दो जोड़ी आँखें जैसे एक साथ ओम् मणि पद्मे हुम् का जाप करने लगीं।
''देखो, कमल में रत्न छिपा है!'' देवी तारा का आश्वासन।
संपूर्ण भारतवर्ष की खंडित आत्मा जैसे किसी दुःस्वप्न से जाग उठी - 'ओम् मणि पद्मे हुम्!'
यहाँ हम एक छोटा-सा ब्रेक लेकर कहानी को थोड़ा-सा 'फ्लैशबैक' में ले जाएँगे ताकि बात कुछ और साफ हो सके। दरअसल, जिस समय हमारा कलाकार नायक और वह फ्रांसीसी
खजुराहो के होटल के उस कमरे में संभोगरत थे ठीक उसी समय भारत के धुर पश्चिमोत्तर प्रांत में अपने समय के महानायक भगवान बुद्ध पाँच-पाँच परमाणु विस्फोटों की
उपस्थिति में एक कुटिलता से मुस्कुराए थे। यह तो आप सब जानते ही हैं कि दुनिया की हर चीज इस कदर जुड़ गई है कि अलग से किसी चीज की कोई कल्पना भी नहीं की जा सकती।
सो, भगवान बुद्ध की वह कुटिल मुस्कान भी अलग से कल्पनातीत थी। दूसरी तरफ 'ओम् मणि पद्मे हुम्' का वह शाश्वत नाद था जो सूचना क्रांति के इस युग में भगवान बुद्ध
की उस कुटिल मुस्कान के साथ इस कदर जुड़ गया था कि आश्चर्य होता था।
और सचमुच वह भी एक आश्चर्यलोक था जहाँ हमारा कलाकार नायक और फ्रांसीसी नायिका एकाएक पहुँच गए थे। हालाँकि एकाएक भी एकदम से एकाएक नहीं होता। उसके पीछे भी कई एक
और अनेक होते हैं। सो, 'ब्रेक' के बाद की यह कहानी उन्हीं एक और अनेक की कहानी है।
तो मित्रो, हमारा कलाकार नायक शुरू से ही एक आम घर का बेरोजगार लड़का था और फ्रांसीसी नायिका शुरू से ही एक बड़े घर की बिगड़ैल लड़की थी। बहुत पहले की बात है।
कलाकार नायक के पिता अपने गाँव से चलकर एक छोटे से कस्बे में आए थे और फ्रांसीसी नायिका के पिता उसी छोटे कस्बे से चलकर फ्रांस की राजधानी पेरिस पहुँचे थे।
विस्थापन दोनों का हुआ था। लेकिन... लेकिन कलाकार नायक के धर्मभीरु पिता ने उस छोटे कस्बे में लोगों को सत्यनारायण की कथा सुनाई और फ्रांसीसी नायिका के पिता
पेरिस जाकर कलात्मक भारतीय वस्तुओं का व्यापार करने लगे। यह उतना ही बड़ा अंतर था जितना कि जमीन और आसमान के बीच होता है। सो, जमीन और आसमान का यह अंतर कलाकार
नायक और उस फ्रांसीसी नायिका के जीवन पर भी पड़ा और... और फिर वही दोयम दर्जे की फिल्मी प्रेम कहानी चली जो अक्सर गरीब और अमीर के बीच चलती है।
तमाम मिथकीय कथाओें के बीच गुजरा कलाकार नायक का बचपन जहाँ छोटी-से-छोटी चीजों के लिए तरसता था, वहीं पेरिस में गुजरा फ्रांसीसी नायिका का बचपन खुद अपने आपमें
एक मिथक था। सूचनार्थ बता दें कि फ्रांसीसी नायिका के पिता ने फ्रांस में कलात्मक भारतीय वस्तुओं के व्यापार से धन ही नहीं जोड़ा, बल्कि अपनी पुत्री यानी हमारी
फ्रांसीसी नायिका की कलात्मक सनकों में भी काफी इजाफा किया था।
यह उस समय की बात है जब विश्व बाजार में भारतीय चीजों की कीमत एकाएक बढ़ गई थी और सारा विश्व भारतीय सौंदर्यबोध पर अभिभूत था। शासक-प्रशासक कवि हो गए थे और कविता
का बाजार भाव सातवें आसमान पर था। उस छोटे-से कस्बे में भी जहाँ हमारे कलाकार नायक के धर्मभीरु पिता लोगों को सत्यनारायण की कथा सुनाया करते थे और खुद जहाँ
हमारा कलाकार नायक बेरोजगारी के दिनों में फांके किया करता था, टीवी और अन्य इतर माध्यमों के जरिए बंबई स्टॉक एक्सचेंज की खबरें आने लगी थीं। बावजूद इसके कि
हमारे कलाकार नायक को टीवी के पर्दे पर बंबई स्टॉक एक्सचेंज की भव्य इमारत काफी खूबसूरत लगती थी, वह समझ नहीं पाता था कि शेयर सूचकांक का उठना-गिरना किस तरह उस
देश के शासक-प्रशासक की कविता से जुड़ा है। लेकिन... यह सब था और इसके साथ ही और तमाम बातें थीं जो कथा से संबंध न रखते हुए भी संबंध रखती हैं। अब जैसे यही कि
अपनी तमाम सुख-सुविधाओं के बावजूद पेरिस में ऐंटीक के सबसे बड़े व्यापारी की पुत्री एकाएक भारत आने की जिद कर बैठी, वो भी तब जब भारत में एक तरह की अघोषित
इमरजेंसी लगी हुई थी। बुद्ध मुस्कुरा रहे थे और बेरोजगारी में फांके करता हमारा कलाकार नायक भागकर खजुराहो आ गया।
खजुराहो में उसने गाइड का धंधा किया और महाराज धंगदेव के कल्पित सपने का गूढ़ार्थ लोगों को समझाने लगा। यूँ भी उसका पूरा जीवन इन्हीं मिथकीय आख्यानों में रचा-बसा
था।
फ्रांसीसी नायिका चूँकि 'अपने' इतिहास की खोज में आई थी इसलिए कलाकार नायक से उसका संबंध महज एक संयोग भी हो सकता है। और सच पूछिए तो यह पूरा आख्यान ही उन सहज
संयोगों का एक विराट प्रतिबिंब है जो देवासुर संग्राम के दौरान भगवान महादेव के अनुष्ठान से चलकर महाराज धंगदेव के सपनों में आया था और फिर बीसवीं सदी के अंत
में खजुराहो के किसी बियावान होटल में उस फ्रांसीसी नायिका और हमारे कलाकार नायक के बीच एक असहज संभोग का कारण बन गया था।
हालाँकि होटल के उस कमरे 'ओम् मणि पद्मे हुम्' का वह शाश्वत नाद अब भी था लेकिन...
...लेकिन कलाकार नायक के सिगरेट से उठते धुएँ ने हमें एक बार फिर उन्हीं मध्ययुगीन कंदराओं में धकेल दिया है जहाँ महाराज धंगदेव अपने मंत्रणा कक्ष में बैठे
इतिहास के उस प्रवाह को देख रहे थे जब कन्नौज पर चंदेलों का आक्रमण निर्णायक क्षण की प्रतीक्षा में था। पश्चिमोत्तर से मुस्लिम आक्रांताओं की एक टोली महमूद
गजनवी के साथ आगे बढ़ रही थी। खंड-खंड भारत की विखंडित आत्मा जैसे किसी विप्लव की प्रतीक्षा में थी, और उनके अपने ही राज्य में 'ओम् मणि पद्मे हुम्' का वह निरंतर
जाप... भयाक्रांत राजा को लगता जैसे उनकी साँस ही घुट जाएगी।
और इधर राजकुमारी अलका अपने प्रेम-पात्र शिल्पी से पूछ रही थीं, ''हे शिल्पी! पतन के इस दौर में तुम्हारे सौंदर्य मानक क्या हैं?''
''जिसे आप पतन कह रही हैं राजकुमारी, जरूरी नहीं कि वह पतन ही हो... वह मुक्ति भी हो सकती है। और मुक्ति के मानक नहीं होते राजकुमारी... मुक्ति एक विप्लव है...
महाविप्लव।''
शिल्पी और राजकुमारी का यह मौन संवाद निरंतर गूँज रहा है उन प्रस्तर प्रतिमाओं में जिन्हें योजनानुसार प्रस्तावित मंदिर की बाह्य परिधि में ही रहना है।
'ओम् मणि पद्मे हुम्'! संस्कृति के कामुक क्षण जैसे एक साथ राजकुमारी अलका के दैहिक धरातल पर बहकने लगे।
इधर राजपुरुषों और सामंतों में चिंता व्याप गई है कि एक शूद्र कोटि शिल्पी आखिर कैसे एक राजकन्या से प्रेम कर सकता है? यह अनैतिक है... घोर अनैतिक!
वर्जित फल का स्वाद आदम और हौव्वा ने चखा था तो उन्हें दंडस्वरूप इस मर्त्यलोक में धकेला गया। मगर यहाँ तो वर्जित फल का स्वाद चखने वाला एक शूद्रकोटि शिल्पी था।
इसे पाताल भेजना होगा... वरना...।
इस तरह दो संस्कृतियों के मुखर संघर्ष जारी थे और उधर महमूद गजनवी अपने दल-बल के समेत बढ़ता चला आ रहा था। राजा धंगदेव ने जान लिया था कि महाविप्लव सन्निकट है।
उनके बूढ़े शरीर में अब उतना तेज भी बाकी नहीं था... फिर स्वप्न में निरंतर देवी तारा का आना... राजा भयभीत हो गए।
समाज में नैतिकता के तमाम मानदंड टूट कर बिखर रहे थे। ब्राह्मणों का अपमान... शूद्रकोटि जातियाँ गुस्से से खौलने लगी थीं। जैसे देवी तारा ने उन सबको आशीर्वाद दे
रखा हो।
शिल्पी और राजकुमारी अलका के प्रेम की अनुगूँजें भी राजा के कानों में पड़ीं... राजा असहाय हो गए। उधर राजकीय कार्यशाला में शिल्पी की बनाई प्रस्तर प्रतिमाएँ
निरंतर मुखर हो रही थीं। मुक्ति के सौंदर्य प्रतिमान गढ़े जा रहे थे।
''शिल्पी! पूर्व के तांत्रिक कह रहे थे कि समस्त ब्रह्मांड की मुक्ति ईश्वरीय मैथुन में निहित है... उसी के निमित्त इस मंदिर का निर्माण हो रहा है... तुम क्या
कहते हो?''
''मैं क्या कहूँ राजकुमारी? मैं एक शूद्रकोटि शिल्पी जो कुछ दिन पूर्व भूख से बेहाल था... कह भी क्या सकता है? मुझे तो इस मंदिर के निर्माण के उपरांत उसके
सांधार प्रासाद में भी घुसने की अनुमति नहीं होगी।'' शिल्पी ने एक दीर्घ निःश्वास लेते हुए कहा।
''नहीं शिल्पी! इस खंडित राष्ट्र की आत्मा तुमसे मुक्ति की गुहार कर रही है। देवी तारा का तुम्हें आशीर्वाद है और राजकुमारी अलका का प्रेम... उठो शिल्पी उठो...
महाकाल तुम्हारी प्रतीक्षा में है।''
और शिल्पी उठा... निःशेष! तमाम कामुक, मांसल प्रतिमाओं के बीच वह धँसकर हल चलाते एक श्रमिक की मूर्ति गढ़ रहा था, साथ ही रक्तपिपासु शस्त्र सुसज्जित एक सैनिक...!
शिल्पी ने एक पूरा-का-पूरा दृश्य खींचा जहाँ मुस्लिम आक्रांताओं का पूरा समूह नतमस्तक जमीन पर बैठा हुआ था... पराजित। भारत खंड की सुसज्जित सेनाएँ बढ़ी जा रही
थीं और उनके बीच एक स्वर गूँज रहा था - 'ओम् मणि पद्मे हुम्'!
यहाँ होटल के इस कमरे में भी फ्रांसीसी नायिका के होंठों पर ठीक वही शब्द हैं, 'ओम् मणि पद्मे हुम्'! और उसके संगमरमरी कुचों से खेलता हमारा कलाकार नायक कह रहा
है -
''यदगुह्यं परमं लोके सर्वरक्षात्करं नृणाम्।
यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह!''
जो इस संसार में परम गोपनीय है और मनुष्यों की हर तरह से रक्षा करने वाला है, वह रहस्य जो आपने किसी से नहीं कहा, प्रभो! मुझसे कहिए।
''व्हाट नानसेंस!'' फ्रांसीसी नायिका के शब्द।
''सांस्कृतिक विप्लव का महाआख्यान...'' कलाकार नायक के मौन से गूँजती एक ध्वनि!
कुछ ऐसी ही ऊलजुलूल बातें और हरकतें कलाकार नायक नायक पिछले नौ दिनों से करता रहा है। कभी वह दुर्गा सप्तशती का पाठ करता है तो कभी तांत्रिक सूत्रों का वाचन।
उसकी हर हरकत पर फ्रांसीसी नायिका उसे आश्चर्यमिश्रित श्रद्धा से देखती है। कभी झिड़कती है तो कभी जिज्ञासा करती है।
उसके अनुसार इन नौ दिनों में उसे अपूर्व आध्यात्मिक आनंद मिला है। कलाकार नायक के इस विरल संयोग ने जैसे उसे धन्य-धन्य कर दिया।
और इधर हमारा कलाकार नायक इन नौ दिनों को अपनी नवरात्र साधना की सिद्धि मानता है। 'सांस्कृतिक विप्लव का महाआख्यान...!'
इधर उसके बनाए चित्र भी अपूर्व बन पड़े हैं। फ्रांसीसी नायिका इसे जानती है। उसकी व्यवसाय बुद्धि उसे फ्रांसीसी कला जगत के शीर्ष पर देख रही है। मगर हमारे कलाकार
नायक की जिद है कि वह फ्रांस नहीं जाएगा। उसे अपनी धरती प्यारी है... अपने लोग। यह अलग बात है कि उसका अपना यहाँ कोई भी नहीं।
वह बार-बार अपने ही बनाए उन चित्रों को देखता है जहाँ आध्यात्मिक से लबरेज तमाम मांसल बिंब उभर रहे हैं और पार्श्व में एक गीत बज रहा है, 'बैरी भयो रे देस
हमार...'
कलाकार नायक चाहता है कि काश! वह इसमें एक चित्र और खींच सकता जिसमें पश्चिमी आक्रांताओं का नत शिर समूह होता और वह कहता, 'ओम् मणि पद्मे हुम्'।
मगर वह कह नहीं पाता। उसके शब्द एकाएक खजुराहो के मध्ययुगीन इतिहास में कहीं खो गए हैं और वह बावला-सा उन्हें खोज रहा है।
खजुराहो में मोक्ष मार्ग के निर्माण का स्वप्न पूरा हुआ। अब मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा की जाएगी। देश-विदेश के तमाम कवि-ज्योतिषी, तांत्रिक और विद्वान इतिहास
के इस अपूर्व आयोजन के साक्षी होने जा रहे हैं।
महाराज धंगदेव की बेचैनी थमी नहीं थी। उनकी आत्मा पर जैसे कोई बोझ था। इधर राजपुरुषों और सामंतों ने एक अलग ही मुहिम छेड़ रखी थी। राजकुमारी अलका और शिल्पी का
उन्मुक्त प्रेम अब नैतिकता का नहीं - उनके अस्तित्व का प्रश्न बन चुका था।
राजा धंगदेव दोराहे पर खड़े बार-बार देवी तारा का स्मरण कर रहे थे मगर देवी तारा हँसे जा रही थीं। उनका भयानक अट्टहास पूरे ब्रह्मांड में गूँज रहा था। मंदिर के
सांधार प्रासाद में प्रवेश करते हुए राजकुमारी अलका ने अपने तमाम सामंतों व राजपुरुषों पर एक दृष्टि डाली। शिल्पी उसमें कहीं नहीं था। राजकुमारी की नजरें पूरे
परिदृश्य में सिर्फ और सिर्फ शिल्पी को खोज रही थीं, मगर वह उन्हें कहीं नजर नहीं आ रहा था।
शिल्पी मंदिर से दूर खड़ा था... एकाकी। अपनी इस अनुपम कृति को देखते हुए कभी उसे गर्व होता था... कभी क्षोभ। अब वह इन मूर्तियों की प्रदक्षिणा भी नहीं कर सकता।
हालाँकि वह चाहता था कि इन उदग्र मूर्तियों पर वह कभी शांति से केसर का भरपूर लेप करे...।
अपवित्र मूर्तियाँ भागीरथी के जल से पवित्र कर दी गई थीं। शिल्पी के भीतर जैसे कोई ज्वालामुखी धधकने लगा... उसकी आँखें गुस्से और अपमान से लाल हो गईं।
इतिहास में यह दृश्य फिर कभी दोहराया नहीं गया। शिल्पी के तेज बढ़ते कदमों में एक अद्भुत दैवीय चमक थी और वह निरंतर दृढ़तापूर्वक मंदिर के सांधार प्रासाद की ओर बढ़
रहा था। देवी तारा साँस रोककर इस पूरे आयोजन को हतप्रभ देख रही थीं।
जैसे ही शिल्पी प्रदक्षिणा पथ के निकट पहुँचा, एक साथ कई-कई प्रहरियों ने उसे पकड़ लिया और उसे दूर ले गए... बहुत दूर...!
राजकुमारी अलका अपने विवश नेत्रों से उसे जाते हुए देख रही थीं और सुन रही थीं - 'ओम् मणि पद्मे हुम्'!
सुनने में आया कि मूर्तिभंजक महमूद गजनवी पंजाब के सीमांत प्रदेशों तक चढ़ आया था। वहाँ का शासक जयपाल पराजय व अपमान से क्षुब्ध अग्निचिता पर जलकर मर गया।
महाविप्लव से आक्रांत राजा धंगदेव ने भी उस रात दो विकट फैसले लिए। एकाएक उन्होंने संन्यास की घोषणा कर दी और प्रयाग की ओर प्रस्थान कर गए। प्रयाग में उन्होंने
जल-समाधि ले ली। जब वे संगम में जल-समाधि ले रहे थे ठीक उसी समय खजुराहो में वर्जित फल का स्वाद चखने वाला एक शिल्पी पाताल लोक भेज दिया गया था।
इस समय तक महमूद गजनवी ने भी पेशावर जीत लिया था।
कहते हैं कि इतिहास खुद को दोहराता है। महाराजा धंगदेव की जल-समाधि और खजुराहो में मूर्ति शिल्पी की निर्मम हत्या के वर्षों बाद जब राजा धंगदेव के प्रपौत्र परम
प्रतापी राजा विद्याधर देव ने महमूद गजनवी के खिलाफ कायर राज्यपाल का वध कर एक अभियान छेड़ा और भारत खंड के छह राजपूत राज्यों की सशस्त्र संघीय सेना लेकर महमूद
गजनवी को खदेड़ना शुरू किया तब अचानक एक घटना घट गई।
भारत खंड की विजयिनी सेनाओं ने महमूद गजनवी को पराजय के कगार पर खड़ा कर दिया था और हताश महमूद अल्लाह से मदद की दुआ कर रहा था।
इधर दिन भर युद्ध से थके राजा विद्याधर निद्रामग्न थे और देवी तारा उन्हें स्वप्न में कह रही थीं, ''भागो राजन, भागो! महाविप्लव सन्निकट है। संपूर्ण भारत देश की
खंडित आत्मा एक शूद्रकोटि शिल्पी के शाप से अभिशप्त हो चुकी है। अब मूर्तिभंजक महमूद को इस महादेश में आने से कोई नहीं रोक सकता। तुम्हारी अपनी ही सेनाओं की
तमाम अंत्यज जातियाँ विद्रोह पर उतारू हैं। महाविप्लव आ चुका है।'' पसीना-पसीना हुए राजा की नींद टूट गई। गुप्तचरों के अनुसार विद्रोह की सूचना सही थी। भयभीत
राजा विद्याधर देव अचानक युद्धस्थल से भाग खड़े हुए।
कोई भी इतिहास लेखक कभी यह नहीं जान पाया कि आखिर क्यों परम प्रतापी विद्याधर देव इस तरह अचानक कायरतापूर्वक युद्धस्थल से भाग खड़े हुए?
राजनीतिक प्रपंच ने एक जीती हुई बाजी पलट दी थी। थानेश्वर, कन्नौज, कालिंजर को लूटता हुआ मूर्तिभंजक महमूद सोमनाथ तक पहुँचा और फिर इस खंडित देश की आत्मा एक साथ
त्राहि-त्राहि कर उठी।
पाताल लोक में बैठा शूद्रकोटि शिल्पी भी भारतखंड की इस नियति पर हँस रहा था। उसकी उस हँसी में प्रतिशोध और हताशा का एक मिला-जुला भाव था। खजुराहो की तमाम तांबई,
उदग्र प्रतिमाएँ उसकी इस हँसी से मुक्तिरास कर रही थीं। भगवान महादेव शांत थे और देवी तारा...!
'ओम् मणि पद्मे हुम्' इस कथानक का सूत्रवाक्य जैसे अब भी खजुराहो के मध्यकालीन इतिहास में कहीं खोया हुआ है और हमारा कलाकार नायक अपने लाख प्रयत्न के बावजूद उसे
खोज नहीं पा रहा था।
उसकी नौ दिनों की सतत साधना का प्रतिफल उसकी वे अनुपम कलाकृतियाँ फ्रांसीसी नायिका अपने साथ ले गई है और हमारा कलाकार नायक पागलों की तरह अकेले होटल के इस कमरे
में भटक रहा है। उसकी तेज चलती साँसों के आरोह-अवरोह एक बार फिर आध्यात्मिक स्थिरता की माँग कर रहे हैं, मगर हमारा कलाकार नायक है कि इस तरह की किसी भी स्थिरता
के खिलाफ अब तनकर खड़ा हो गया है।
बावजूद इसके कि पश्चिमोत्तर में भगवान बुद्ध की कुटिल मुस्कान अब तक शांत हो गई थी, कलाकार नायक की क्रुद्ध जलती हुई आँखें और तनी हुई मुट्ठियाँ 'युद्धं देहि'
का आह्वान कर रही थीं। मगर पता नहीं क्यों, 'ओम् मणि पद्मे हुम्' का वह शाश्वत नाद अब भी हमारे कलाकार नायक की पकड़ में नहीं आ रहा था।
शायद इसके कारण राजनीतिक थे।
शायद सांस्कृतिक।
या शायद कुछ भी नहीं... कलाकार नायक यूँ ही हवा में अपनी मुट्ठियाँ तान रहा था।
'अब तक फ्रांसीसी नायिका पेरिस पहुँच चुकी होगी। कुछ ही दिनों में उसके चित्र देश-विदेश में विख्यात हो जाएँगे और...' कलाकार नायक इसके आगे कुछ नहीं सोच पाता।
अचानक वह दौड़ पड़ता है कंदरिया महादेव के उस विख्यात मंदिर की तरफ जहाँ भगवान महादेव के आशीर्वाद से कभी एक मोक्ष मार्ग का निर्माण हुआ था। कलाकार नायक उसके
गर्भगृह में प्रवेश से पहले, क्षण भर को ठिठकता है और दौड़कर उन तमाम मूर्तियों की प्रदक्षिणा करता है जो रात के उस सुरमई प्रकाश में मुक्तिनाद कर रही थीं।
कलाकार नायक उन सभी मूर्तियों को अपने आलिंगन में कस लेना चाहता है और चाहता है उनके ठोस वर्तुल स्तनों पर एक सुदीर्घ चुंबन...।
इस तरह की तमाम इच्छाएँ ढोता हुआ हमारा कलाकार नायक मंदिर में प्रवेश कर रहा है। ज्योर्तिलिंग के ठीक सामने एक शिला पर बैठा हमारा कलाकार नायक न जाने क्यों
अचानक रो पड़ता है। उसका यह रुदन अनेकार्थी है और अपने अलग-अलग अर्थों में सारे ब्रह्मांड का रुला रहा है। भगवान महादेव का आशीर्वाद... देवी तारा की इच्छा...।
मित्रो, यह कथा का प्रस्थान बिंदु है। इस बिंदु पर आकर खुद कथाकार भी असमंजस में है। वह ठीक-ठीक नहीं जानता कि इस तरह कलाकार नायक के रोने के असली कारण क्या थे?
जब तक उन असली कारणों की खोज नहीं हो जाती तब तक कथाकार सांस्कृतिक विप्लव के इस महाआख्यान से मुक्ति चाहता है।
एवमस्तु!
फ्रांस लौटने के बाद उस फ्रांसीसी नायिका ने पेरिस में एक भव्य प्रदर्शनी का आयोजन किया था जिसमें हमारे कलाकार नायक के चित्र काफी ऊँचे दामों पर बिके थे। और
कला-समीक्षकों ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। उस समय भारत में करगिल युद्ध हो रहा था और कलाकार नायक का कहीं अता-पता नहीं था।