स्वतंत्रता संग्राम के यशस्वी सेनानी, हिंदी कवि, संविधान निर्मात्री सभा के सदस्य, संसद के सम्मानित सदस्य पंडित बाल कृष्ण शर्मा 'नवीन' नए भारत के
निर्माता थे।
नवीन जी ने अपनी जीवनी में लिखा है, 'मेरे जीवन में लखनऊ कांग्रेस की मेरी यात्रा और परीक्षा के बाद कानपुर की वह यात्रा बहुत महत्वपूर्ण साबित हुई। उन्होंने
मेरे जीवन का प्रवाह बिल्कुल बदल ही दिया।'
1916 की लखनऊ कांग्रेस स्वतंत्रता संघर्ष के इतिवृत्त में अविस्मरणीय घटना है। 'स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है।' के उदघोषक प्रातःस्मरणीय लोकमान्य
तिलक इस कांग्रेस के मुख्य आकर्षण थे। गांधी नेहरू की पहली मुलाकात इसी कांग्रेस के प्रज्वलित क्षणों में लखनऊ में हुई थी। इसी कांग्रेस में मोहम्मद अली
जिन्ना भी कांग्रेस कर्मी की हैसियत से सम्मिलित हुए थे। तब वह कांग्रेस के जुझारू सदस्य थे और मुंबई का 'जिन्ना हाऊस' कांग्रेस का सदर मुकाम था।
सन 1914 में तिलक महाराज रिहा हुए। उनके छूटते ही जनता में नई आशाएँ जाग उठीं। कांग्रेस में फिर भीड़ होनी शुरू हुई। लेकिन कांग्रेस का दरवाजा लोकमान्य जैसों
के लिए बंद था। सन 1914 और फिर 1915 के कांग्रेस अधिवेशनों में चाहते हुए भी वह नहीं जा सके। अंत में नेताओं को नियम बदलने पड़े। सन 1916 की लखनऊ कांग्रेस में
आठ बरस बाद फिर से लोकमान्य ने हिस्सा लिया। उस साल कांग्रेस में प्रतिनिधियों की तादाद 2,801 और अगले साल 1917 में 4,967 थी। लखनऊ कांग्रेस की एक छोटी सी
घटना हममें बहुतों के लिए आज भी काफी शिक्षाप्रद है। हिंदू मुस्लिम सवाल पर लोकमान्य के रुख का उससे खासा पता चलता है।
उस समय तक अंग्रेज, चुनावों और सीटों के अगड़े देश में खड़े कर के हिंदुओं और मुसलमानों के बीच लड़ाई की एक नई बुनियाद ढाल चुके थे। बात लगभग यह थी कि जिन्ना
साहब मुसलमानों के लिए कुछ अधिक सीटों पर अड़े हुए थे, जो हिंदू नेताओं का बेजा और हिंदुओं के साथ अन्याय दिखाई देता था। श्री पदमराज जैन और कुछ हिंदू नेता
लोकमान्य के पास पहुँचे। उनसे सारी बात कही। लोकमान्य ने जितनी सीटें जिन्ना साहब माँग रहे थे उससे कहीं अधिक यानी पचास फीसदी मुसलमानों को देने की सलाह दी।
हिंदू नेता हैरान हो गए। बहस होने पर लोकमान्य ने कहा - 'Now I shall say give them cent Per cent of seats in all legislatures. So Long as I can wrench power
from the British I do not Care who gets it in India.'
अर्थात - 'अब मैं यह कहूँगा कि सब धारा सभाओं में मुसलमानों को सौ फीसदी सीटें दे दो। अगर मैं अंग्रेजों के हाथों से शक्ति छीन सकूँ तो मुझे इस की कोई परवाह
नहीं कि भारत में यह शक्ति किसके हाथों में आती है।
तिलक भारतीय जनता के हृदय सम्राट थे। बाल कृष्ण शर्मा 'नवीन' ने अखबार में लोकमान्य का वह भाषण पढ़ा जिसमें जनता को दिसंबर 1916 की लखनऊ कांग्रेस में सम्मिलित
होने का निमंत्रण दिया गया था। तिलक देश के तमाम युवाओं की तरह बाल कृष्ण के भी हृदय सम्राट थे। उनने लखनऊ कांग्रेस में सम्मिलित होना तय कर लिया। सवाल था
रुपयों का, किंतु जैसे तैसे उन्होंने पैसे जुटा लिए और नंगे पैर कंबल, हाथ में लाठी लेकर लखनऊ चल दिए। लखनऊ उनके लिए अनजाना शहर था। नाम भर सुना था। लखनऊ में न
किसी से जान पहचान थी। रेलगाड़ी में ही एक महाराष्ट्रीय सज्जन से उनका परिचय हो गया और उन्हीं के साथ एक होटल में ठहर गए। सुबह वहीं होटल में राष्ट्रकवि
पंडित माखनलाल चतुर्वेदी से भी परिचय हुआ और परिचय गहरी आत्मीयता में बदल गया। चतुर्वेदी जी के माध्यम से उनका भी गणेश शंकर विद्यार्थी तथा मैथिलीशरण गुप्त
से भी परिचय हुआ। निहायत दुबले पतले, चश्मा लगाए। तेजस्वी नवयुवक को देखकर 'नवीन' जी को बड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि उनके काल्पनिक चित्र से गणेश जी का यह
वास्तविक चित्र बिल्कुल भी मेल नहीं खाता था।
'नवीन' जी कांग्रेस देखने आए थे। अधिवेशन से लोकमान्य बाहर निकले, 'नवीन' जी भीड़ चीरते हुए, आँखों में आँसू भरे लोकमान्य के निकट पहुँच गए। तिलक महाराज के
चरण स्पर्श किए और समझा कि लखनऊ आना कामयाब रहा। विद्यार्थी जी ने दूसरे दिन प्रतिनिधि टिकट का इंतजाम किया। युवा नवीन को विद्यार्थी जी ने प्रभावित किया और
हमेशा-हमेशा के लिए 'नवीन' जी गणेश जी के हो गए। इस तरह गणेश शंकर विद्यार्थी का संपर्क 'नवीन' जी के जीवन की सब से बड़ी महत्वपूर्ण घटना है। यही वह धुरी थी
जिस पर नवीन जी की जिंदगी घूमती रही।
'नवीन' जी क्राइस्ट चर्च कॉलेज के छात्र हो गए और छात्र जीवन में 'प्रताप' से जुड़ गए। कानपुर के मजदूर आंदोलन से भी सक्रिय रूप से जुड़ गए। गांधी बाबा का
असहयोग खिलाफत आंदोलन शुरू हुआ। संयुक्त प्रांत के सत्याग्रहियों के पहले जत्थे में 'नवीन' जी का नाम था। सन 1921 में पहली बार डेढ़ वर्ष की सजा हुई। बंदी
जीवन में नवीन जी पं. जवाहर लाल नेहरू, आचार्य कृपलानी, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन जैसे राष्ट्रीय आंदोलन के शिखर पुरुषों के संपर्क में आ गए थे।
'नवीन' जी छह बार जेल गए थे। लगभग नौ वर्षों का समय जेल की बैरकों में व्यतीत किया था।
'नवीन' जी की प्रेरणा के अमित स्रोत तथापि गांधी जी ही थे तथापि हिंदी के सवाल पर वे गांधी जी से सहमत नहीं थे। कांग्रेस के अध्यक्षीय चुनाव में गांधी जी के
प्रत्याशी पट्टाभि थे तथापि 'नवीन' जी का वोट नेताजी सुभाष चंद्र बोस को मिला था।
6 फरवरी 1922 को गांधी जी ने चौरी चौरा हत्याकांड के बाद अपना आंदोलन वापस ले लिया था तब व्यथा के भार से व्यथित 'नवीन' जी ने लिखा :
आज खडग् की धार कुंठिता है खाली तूणीर हुआ,
विजय पताका झुकी हुई है लक्ष्य भ्रष्ट यह तीर हुआ।,
X X X X
'हलचलों के बीच भी वाणी रही मेरी अकंपित -
और विप्लव भी न कर पाए सुहृदय गीत खंडित -
साध की यह, किंतु सेवा खंड है आक्रोश मंडित
और मैं बस रो रहा हूँ हिचकियों के राग गा-गा।'
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' उनकी भाषण कला के मुरीद थे। दिनकर ने लिखा है : 'जब उस नर-शार्दूल के बोलने की बारी आती, तो बादलों में दरारें पड़ जातीं, छतें
चरमराने लगतीं और सत्य का प्रकाश अपने स्वाभाविक रूप से खुलकर बाहर आ जाता।'
संघर्ष के क्षणों में उनकी पत्रकारिता तलवार सी चलती थी। वह लेखनी के धनी थे। ब्रितानी सत्ता ने तीन चार बार जेल खाने की सजा दी थी। न्याय के पक्ष और अन्याय
के प्रतिवाद के लिए वह सर्वदा दृढ़ और आग्रही रहे।
हिंदी के सवाल पर कई बार पंडित नेहरू से भी झड़प हो जाती थी। मैथिलीशरण गुप्त के अक्षरों में वास्तव में 'उन के बिना, विशेषकर संसद में हिंदी निरालंब सरस्वती
हो गई।' बनारसीदास चतुर्वेदी के शब्दों में, 'मनुजता, सहृदयता परदुखकातरता और उदारता की दृष्टि से नवीन जी का स्थान वर्तमान लेखकों और कवियों में सबसे ऊँचा
था। जिसने क्षण भर उनका संपर्क पाया, जीवनपर्यंत उन्हें भुला नहीं सका।'
नवीन जी का पहला काव्य संग्रह कुंकम सन 1939 में प्रकाशित हुआ। दूसरा संग्रह 'रश्मिरेखा' सन 1951 में छपा था और फिर 1952 में 'क्वासि' तथा 'अपलक' दो गीत
संग्रह एक के बाद एक प्रकाशित हुए। 'उर्मिला' महाकाव्य का प्रकाशन 1957 में हुआ था। 'प्राणार्पण' खंड काव्य का प्रकाशन उनकी मौत के बाद हुआ था।
नवीन जी ने राम की वन यात्रा को आर्य संस्कृति की एक अर्थपूर्ण महान यात्रा माना है :
'आज आर्य संस्कृति-जीवन का यह शुभ प्रथम प्रभात हुआ,
रवि - कुल - रवि की प्रत्यय किरण से अंधकार अज्ञात हुआ,
वह बर्बर अज्ञान, सुलोचनि, वह जड़ता जड़ - जंगल की,
होने को है नष्ट आ गई घड़ी प्रात के मंगल की,
नव संदेश, ज्ञान शुचिता के वाहक हम निष्कामी हैं
यह आदर्श प्राप्त करने को - राम-लखन वनगामी हैं।
सांस्कृतिक एकता राष्ट्र का मूल तत्व है। संस्कृति के प्रति उच्चतम भक्ति भाव ही राष्ट्रीयता का आधार है। नवीन जी की राष्ट्रीयता बौद्धिक न होकर आंतरिक
और भावनात्मक है। गुलामी की बेड़ियों में जकड़ी भारतमाता की स्थिति देखकर वे उत्तेजित हो हुंकार कर उठते हैं। उनके सहज कोमल प्राण विल्पव और विद्राह गा उठते
हैं -
'कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ जिस से उथल-पुथल मच जाए,
एक हिलोर इधर से आए, एक हिलोर उधर से आए,
प्राणों के लाले पड़ आए, त्राहि त्राहि रव नभ में छाए
नाश और सत्यानाशों का धुआँधार जग में छा जाए,
बरसे आग, जलद जल जाए, भस्मसात भूधर हो जाए,
पाप पुण्य सदसद भावों की धूल उड़ उठे दाएँ बाएँ,
नभ का वक्ष स्थल फट जाए, तारक वृंद विचल हो जाएँ
कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ जिस से उथल पुथल मच जाए।'
राष्ट्रीय आंदोलन की विभूति और मानव मुक्ति के अग्रदूत पंडित बाल कृष्ण शर्मा 'नवीन' 1946 में संविधान निर्मात्री सभा के सदस्य उत्तर प्रदेश से चुने गए थे और
1951-52 में कानपुर से लोकसभा के सदस्य चुने गए थे। वर्ष 1957 में वह राज्य सभा के लिए निर्वाचित हुए थे। संसदीय राजनीति में राष्ट्रभाषा, सांप्रदायिक
सद्भाव, हिंदू मुस्लिम एकता, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय के उदात्त ध्येय के लिए हमेशा प्रतिबद्ध बने रहे। नवीन जी ने लिखा है, 'इस मानव को मुक्ति का संदेश
देना और अपने को भी बंधन पाश से छुड़ाने का सतत प्रयत्न करते जाना, यही भारतीय साहित्य का चरम, अंतिम, परम उद्देश्य है। संसार का कण-कण उस अज्ञात सत्ता की
खोज में पागल हुआ घूम रहा है मगर उसे पाने का रहस्य सब नहीं जानते। जीव और ब्रह्म की समरसता एवम एकीकरण रहस्य की अंतिम परिणति है। जीव मार्ग के व्यवधानों को
समाप्त करता हुआ उत्तरोत्तर ब्रह्म की ओर अग्रसर होता है।' यह थी नवीन जी की जीव, जगत और आत्मा के अलौकिक सवालों पर दिव्य दृष्टि।
पंत जी के शब्दों में नवीन वाणी के वरद पुत्रों में से थे जिन की रस सिद्धि तपःपूत आत्मा को मृत्यु स्पर्श - नहीं कर सकती।
मानव मुक्ति के अमर गायक और जुझारू जन संघर्षों के अग्रदूत पंडित बाल कृष्ण शर्मा 'नवीन' ने 29 अप्रैल, सन 1960 को तीसरे प्रहर अंतिम साँस ली। गांधी नेहरू युग
का महामानव सदा-सदा के लिए मौत के आगोश में सो गया। विलक्षण थी उनकी शख्सियत। पंडित जी के पाद पद्मों में शत-शत नमन।