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संस्मरण

भोजपुरी के पहिलका सोप आपेरा 'लोहा सिंह'

गोपेश्वर सिंह


भोजपुरी में - शायद हिंदी समेत दोसरों भारतीय भाषा में - नाटक के कवनो चरित्र से लेखक के जियत पहिचान बनि गइल होखे, एकर दोसर उदाहरण रामेश्‍वर सिंह 'काश्‍यप' के लिखल नाटक 'लोहा सिंह' के अलावा ना मिली। एह नाटक के लोकप्रियता अइसन भइल कि एकर लेखक के लोग असली नाम से कम, लोहा सिंह नाम से अधिक जाने लागल। रेडियो नाटक के रूप में 'लोहा सिंह' नाटक के प्रसारण जब शुरू भइल त लोगबाग का अइसन पसंद आइल कि ओकर प्रसारण हफ्ता में एक बार नियमित रूप से आकाशवाणी पटना से होखे लागल। धारावाहिक रूप में 'लोहा सिंह' के प्रसारण बरिसन चलल। जह दिन 'लोहा सिंह' के प्रसारण होखे, गाँव महुल्‍ला के लोग रेडियो सेट के लगे बहुत पहिलिए से इकट्ठा हो जात रहे आ दम साध के नाटक के एक-एक संवाद सुनत रहे। आगे चलिके दूरदर्शन से प्रसारित 'रामायण' आ 'महाभारत' धारावाहिक के जइसन लोकप्रियता मिलल, करीब-करीब ओइसने लोकप्रियता भोजपुरी क्षेत्र में 'लोह सिंह' नाटक के मिलल रहे। 'लोहा सिंह' के हर कड़ी में समाज के कबनो-ना-कबनों समस्‍या रहत रहे, जबना के समाधान बड़ा आसानी से लोहा सिंह चरित्र के जरिए लेखक प्रस्‍तुत कर देत रहे। कबनो कड़ी में दहेज-समस्‍या होखेत कबनो में परिवार नियोजन, कबनो कड़ी में देशभक्ति मुख्‍य होखे न कवनो में गाँव के सामूहिक भाईचारा। हास्‍य व्‍यंग्‍य शैली में चले वाला ए नाटक के खूबी ई रहे कि बिना कबनो वैचारिक दबाव के श्रोता के चेतना बदले के काम ई करे। जेकरा ए नाटक के देखे आ सुने के मौका मिलल बा, उ सहजे एबात के पुष्टि करी।

हमार ई सौभाग्य बा कि हमरा ना सिर्फ 'लोहा सिंह' के रचयिता डॉ. रामेश्‍वर सिंह 'काश्‍यप' से मिले आ संपर्क में रहे के मौका मिलल, बल्कि आकाशवाणी पटना से प्रसारित उहाँ के लिखल नाटक 'लोहा सिंह' सुने के भी मौका मिलल। हमार इहो सौभाग्‍य बा कि 'लोहा सिंह' नाटक के मंचन भी हम देखनी आ 'लोहा सिंह' फिलिम भी देखनी। ओ फिलिम के काश्‍यप जी पटकथा आगीत त लिखलहीं रहीं, ओमें लोहा सिंह के चरित्र भी निभवले रहीं। ओ फिलिम के उहाँके लिखल आ मन्‍ना डे के गावल 'अजब कइल लीला, गजब कइल मालिक, जनम दे के जग में दरद दे ल मालिक '- भोजपुरी समाज में अपना समय में बहुत लोकप्रिय भइल रहल। हम अपन आँख से देखले बानी कि काश्‍यप जी कहीं जाईं आ लोग के मालूम हो जाए कि 'लोहा सिंह' नाटक के लेखक अभिनेता निर्देशक काश्‍यप जी आइल बानींत लोग 'लोहा सिंह-लोहा सिंह' कहत उहाँ के घेर लेत रहे। लोग उहाँ के काश्‍यप जी कम, लोहा सिंह जादे कहत रहे। 'लोहा सिंह' के लेखक काश्‍यप जी भोजपुरी भाषा के सेलिब्रेटी नाटककार रहनीं। 'लोहा सिंह' नाटक सामाजिक संदेश जनता के पहुँचावे के अइसन माध्‍यम बनल, जबना के दोसर उदाहरण भोजपुरी में नइखे।

'लोहा सिंह' नाटक के मुख्‍य चरित्र गाँव के रहे वाला लोहा सिंह नाम के एगो रिटायर फौजी बा, जवन ब्रिटिश आर्मी में काबुल के मोर्चा पर काम कर चुकल बा। पढ़ाई-लिखाई ओकर ना के बराबर, चाहे बहुत मामूली बा। फौज में रहिके टूटल-फूटल हिंदी आ भोजपुरी फेंट-फाँट के ओकरा बोले के बादत बा। बीच-बीच में कवनो-कवनो अँग्रेजी के शब्‍द के बिगड़ल भोजपुरिया रूप भी लोहा सिंह के डायलग के मुख्‍य हिस्‍सा बा। जइसे लोहा सिंह के एगो संवाद उदाहरण के रूप में सामने बा-जिद त हम धरबे करेगा। तुम देहाती बैकुफाता को बात करेगा त हम खूब जिद धरेगा, अ तुमको घामा में डबल मारच कराएगा। काबुल को मोरचा पर हम निमन-निमन जवान को धुरछक छोड़ा घाला, तुम कवना खेत के मुरई है जी।'' एही तरह के डायलग के कारण 'लोहा सिंह' नाटक के लोकप्रियता बढ़त गइल। कहल जाला कि आकाशवाणी के ई पहिलका धारावाहिक रहे, जवन एतना लोकप्रिय भइल। 'लोहा सिंह' नाटक के शुरुआती ड्राफ्ट के नाम रहे - 'लोहा सिंह ने मुरब्‍बे खाए' । बाद में ई नाटक जब लोकप्रिय भइल त ओकर अगिला कड़ी 'लोहा सिंह ने खेती की', 'लोहा सिंह ने डाक्‍टरी की' जइसन दर्जनन ओकर रूप देखे सुने के मिलल। जब जइसन देश आ समाज का जरूरत पड़ल, काश्‍यप जी 'लोहा सिंह' के अगिला कड़ी लिख डालत रहीं। भारत-चीन युद्ध का समय 'लोहा सिंह' धारावाहिक के माध्‍यम से आकाशवाणी के जरिए काश्‍यप जी देशभक्ति के भावना जगावे के जवन काम कडनीं, ओकर सराहना चारू ओर भइल। 'लोहा सिंह ने मुरब्‍बे खाए और अन्‍य करतूतें' नाम से एक या दो खंड में ऊ सगरी धारावाहिक के प्रकाशन भइल रहे। बाद में जनता भूल गइल कि ओ नाटक न के का नाम रहे, लोह सिंह चरित्र का लोकप्रियता के कारण 'लोहा सिंह' ही प्रसिद्ध हो गइल। लोहा सिंह के संवाद के भाषा त हिंदी मिश्रित भोजपुरी बा लेकिन अउरी पात्र जइसे पाठक जी, खदेरन की माँ, खदेरन, बुलाकी, अछैबट आदि पात्रन के भाषा शुद्ध भोजपुरी बा।

भोजपुरी के मस्‍ती के भाषा मानल जाला। लोहा सिंह खुद एगो मस्‍त टाइप के चरित्र बा। मस्‍ती में लोग सबदन के बिगाड़ के बोलेला। लोहा सिंह के मस्‍त स्‍वभाव में ई आदत कूट-कूट के भरल बा। लोहा सिंह पाठक जी के फाटक बाबा, खदेरन की माँ के खदेरन को मदर, मार्च को मारच, क्‍कालिटी को कलाउटी, ब्‍लीडिंगको बिल्डिंग, मेम को मेमिन, घिरनी को घिरनई आदि कहत रहलन।ए तरह से नाटक में हंसी मजाक के अइसन वातावरण बने कि लोग के दिलचस्‍पी बढ़ जाव। खदेरन की माँ बात-बात में 'आ मार बढ़नी रे' बोलत रहलीं, इहो आकर्षण के बड़ा आधार रहे। पाठक जी लोहा सिंह के बड़ाई में हमेशा कहस 'को नहीं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो', आ एही के साथे ई नाटक खतम होखे।

भोजपुरी में अलिखित लोकनाटक के परंपरा त खूब पुरान बा, लेकिन लिखित नाटक के कवनो बड़ इतिहास नइखे। राहुल सांकृत्‍यायन, भिखारी ठाकुर जइसन कमे नाम 'लोहा सिंह' के पहिले देखे के मिलेला। लेकिन जवन लोकप्रियता 'लोहा सिंह' के मिलल, ओकर उदाहरण दोसर नइखे। 'लोहा सिंह' के बाद भोजपुरी में ओइसन दोसर कवनो नाटक ना आइल। हास्‍य-व्‍यंग्‍य का शैली में चले वाला ए नाटक के जरिए सामाजिक सांस्‍कृतिक आ राजनीतिक संदेश बड़ा लोक लुभावन शैली में जनता तक पहुँचावे के काम कई दशक ले चलल। एही से हम 'लोहा सिंह' नाटक के भोजपुरी के पहिलका सोप आपेरा कहत बानी।

अइसन काल्‍पनिक कहानी, जवना के धारावाहिक रूप में प्रस्‍तुत कइल जाला, ओकरा के सोप आपेरा कहल जाला। साधारण भाषा में कहल जाव त सोप आपेरा अइसन काल्‍पनिक कहानियन के नाम ह, जवन बहुत दिन तक चलत रह सके। ए काल्‍पनिक कहानियन के खूबी ई होखेला कि ई अइसन नाटकीय मोड़ पर खतम होली सन, जवना से ओकरा अगिलका कड़ी के नाटकीयता के अंदाजा हो जाला। ए में पारिवाकि, निजी, लैंगिक, भावनात्‍मक और आदर्शात्‍मक द्वंद्व रहेला। एकर विषय सामाजिक चेतना से भी जुड़ल रहेला। ए तरह के कहानी में भूत-पिशाच अउर अलौकिकता के भी आधार रहेला। शुरुआती काल में ए तरह के कहानियन के 'ड्रामेटिक सीरियल' कहल जाव आ रेडिओ पर एकर प्रसारण होखे। अइसन प्रसारण के साबुन कंपनी प्रायोजित करे, एही से एकर नाम सोप आपेरा पड़ल। एकर शुरुआत अमेरिका यूरोप में भइल। आगे चलके एही तरह के कंटेंट के साथे धारावाहिक रूप में आवे वाला रेडियो प्रोग्राम सोप आपेरा कहाए लागल। भारत में 'लोहा सिंह' नाटक का रूप में भोजपुरी के ई सौभाग्‍य बा कि ना सिर्फ भोजपुरी के, बल्कि शायद संपूर्ण भारतीय भाषा के पहिलका सोप आपेरा कहलावे के एकरा गौरव प्राप्‍त बा। एह रूप में 'लोहा सिंह' नाटक के ऐतिहासिक महत्‍व बा।

जब लोकप्रियता के अभिजन समाज में बहुत इज्‍जत के निगाह से ना देखल जात रहे, 'लोहा सिंह' नाटक लोकप्रियता के उड़नखटोला पर सवार होके ग्रामीण समाज से लेके अभिजन समाज का बीच अइसन जगह बनवलस, जवना के दोसर उदाहरण भोजपुरी नाटक साहित्‍य में शायदे मिले। भिखारी ठाकुर आ 'बिदेसिया' के सामाजिक प्रतिष्‍ठा पावे में काफी समय लागल, लेकिन 'लोहा सिंह' नाटक अपना जनमे काल से लोकप्रियता आ सामाजिक प्रतिष्‍ठा दुनूँ एक साथे अर्जित कइलस। एकर कारण का रहे ? हमरा समझ में एकर दुगो प्रधान कारण रहे। पहिलका ई कि 'लोहा सिंह' मूल रूप में रेडियो नाटक रहे। 1960 का दशक में रेडियो नया संचार माध्‍यम रहे, जवना के जादू के परभाव नगर से लेके गाँव तक, पढ़ल-लिखल से लेके अनपढ़ तक एक समान रहे। रेडियो से प्रसारित भइला के मतलबे रहे कि ओकरा सामाजिक प्रतिष्‍ठा प्राप्‍त बा। तेजी से उभरत लोकप्रिय संचार माध्‍यम त ऊ रहबे कइल। ओकर पहुँच के दायरा एक साथे बहुत व्‍यापक रहे। ओकर पहुँच पुरुष-दालान में भी रहे आ जनानखाना में भी। नाच-नाटक भी लोक‍प्रिय संचार माध्‍यम रहे, लेकिन ओकर पहुँच एतना व्‍यापक ना रहे। दोसर बात ई कि नाच-नौटंकी करे वाला लोग के प्रति ओ जमाना में समाजके नजरिया भी अच्‍छा ना रहे। अइसने समय में नया संचार माध्‍यम के रूप में रेडियो आइल। अइसन लोकप्रिय आ समाज-समादृत संचार माध्‍यम पर सवार होके 'लोहा सिंह' नाटक प्रसारित भइल, जवना के लेखक कवनो नाच-नौटंकी वाला ना रहे, एगो प्रतिष्ठित विश्‍वविद्यालय के प्रतिष्ठित प्रोफेसर रहे, जिनकर नाम रामेश्‍वर सिंह 'काश्‍यप' रहे। जब लोग का ई मालूम होखे कि लोहा सिंह के कड़कत आवाज काश्‍यपे जी के ह, त एकर आकर्षण अउरी बढ़ जाव।

एगो बात अउरी बा। जवना समय में हास्‍य के मात्र जोकर के काम मानल जात रहे, वोह टाइम में 'लोहा सिंह' नाटक हास्‍य के अइसन तत्‍व लेके आइल, जवन शुरू से आखिर तक हास्‍य रस से सराबोर रहे, लेकिन हास्‍य का जरिए सामाजिक चेतना के भी बदले के काम हो सकेला, ईबात एह नाटक से साबित भइल। कवनो वैचारिक संदेश वाला नाटक के लोग बहुत मन से ना पसंद करेला, लेकिन उहे विचार हास्‍य का ठहाका के साथ जनता बीच जब आइल त लोग ओकरा से सहजे जुड़ गइल।

एही साथे 'लोहा सिंह' नाटक के एगो अउरी विशेषता बा। हर पात्र के आपन आपन खूबी रहे। लोहा सिंह जवना ढँग के रहलन, पाठक जी ओकरा से अलग रहले, ओही तरह से खदेरन के माई, बुलाकी आ खदेरन के भी आपन-आपन स्‍टाइल रहे।हर पात्र अपना-अपना खूबी के साथे जनता के दिल दिमाग में बईठ गइल रहे। लोग ए पात्रन के अपना-अपना भीतर जिए लागल आ हर पात्र के डायलग बोले के ढँग अपनावे लागल। भोजपुरिया क्षेत्र के कई गो नेता लोग का बेजोड़ लोकप्रियता का पीछे 'लोहा सिंह' के डायलग के परभाव बा। उनकर भाषा में भोजपुरी, हिंदी आ अँग्रेजी के मिक्‍सचर बा। उदाहरण के रूप में लोहा सिंह के ई डायलग देखल जा सकेला - ''काबुल को मोर्चा पर जब हम हुकुम देते थे त संउसे पलटन का जवान बनूक उठा के एक टंगरी पर ठड़ा हो जावता था। जब हम गर्जन करता था त लफ्टंट को मेम आ करनइल को मेमिन बादहोस हो जाता था, अउर हमारी रोबइला सूरत को खाबसूरती देखकर को जरनइल का कुक्‍कुर भूँकने लगता था... अउर एगो तुम हो जे हमारा हुकुम का नरेटी काट के बीग घालता है, अब बिलाइ लेखा मेऊँ-मेऊँ में करता है।'' दोसर उदाहरण खदेरन की मदर के डायलग में देखल जा सकेला - ''आ मार बढ़नी रे, इनका खातिर हम जतने जीवन दिहीला, ओतने ई छान्‍हीं पर चढ़ल जालन।'' एही तरह से पाठक जी के भी बोले के आपन स्‍आइल रहे। जइसे पाठक जी के एगो डायलग देखल जा सकेला - ''जजमान। तू चल्‍हाँकी के चीलम ह व, बीरताई के बनूक ह व, हिम्‍मत के हाथी ह व। देकर हिमायूँ बा जे तोहार मोकाबला करी ? जवार भर में तोहरा नाँव के डंका डगडगात बा। कहल बा जेबासे का बीच के बगल में कि- को नहीं जानत है जग में, कपि संकट मोचन नाम तिहारो।''

'लोहा सिंह के लोकप्रियता के एगो बड़ कारण रहे, काश्‍यप जी के ऊ नजर, जवन दुनिया भर के नाटक-रंगमंच का क्षेत्र में होत बदलाव के पारखी रहे। काश्‍यप जी बड़ आ कुशल नाटककार त रहले रहीं, उहाँ का हिंदी-भोजपुरी समेत विश्‍व साहित्‍य के धाकड़ पढ़वइया भी रहनीं। 1930 ई. का दशक में रेडियो के जरिए लोकप्रिय भइल सोप आपेरा का बारे में उहाँ का जरूर अध्‍ययन कइले होखब। ई सही बा कि विदेशी सोप आपेरा के रेडियो पर प्रायोजित करे में प्राक्‍टर एंड गेंबल, कोलगेट पामोलिव और लेवल ब्रदर्स जइसन कंपनीन के भूमिका रहे। अइसन कवनो भूमिका आकाशवाणी पटना से प्रसारित 'लोहा सिंह' नाटक का पाछे कवनो कपंनी के ना रहे। लेकिन आपन लोकप्रिय सामाजिक संदेश का कारण परोक्ष रूप में सरकारी प्रायोजन त ई रहबे कइल। सोप आपेरा के स्‍टाइल के अपना माटी-बानी के अनुसार काश्‍यप जी लेहनीं आ 'लोहा सिंह' जइसन धड़कत चरित्र के जनमानस में बइठा दिहनीं।

लोहा सिंह भोजपुरी समेत सगरो भारतीय नाटक साहित्‍य में अलबेला चरित्र रहे। लोहा सिंह के संवाद त मुर्दा आदमी के धड़कत जवान बनावे वाला रहबे कइल, ओकर देशभक्ति, समाज सुधारक, हंसोड़ आ गंवई मन-मिजाज के मेल से बनल व्‍यक्तित्‍व में जवन जादू रहे, ऊ जादू दोसरा नाटक के कवनो चरित्र में आज ले ना लउकल। 'लोहा सिंह' के देखा-देखी अउर कई गो नाटक रेडियो पर आइल, लेकिन लोहा सिंह का सामने कवनो नाटक ना टिक सकल। लोहा सिंह भोजपुरी नाटक के लोकप्रिय साथ ही अमर चरित्र बा।

'लोहा सिंह' का जइसन बेजोड़ सफलता रेडियो पर मिलल, ओइसन ना त मंच पर मिलल, ना फिलिम का परदा पर। एकर कारण का बा? एकर एगो बड़ कारण ई बा कि 'लोहा सिंह' संवाद प्रधान नाटक रहे, अभिनय प्रधान ना। एकर सब जादू संवादे में बा। रेडियो स्‍टेशन के वातानुकूलित साउंडप्रूफ कमरा में माइक्रोफोन के सामने बईठ के संवाद बोलल आ आवाज के अभिनय कइल एगो बात बा, जन समूह का सामने देह-भंगिमा आ आवाजके अभिनय दोसर बात बा। काश्‍यप जी के 'लोहा सिंह' नाटक के सगरो परिकल्‍पना रेडियो के सीमा में बा - अइसन हमार विचार बा। हो सकेला कि बढि़या निर्देशक के हाथ में पड़ के 'लोहा सिंह' के मंच वाला रूप भी शानदार हो जाव। आखिर प्रसादजी के 'स्‍कंदगुप्‍त' नाटक के ब.व.कारंत जइसन निर्देशक मंचित करिके ई साबित कर देहलें की ना, कि नाटक जेतना नाटककार के विधा ह, ओतने ही निर्देशक के भी।

जइसे 'मधुशाला' से बच्‍चन जी के पीछाना छूटल, ओसहीं 'लोहा सिंह' से रामेश्‍वर सिंह 'काश्‍यप' के पीछा ना छूटल। उहाँ का लिखनीं त बहुत कुछ, लेकिन 'लोहा सिंह' के लोकप्रियता उहाँ के अइसन पीछा करे लागल कि बाकी सब पर लोग के नजर पड़ के भी ना पड़ल। 'लोहा सिंह' उहाँ के पहिचान भी बनल आ कैदखाना भी। अइसन लोकप्रिय आ अमर चरित्र काश्‍यप जी के जदि भोजपुरी नाटक के देन बा त ई एह बात के प्रमाण भी बा कि कइसे एगो जीनियस नाटककार के ई सीमा भी बन गइल। लेकिन एकरा साथे 'लोहा सिंह' के ई श्रेय त दिहले जाई कि भोजपुरी में पहिलका बार सोप आपेरा शैली में एगो नाटक लोकप्रियता के नया आ ऐतिहासिक कीर्तिमान बनवलस अउर भिखारी ठाकुर के नाटकन का सामानांतर आ ओह से बड़ एगो नया नाटक प्रेमी वर्ग पैदा कइलस। भोजपुरी नाटक के लोकप्रिय बनावे में जइसन ऐतिहासिक भूमिका भिखारी ठाकुर आ 'बिदेसिया' के बा, ओइसने मगर अलग ढँग से भूमिका रामेश्‍वर सिंह 'काश्‍यप' आ 'लोहा सिंह' के बा। एगो में लोक नाटक शैली के प्रधानता बा, त दोसरा में लोक शैली के साथे नया माध्‍यम के उपज सोप आपेरा शैली के विशेषता। एगो में भोजपुरी समाज के दु:ख दर्द बा त दोसरका में ओ समाज के मस्‍ती आ जागरूक मन मिजाज। 'लोहा सिंह' का जरिए भोजपुरी नाटक में युगांतर उ‍पस्थित हो गइल। 'लोहा सिंह' भोजपुरी नाटक के ऊ खिड़की रहे जवना से होके आधुनिक नाटक के झोंका भोजपुरी के आँगन में आइल।


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हिंदी समय में गोपेश्वर सिंह की रचनाएँ