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कविता

अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं

फ़िराक़ गोरखपुरी


अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं यूँ ही कभी लब खोले हैं
पहले "फ़िराक़" को देखा होता अब तो बहुत कम बोले हैं

दिन में हम को देखने वालो अपने-अपने हैं औक़ात
जाओ न तुम इन ख़ुश्क आँखों पर हम रातों को रो ले हैं

फ़ितरत मेरी इश्क़-ओ-मोहब्बत क़िस्मत मेरी तन्हाई
कहने की नौबत ही न आई हम भी किसू के हो ले हैं

बाग़ में वो ख़्वाब-आवर आलम मौज-ए-सबा के इशारों पर
डाली डाली नौरस पत्ते सहस सहज जब डोले हैं

उफ़ वो लबों पर मौज-ए-तबस्सुम जैसे करवटें लें कौंदें
हाय वो आलमे जुम्बिश-ए-मिज़गाँ जब फ़ित्‍ने पर तोले हैं

उन रातों को हरीम-ए-नाज़ का इक आलम होये है नदीम
ख़ल्वत में वो नर्म उँगलियाँ बंद-ए-क़बा जब खोले हैं

ग़म का फ़साना सुनने वालो आख़िर-ए-शब आराम करो
कल ये कहानी फिर छेड़ेंगे हम भी ज़रा अब सो ले हैं

हम लोग अब तो अजनबी से हैं कुछ तो बताओ हाल-ए-"फ़िराक़"
अब तो तुम्हीं को प्यार करे हैं अब तो तुम्हीं से बोले हैं


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