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कविता

ग़ैर क्या जानिये क्यों मुझको बुरा कहते हैं

फ़िराक़ गोरखपुरी


गैर क्या जानिये क्यों मुझको बुरा कहते हैं
आप कहते हैं जो ऐसा तो बजा कहते हैं

वाक़ई तेरे इस अन्दाज को क्या कहते हैं
न वफ़ा कहते हैं जिसको न ज़फ़ा कहते हैं

हो जिन्हे शक, वो करें और खुदाओं की तलाश
हम तो इन्सान को दुनिया का ख़ुदा कहते हैं

तेरी सूरत नजर आई तेरी सूरत से अलग
हुस्न को अहल-ए-नजर हुस्ननुमाँ कहते हैं

शिकवा-ए-हिज़्र करें भी तो करें किस दिल से
हम खुद अपने को भी अपने से जुदा कहते हैं

तेरी रूदाद-ए-सितम का है बयाँ नामुमकिन
फायदा क्या है मगर यूँ ही जरा कहते हैं

लोग जो कुछ भी कहें तेरी सितमकशी को
हम तो इन बातों को अच्छा न बुरा कहते हैं

औरों का तजुरबा जो कुछ हो मगर हम तो 'फ़िराक'
तल्ख़ी-ए-ज़ीस्त को जीने का मज़ा कहते हैं

 

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