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कविता

दोस्त

श्रीप्रकाश शुक्ल


१.

वह जो कि एक दोस्त था
बहुत चुप था जब दोस्त था

सोचा कि चलो थोड़ी दुश्मनी ही कर लें
सुन लें उसे भी कुछ कहे जो वह

दोस्त फिर भी चुप रहा
वह बहुत ही तंगदिल निकला
दुश्मनी की सरल भाषा भी नहीं समझता।
२.
कितना अच्छा था कि हमारे बीच एक बात थी
और धरती पर
फिर भी मौन की तरह रात थी

अब जब मौन ही मौन है हमारे बीच
हवाओं में अभी भी घबराहटें हैं
मौसम के अविश्वास की तरह!
३.
संवाद की कितनी दुश्वारियाँ हुआ करती हैं
यह लोकतंत्र से नहीं
दोस्त से पूछो
जो स्वयं लोकतंत्र था
एक लम्बे शिकार पर निकलने से पहले!
   ('ओरहन और अन्य कविताएँ' संग्रह से)

 


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