पिता खिलखिला रहे हैं
भरे खेत की तरह
पूस की धूप में लहलहा रहे हैं
मौसम में हलचल है
शिशिर की छोटी होती देह
अपने गेह के उजाले में किटकिटा रही है
हवा तेज है
पत्तों की पियराती नसों में
माया का मुख लिए
कांप रही है काया
सब जगह बोरसी है, कौड़ा है ,तगाड़ी है
आवाज है ,कोलाहल है ,होड़ा होड़ी है
लेकिन पिता हैं कि अपने मुंह से निकली भाप में ही
अपने गत जीवन की भट्ठी को ताप रहें हैं
सांझ होने को है
कोहरे के उड़ते फाहों से
वातावरण थिर है
और पिता हैं की अलसाई उम्मीदें लिए
अपने बिस्तर की तरफ बढ़ रहे हैं
भीतर कहीं गहरी आश्वस्ति है
एक और दिन बीता
जीवन अभी नहीं रीता