रेत जीवन की हर नाउम्मीदी के खिलाफ एक संभावना है
जितना ही कुरेदो इसको कड़कती है रेत
जितना ही धँसाओ इसमें धधकती है रेत
जितना ही जलाओ इसको गँवई गंध की तरह अकड़ती है रेत। ('रेत में आकृतियाँ' संग्रह से)
हिंदी समय में श्रीप्रकाश शुक्ल की रचनाएँ