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कविता

बेदखल

शेषनाथ पांडेय


अब जब थकी साँसें बची हैं
और गुजरना है जिंदगी के असली इम्तिहान से !
माफ करिएगा
और असली की जगह आखिरी पढ़िएगा
क्योंकि यहाँ मैं कमाकर लिखने और जीने की बात कर रहा हूँ।

खैर ! जब गुजरना है आखिरी इम्तिहान से
तब जरूरी नहीं
मैं उन कड़वी घूँटों की शिनाख्त करूँ
जो तुम्हें पुकारते-पुकारते चीख में बदल गई
मेरी छाती की थकान
वर्षों से मीलों चलते पैरों की कराह में बदल गई

फिर भी यह पूछना पड़ जाता
नदी ने अपना रास्ता बनाया
या मीठी लय में ठुकरा दी गई
कवच युक्त चट्टानों से ?

जो वक्त, जो उम्मीद, जो सपने
खरचने थे अपने कमाने वाले इम्तिहान के लिए
जो दो सुडौल हाथों के रूप में
मेरे शरीर में फँसे रहते हैं
मेरी मर्दानगी को धता बताते
मुझे धिक्कारते, चिढ़ाते

मैं था कि बस देखता था और घूँटता था
बिहार जल रहा था और मेरा राजा चुटकुला सुना रहा था

मेरे सामने रीजनिंग की अबूझ आकृतियाँ तैर रही थीं
और मेरे हाथ राज्य में बहते नरसंहारों को गिनने में लगे रहते

मेरे हाथ मजबूत होते जा रहे थे
मेरी उम्र को जिम्मेदारियों की तरफ झोंका जा रहा था
मेरे पास एक सपना था
सपनों के बाहर एक सरकार थी
सरकार के पास सब कुछ था
मेरा समाज भी और गाँव भी
गाँव में मेरा घर था
मुझे घर बचाने के लिए सरकार के पास जाना था
और सरकार के चुटकुलों के रंग नरसंहार से रँगे थे।

फिर भी मैंने आकृतियाँ सुलझाईं
गणित बनाई, अपनी सरकार की योजनाओं को रट्टा मारा
सिनोनिम, एंटोनिम की घुट्टी ली
और अँग्रेजी पास करने के लिए एक हद तक हिंदी से बचने की कोशिश की
लेकिन जब सरकार के पास गया तो
सरकार ने मेरे रंग देखे, मेरी उम्र देखी
मेरा कद देखा, मेरी पहुँच देखी
और जब मैंने सपनों की बात की तो
अपना चुनावी खर्चा और चुनाव जीतने की रपट मेरे सामने रख दी।

यह मेरी पहली हार नहीं थी
सरकार को जानते हुए भी उससे मिलने की हर तैयारी मेरी हार के हलफनामे थे
मैं लगातार हार रहा था
लेकिन मैं नदी को जानता था
मैं अपना रास्ता तलाशने लगा तो पता चला कि
दिल्ली दूर है जनता से
लेकिन दिल्ली करीब है पटना से
बाथे से दूर नहीं है सेनारी
बहुत दूर नहीं है गोधरा से मऊ
न ही भागलपुर से जबलपुर

न नोवाखली से मुजफ्फर नगर
न कश्मीर से दंतेवाड़ा
और न ही मुंबई से असम

मैने जाना कि -
हथेली में कमल का अनोखा रिश्ता है
हाथी पर लालटेन लिए अपने तरकस में तीर सँभाले
मेरे घर में आग लगा सकता है कोई माननीय
सेटेलाइट के जमाने में साइकिल पर सवार हुए
मेरे गाँव का चाँद चुराने वह आ जाता है देर सबेर

इसी बीच सरकार ने घोषणा की -
'जब नजदीकियों की बात हो रही है
तो क्यों न प्याज और सेब की कीमत को नजदीक कर दिया जाय
अभी मैं इसे एक कर देता हूँ और वादा करता हूँ -
पेट्रोल और पानी को एक दिन करीब कर दूँगा।'

फिर मैं क्या करता
मगध को वैशाली के और करीब कर दिया
भुसावल, हाजीपुर, मुजफ्फरपुर और नासिक को
एक खेत में पाट दिया
अयोध्या को अलीगढ़ से मिला दिया
इलाहाबाद के संगम पर हैदराबाद के चारमीनार को खड़ा कर दिया

करीब करने की लत ऐसी लगी कि
न तो मैं इस देश में कहीं फिट हो रहा था
न ही गाँव, घर, शहर, समाज में

मुझे कहीं फिट होना था
इसलिए दूर रहना चाहते हुए भी उसे करीब कर लिया
यकीन करिए उसे करीब करना, उसे प्यार करना
यानी मेरा प्यार इनसान की स्वाभाविक घटना नहीं थी
हो भी कैसे सकती जिसके पुरखे खुद को जिंदा रखने के लिए

अपनी साँसों से ज्यादा खुद को बदल कर सालों से जीते आ रहे थे
यह तो बस इनसान की जद में शामिल होने की ख्वाहिश भर थी
या एक चाहत कि खुद को सरकार के कंधों पर सर रखने की बजाय
प्रेमिका के सिरहाने पर अपनी टूटती जिंदगी की मौत बिछा दी जाय
या यह एक कोशिश कि सरकार के भौतिक सुखों से अलग
एक ऐसी दुनिया बनाई जाए जो सब सुखों पर भारी पड़ जाए
मेरा प्यार इस समय के सुखों से अलग दुनिया बनाने के सिवा कुछ नहीं है
मेरा प्यार प्यार नहीं
हारने वाले के हत्थे लगा एक धारदार हथियार है

उसके बाद जो होता गया
रोज की तरह दो कदम बढ़ा देता उसकी तरफ
उसे भी चुटकुले पसंद नहीं थे
लेकिन जिम्मेदारियाँ निभाना खूब जानती थी वह
अपनी पसंद की वजह से सरकार की मुखालफत कर रही थी
लेकिन जिम्मेदारियों तले भूल गई कि सरकार द्वारा संक्रमित कोई उसकी तरफ रोज कदम बढ़ा रहा है

नदी से मैं इत्तेफाक रखता था
इसलिए एक दिन नदी मेरे पास आई
मेरी बातों पर किसी को यकीन नहीं होगा
नहीं तो दिखाता उस वक्त को
जब धरती अपन अक्षों के अलावा
कहाँ-कहाँ नहीं झुक जाती
जब मुझे लौट आना होता है
कवचयुक्त मील के पत्थर से

नदी से हुई मेरी बातों पर कोई यकीन नहीं करेगा
नहीं तो बताता नदियों की सागर यात्रा
ठुकराए हुए सफर की दारुण गाथा है
नहीं तो नदी सागर में मिलने के बजाय पहाड़ो से लिपट कर ही रह जाती
मैदानों में बिखर जाती
या चली आती किसी मरुथल की ओर

और क्या यह अच्छा नहीं होता कि मेरी जिंदगी में प्यार एक स्वाभाविक इनसानी घटना की तरह आता
मेरे लिए प्यार धारदार हथियार नहीं कलियों का हार होता
कहीं अपनी तरफ खींचता हुआ कोई समुद्र नहीं होता
कहीं हाहाकारती हुई सरकार नहीं होती
भले ही कोई नदी की बातों पर यकीन ना करे
नदी की पीड़ा उस वक्त हद से गुजर जाती
जब सागर का दानवी खिंचाव
मिलने के लिए हाहाकारता
और नदी अपनी पूरी ताकत से लौट आना चाहती है
अपने पहले कदम की गहराई की तरफ

मैं भी नदी की तरह
सागर के हाहाकार में खींच लिया गया हूँ।
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