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कविता

नस्ल

शेषनाथ पांडेय


 

 

बदरंग सा, बदहवास सा
यह मुल्क जब आजाद सा हुआ था
लोगों ने सोचा वे अपनी आखिरी बदहवासी से बाहर आ जाएँगे
कोई हैवानियत उनका पीछा नहीं करेगी
यह मुल्क लोग नहीं छाँह जनमेगा
कोई आदमी नहीं छाँह मरेगी यहाँ
पर यहाँ तो
नदियाँ पेड़ों की तरह सूख रही थीं
कोई पूछने वाला नहीं था
नर्मदा में क्यों नहीं बह रही है नर्मदा
मैं लोकतंत्र में आस्था रखता हूँ और हथियार लेकर नहीं खड़ा हूँ
फिर भी पूछ सकता हूँ
क्यों अरुंधति राय शोभा डे की तरह चमकीली पार्टियों में नहीं जाती
क्या अरुंधति कम सुंदर है शोभा से

या फिर उनसे खराब लिखती है ?
अंबानी, मित्तल, जिंदल, टाटा, बिरला के देश में
बारह सालों से क्यों भूखी है इरोम शर्मिला
क्या बिहारियों की भरमार ने इरोम को भूखा कर दिया है ?
अट्ठाईस राज्यों, विधायिका, न्यापालिका, कार्यपालिका
जल-थल और वायु सेना से सुसज्जित संसद के रहते
कैसे मार दिए जाते हैं सत्येंद्र दुबे, मंजुनाथ जैसे सरकारी मुलाजिम
क्या इन सरकारी सेवकों को नक्सलियों ने मारा है ?
क्यों आदमी पेड़ों की तरह काटे जा रहे हैं
कटा हुआ आदमी कैसे गा सकता कोई देश भक्ति गीत ?
आप अपनी गरदन काट कर देखिए
फिर कहिए कि कितनी शांति मिल रही है भक्ति गीतों से
जनता बंदा बन के सिसक रही थी|
सरकार खुदा बन के चमक रही थी

ऐसी बदरंगियत में
एक रंग के लिए जंग छिड़ी थी
अँतड़ी में दाने की जगह छुरे डाले जा रहे थे
तड़पते दिल में
दवा की जगह गोली डाली जा रही थी

खून से छींटदार हो रही थी धरती
बदल रहा था पनघट मसान में
मौसम आँसू के सहारे खड़े थे
सरकार अपने लिए मौसम बना कर झूम रही थी
एक बुढ़िया
बेटे के लौट आने की उम्मीद से काँपती हुई खड़ी थी
एक बूढ़ा
बेटे से बेकार होते खोते लड़के के लिए छटपटा रहा था
लड़कियाँ
दूसरों के घरों में जगह पाने व हारने के सहारे खड़ी थी
कई रंग बदरंग हो रहे थे

एक रंग के लिए जंग छिड़ी थी

एक छींटा परिंदे पर भी पड़ा
परिंदे हैरान हो रहे थे
इस हैरानी में वे आकाश के विस्तार में उड़ते रहे
निशान खोजते रहे कि उड़ने में कैसे शामिल हो सकता है खंजर
नीलिमा को सेने में क्या जरूरत है सिकंदर की

परिंदे सीमाओं से अनजान लौट आए
आदमी सीमाएँ खींचने के लिए हवन कर रहा है
जेहाद कर रहा है
आदमी की संसद अफीम से धर्म को बाहर नहीं कर पा रही
अपने-अपने रंगों को पाने में पगलाए आदमी से
क्षुब्ध होने लगे है परिंदे
लुप्त होने लगे हैं परिंदे
आदमी इससे बेपरवाह और बिना उदासी के
अपनी सीमाओं के लिए
अपनी नस्ल के परिंदे तैयार कर रहा है
बचे हुए परिंदे आदमी की नस्ल पूछ रहे हैं।


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