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कविता

शेष

शेषनाथ पांडेय


मेरे स्वप्न की पहले बहुत पहले
हत्या हो गई थी
और अफवाह भी सच बन गई थी
मेरे ख्वाब ने खुदकुशी कर ली थी
मेरा खुदा पलायन कर गया था

अब, मेरे एहसास अपनी हत्या कर लेते हैं
जिन्हें जिंदगी के बरक्स
बोया था सहरा में, कछार में
देखा था लाल रंग के तारों में
जड़ा था जर्द बिंदियों में
क्या कुछ से नहीं रचा था अपने एहसासों को

एहसास, जिन्होंने निर्मित किए थे
एक-से-एक बिंब, उपमान, प्रतिमान
एक लोक, जिसमें झूलता रहा शैवाल की तरह मैं

ये एहसास
अपने अपराधों को रखते हैं जीवित
सहते हैं असहनीय प्रहार
इसे सहने में छूट रही दुनियादारी
टूट रही जिंदगानी

यदि कभी ऐसा होगा
जब नदियों संग कछार की बात की जाएगी
अन्न खोजने, उगाने और खाने के बीच
बनाने की बात होगी
कभी सोचा जाएगा
मटर की पितुही के उग आने में भी
आदमी की देह खत्म हुई है

कभी बदल जाएगा ताकत मापने का यंत्र
और संवेदना पर प्रहार सहना, उससे उबरना
एक ताकत कहलाएगी
तब हो सकता है
वह जरूर याद आए -
जो प्रेम करता है
कविता लिखता है
और बेरोजगार है।


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