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कविता

अपदस्थ

शेषनाथ पांडेय


 

मेरी छटपटाहट में
सिर्फ मेरी हताशा मेरी कुंठा नहीं
ना तेरे दूर जाने की बात
ना ही मेरी नौकरी खत्म होने की

दूब जो
अपने खरगोशी रोएँ की लताओं को लेकर
साझा करती है गिलहरी के रोएँ सी भुरभुरी मिट्टी से
और क्षरण करती है पत्थर के चट्टानी जिस्म को
ढक कर अपने विस्तार से
धता बताती है
पत्थर पर नहीं उग सकते दूब के यथार्थ को
उसी मुलायग दूब पर हो रही ज्यादती की
कुछ आग है मेरी छटपटाहट
कुछ सहना है
पूरवा के पुरवाई को नशीला बताने में
किसान बनिहार बताएँगे
कैसे तड़पते है चैत बैसाख में
जब चलती है पुरवइया
उनकी पकी फसल कच्ची होने लगती है
काटने पर दानों से ज्यादा धुरा निकलते है
दानों का धुरा हो जाना
मेरी छटपटाहट नहीं
रोना है इस बात का
जब दानों का कोई मोल नहीं
तो बेमोल धुरा का क्या सेल
मेरे रहबहर
मेरी असफलता में
सिर्फ मेरी कमजोरी नहीं
ढह जाना है एक पुल का

जो तेरे हाथों से मिलकर बनाए थे


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