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कविता

कहीं तुम भी ?

शेषनाथ पांडेय


भाती है तेरे हाथ की रोटियाँ
कन भी लगता है व्यंजन की तरह
जहान के चेहरों में तू ही नजर आती है

थकन तेरी
ऐंठन बनती है मेरी देह की
तेरे हाथ

मेरे पाँव तले हटती धरती की जमीन बनते हैं

दुनिया के खरोंचे से
जब रहना होता रहा खारा
दूब, शीत, चाँदनी, हवा और तेरे पसीने से पकी बातें
खीर की तरह घुलती रही मेरे स्वादों में

पर वह रास्ता
जो मेरे गाँव के बाहर से कट जाता है
उस रास्ते के पहले ही काँपने लगते है मेरे पाँव
काँपता है मुझे ढोता हुआ टमटम भी
काँपती हैं मेरी साँसे
परछाइयाँ काँपती है
सड़क किनारे कटिनों में जमे पानी में
कि वह रास्ता मेरे स्कूल में जाता है
जहाँ क्लास में मास्टर के आने के साथ
अपने सहेलियों संग
एक दूसरे से छुपती वह आती थी
और जाने के ठीक पहले
भागने जैसे चलते हुए
निकल जाती थी
कि वह... कि वह... कि वह...
उसके साथ, उसके लिए
मेरी दुनिया की दबंगई से हार
हार... हार... हार
एक हारे हुए आदमी
और अपने बेवफा से
कब तक करोगी प्रेम...?

कब तक समझती रहोगी
जयंती एक फूल
मीना एक हिरोइन
कंचन लहलहाती फसलों का ही नाम है

कहीं समझ गई हो
और उस रास्ते की तरह
तुम भी किसी की पराजय का बोर्ड लेकर खामोश बैठी हो
कहीं उसकी तरह तुम्हरा भी चेहरा
उस वक्त को याद करके लाल हो जाता है
जब क्लास से हड़बड़ा कर निकलते समय
तुम्हारे पुराने चप्पल का फीता
तुम्हारे देव के सामने निकल गया था...।

कहीं तुम भी उस वक्त को याद करके ही
तो नहीं सब सह लेती हो
जब फगुनी शिवरात के मेले में
भीड़ के बीच अपने देव के हाथों को दबा के ऐसे खुश हुई थी
जैसे धरती दबा ली हो...

कहीं मेरी तरह तुम भी
कुछ कहने लायक नहीं रह गई हो
कहीं तुम भी सबसे ज्यादा छल
अपने साथ तो नहीं करती हो...?


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