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कविता

उम्मीद

जितेंद्र श्रीवास्तव


कोई किसी को भूलता नहीं
पर याद भी नहीं रखता हरदम

पल-पल की मुश्किलें बहुत कुछ भुलवा देती हैं आदमी को
और वैसे भी जाने अनजाने, चाहे-अनचाहे
हर यात्रा के लिए मिल ही जाते हैं साथी

जो बिछड़ जाते हैं किसी यात्रा में विदा में हाथ उठाए
सजल नेत्रों से शुभकामनाएँ देते
जरूरी नहीं कि वे मिले ही फिर
जीवन के किसी चौराहे पर
फिर भी उम्मीद का एक सूत
कहीं उलझा रहता है पुतलियों में
जो गाहे-बगाहे खिंच जाता है।

जैसे अभी-अभी खींचा है वह सूत
एक किताब खुल आए है स्मृतियों की
याद आ रहे हैं गाँव की पाठशाला के साथी
चारखाने का जाँघिया पहने रटते हुए पहाड़े
दिखाई दे रही है बेठन में बँधी उनकी किताबें

उन दिनों बाबूजी कहते थे
किताबों को उसी तरह बचा कर रखना चाहिए
जैसे हम बचा कर रखते हैं अपनी देह

वे भाषा के संस्कार को मनुष्य के लिए
उतना ही जरूरी मानते थे
जितनी जरूरी होती हैं जड़ें
किसी वृक्ष के लिए

अब बाबूजी की बातें हैं, बाबूजी नहीं
उनका समय बीत गया
पर बीत कर भी नहीं बीते वे
आज भी वे भागते दौड़ते जीवन की लय मिलाते
जब भी चोटिल होता हूँ थकने लगता हूँ
जाने कहाँ से पहुँचती है खबर उन तक

झटपट आ जाते हैं सिरहाने मेरे !


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