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कविता

वह बहुत डरता है

जितेंद्र श्रीवास्तव


यह खड़ी दोपहर है
सूरज चढ़ आया है सिर पर
जबकि लैंपपोस्ट अभी जल रहे हैं सड़कों पर
सरकार अभी सोई है
लाइनमैन परेशान है
वह बुझाना चाहता है सारी बत्तियाँ
लेकिन बत्तियों के बुझने से खलल पड़ेगी

सरकार की नींद में मनचाहे सपनों में
उसे भ्रम हो जाएगा उजाले का

सरकार को रात के उजाले अच्छे लगते हैं
उसे सूरज बिलकुल नहीं सुहात
यह अच्छा है उसका घर बहुत दूर है
वह पहुँच के पार है
अन्यथा राजदंड का भागी होता

लाइनमैन डरता है
बीबी-बच्चों का चेहरा उसकी पुतलियों में रहता है
उसे मालूम है
राजद्रोह सिद्ध करने वालों को
बहुत रास आती हैं व्रिदोहियों की आँखें
वे और ही ढंग से समझते-समझाते हैं
'न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी' का निहितार्थ

घबराया हुआ लाइनमैन इधर-उधर देखता है
अजीब सी झुरझरी उठती है बदन में
माथे से टपक पड़ता है पसीना
अरावली की पहाड़ियों पर झूम कर खिले हुए कचनार
उसमें रंग नहीं भर पाते फागुन का

वह एक साधारण आदमी है
छोटी-सी नौकरी में खुश रहना चाहता है
वह चाहता है बदल जाएँ स्थितियाँ
वह स्वागत करना चाहता है नए उजाले का
लेकिन सरकार की नजर में नहीं आना चाहता
वह बहुत डरता है राजदंड से।


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