भक्ति साहित्य भारतीय भाषाओं के हर एक साहित्य में विद्यमान है। इस साहित्य का अध्ययन रूस और यूरोप के देशों में बीसवीं सदी के बीच में शुरू हुआ था, उज्बेकिस्तान मे इस का अध्ययन बीसवीं सदी में कुछ-कुछ लेखों के रूप में हुआ था। पर बीसवीं सदी के अंत में 'वार्ता साहित्य' के संदर्भ में थोड़ा गहराई से अध्ययन शुरू हुआ। इस में पहला काम 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' पर आधारित ब्रज गद्य पर मैं ने अपना पी-एच.डी. का शोधकार्य लिखा था। इस के बाद मुझे ऐसा लगा था कि अब मैं भक्ति साहित्य को जानती हूँ। लेकिन, आगे चलकर भारत में दूसरे सूत्रों से परिचय प्राप्त करने के बाद मुझे यह पता चला कि मैं भक्ति साहित्य में सिर्फ दरवाजे से अंदर आई। फिर भक्ति साहित्य पर मेरी रुचि बढ़ गई। मैं ने इसे गहराई से अध्ययन करने की इच्छा से 2010 को भारत, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय गई। वहाँ के पुस्तकालय में सुबह से शाम तक बैठकर भक्त और संत कवियों के जीवन और कृतित्व के बारे में पढ़ने लगी। पढ़ते-पढ़ते भक्ति साहित्य के रंग बिरंगे पृष्ठ मेरे सामने खुलने लगे। इस अध्ययन से मुझे एक बात समझ में आई कि भक्ति आंदोलन का इनसान पर (उसके हृदय पर) जो प्रभाव पड़ा (हुआ) जिससे समाज में भक्ति के अलग-अलग रास्ते उभर के आए, जैसे दक्षिण में शिव भक्ति (अप्पार और नयनार), उत्तर में कृष्ण भक्ति और राम भक्ति, रज्जब जी में गुरुभक्ति, आनंदघन जी का 'एकला चलो' और निज आनंद' रामालिंगम स्वामी जी का 'ज्योति के साधक, जैन भक्ति, मलूकदास का मानवता की सेवा भक्ति आदि।
सारे भक्त और संत लोग बाबरी बादशाहों के सल्तनत (मुगल सम्राज्य) में रहते और अपने भक्ति का गुन-गान कहते थे, साथ-साथ सूत्रों से यह भी पता चला कि हर एक बाबरी बादशाह का अपना-अपना मनपंसद भक्त या संत हुआ करता था जिनके साथ वे हमेशा धार्मिक और दार्शनिक विषयों पर वार्तालाप करते थे। भक्ति की शक्ति पर मुझे कट्टर बादशाह के नाम से प्रसिद्ध औरंगजेब की याद आई। औरंगजेब बहुत कट्टर मुसलमान होते हुए भी भक्त और संतों के साथ काफी मिलनसार थे, अपनी रुचि की समस्याओं पर उन के साथ वार्तालाप भी (विचार विमर्श) करता था। इसका एक उदाहरण बलदेव वंशी जी की 'मलूकदास' नामक पुस्तक में मिली। वहाँ औरंगजेब की संत मलूकदास के साथ निर्गुण और सगुण भक्ति पर बातचीत लिखी गई है। इस तरह के उदाहरण मुझे हर एक बाबरी बादशाह में मिले।
भक्तों के साथ संबंध में बादशाह अकबर का नाम विशेष था, जो जैन भक्तों के साथ भी, कृष्ण भक्तों के साथ भी लगातार मिलते रहते थे। 'वार्ता साहित्य' में अकबर के सूरदास और कुंभनदास के साथ मुलाकात के बारे में जानकारी मिली। दूसरी सूत्रों से बादशाह अकबर का जैन भक्तों के साथ अच्छी दोस्ती और जैन धर्म के इज्जत का बहुत अच्छे उदाहरण मिले। हिरविजय सुरि, विजयसेनसूरि, शांति-चंदसूरि, भानुचंदसूरि, जैसा जैन भक्त अकबर के दरबार में ये और अकबर ने उन्हें काफी ऊँचे स्तर के पदों पर रखा था और अपने जैन धर्म की उन्नति के लिए साहित्य सुविधाएँ उन्हें मिलती थी। अकबर की तरफ से उनको कई तरह की उपाधि भी मिलती रहती थी। जैसे सल्तनत की अच्छी सेवा के लिए हिरविजयसुरि को 'जगदगुरु' की, 300 ब्राह्मणों को वाद विवाद में जीतने के लिए विजयसेनासुरि को 'सवाई हिरविजयसुरि' की तथा धार्मिक सिद्धांतों की अच्छी जानकारी के लिए सिद्धिचंद्रसुरि को 'खशफहम' की उपाधि मिली थी। 'आईन अकबर' में भी उच्चे स्तर के विद्वानों की सूची में हिरविजयसूरि, विजयसेनसुरि, भनुचंद्रसुरि जैसे भक्तों का नाम शामिल किए गए थे।
अकबर हर एक धर्म को अपने धर्म जैसी इज्जत देता था। उदाहरण के लिए जैन धर्म के अहिंसा को अमल में इज्जत देने के लिए अपने सल्तनत में साल में हर महीने तक जानवरों का गोश्त खाना मना किया था। हिंदुओं के दशहरा, दीपावली, होली जैसे त्योहारों में बड़ी रुचि के साथ भाग लेता था।
दूसरा उदाहरण, जहाँगीर बादशाह के समय का, जिसके दरबार में भी सत्यविजयीजी, यशोविजयीजी, विजय-अंदसुरि, आनंदघन जैसे जैन भक्त जहाँगीर के सौजन्य में रहते थे। इन में से विजयदेवसुरि से बहुत प्रभावित होकर जहाँगीर ने उन्हें 'जहाँगीरी महाराजा' की उपाधि दी थी। इस तरह भक्ति साहित्य के संबंध सूत्रों से यह पता चलता है कि भक्ति आंदोलन में कृष्ण भक्ति एवं राम भक्ति के आलावा जैन भक्ति की भी काफी उन्नति हुई थी। वे भी बाबरी सल्तनत में, बाबरी बादशाहों के साथ अच्छे व्यवहार में रहकर, भक्ति आंदोलन से प्रभावित होकर अपने जैन धर्म को सुदृढ़ करने में लगे रहते थे। ये सब बाबरी बादशाहों की तरफ से भक्ति आंदोलन के समर्थन का एक अच्छा उदाहरण है।
भक्ति आंदोलन में रज्जब जी जैसा गुरुभक्त, मलूकदास जैसा मानवता की सेवा में लगे, आनंदघन जी जैसे 'निज आनंद' और 'एकला चलो' के रास्ते से चलने वाला या रामलिंग स्वामी की तरह 'ज्योति के साधक' होकर रहनेवाले भक्त या संत भी रहे थे। भक्ति के कई तरह के रास्ते चलनेवाले इन भक्तों के बारे में जानकर बल्लभचार्य जी की वह बात मुझे याद आती है जिसे मैंने वार्ता साहित्य में पढ़ी थी। उसका मतलब ऐसा था 'भक्ति फलदायक रास्ता हैं।'
अंत में यह कहना जरूरी है कि भक्ति आंदोलन का हर एक धर्म के प्रतिनिधियों पर अलग-अलग सा प्रभाव पड़ा - हिंदुओं में यह कृष्ण भक्ति और राम भक्ति, के रूप में, जैन भक्ति में जैन धर्म की उन्नति में, साथ-साथ भक्ति में अपने अलग से निजी रास्तों में चलनेवाले भक्त उभर के आए और उन सब ने मिलकर मानव और जीवन मूल्य को पुर्नस्थापित किया।