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कविता

साहब लोग रेनकोट ढूँढ़ रहे हैं

जितेंद्र श्रीवास्तव


हजारों टन अनाज सड़ गया
सरकारी गोदामों के बाहर"

यह खबर कविता में आकर पुनर्नवा नहीं हो रही
यह हर साल का किस्सा है
हर साल सड़ जाता है हजारों टन अनाज
प्रशासनिक लापरवाहियों से

हर साल मर जाते हैं हजारों लोग
भूख और कुपोषण से
हर साल कुछ लोगों पर कृपा होती है लक्ष्मी की
बाढ़ हो आकाल हो या हो महामारी

बचपन का एक दृश्य
अक्सर निकल आता है पुतलियों के एलबम से
दो छोटे बच्चे तन्मय होकर खा रहे हैं रोटियाँ
बहन के हाथ पर रखी रोटियों पर
रखी है आलू की भुजिया
वे एक कौर में आलू का एक टुकड़ा लगाते हैं
भुजिया के साथ भुने गए मिर्च के टुकड़े
बड़े चाव से खाते हैं
रोटियाँ खत्म हो जाती हैं
वे देखते हैं एक दूसरे का चेहरा
जहाँ अतृप्ति है
आधे भोजन के बाद की उदासी है
उनके लिए जो भोजन था
मालिकों के लिए वो बासी है

बचपन का यह दृश्य
मुझे बार-बार रोकता है
पर सरकारों को कौन रोकेगा
जिनका स्थायी भाव बनते जा रहे हैं देशी-विदेशी पूँजीपति
कौन रोकेगा
हमारे बीच से निकले उन अफसरों को
जो देखते ही देखते एक दिन किसी और लोक के हो जाते हैं

कौन तोड़ेगा उस कलम की नोक
सोख लेगा उसकी स्याही
जो बड़ी-बड़ी बातों बड़े-बड़े वादों के बीच
जनता के उद्धार की बातें करती है
और छोड़ती जाती है बीच में इतनी जगह
कि आसानी से समा जाएँ उसमें सूदखोर

वैसे सरकार को अभी फुर्सत नहीं है
अक्सर सरकार को फुर्सत नहीं होती
लेकिन उसकी मंशा पर शक मत कीजिए
वह रोकना चाहती है किसानों की आत्महत्याएँ
स्त्रियों के प्रति बढ़ती दुर्घटनाएँ
वह दलितों-आदिवासियों को उनका हक दिलाना चाहती है
वह बहुत कुछ ऐसा करना चाहती है
कि बदल जाए देश का नक्शा
लेकिन अभी व्यवधान न डालिए
इस समय वह व्यस्त है विदेशी पूँजीपतियों के साथ
स्थायी संबंध विकसित करने के लिए चल रही एक दीर्घ वार्ता में

यकीन जानिए उसे बिल्कुल नहीं पता
कि बाहर हो रही है मूसलाधार बारिश
और जनता भीग रही है

इस क्षण वह विदेशी मेहमानों के साथ
चुस्कियाँ ले रही है साफ्ट ड्रिंक की
चबा रही है अंकल चिप्स
और बाहर जनता भीग रही हैं
साहब लोक रेनकोट ढूँढ़ रहे हैं
और हजारों-लाखों टन अनाज सड़ रहा है
सरकारी गोदामों के बाहर।

 


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