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आलोचना

अज्ञेय का स्वातंत्र्य - विमर्श

रमेश चंद्र शाह


एक मृषा जिसमें सब डूबे हुए हैं
क्योंकि एक सत्य जिससे सब ऊबे हुए हैं।
एक तृषा जो मिट नहीं सकती, इसलिए मरने नहीं देते
एक गति जो विवश चलाती है, इसलिए कुछ करने नहीं देती।

स्वातंत्र्य के नाम पर मारते हैं, मरते हैं
क्योंकि स्वातंत्र्य से डरते हैं।

{ 'पश्चिम के समूह-जन' }

अच्छी कुंठारहित इकाई
साँचे ढले समाज से
अच्छा अपना ठाठ फकीरी
मँगनी के सुख-साज से

अच्छे अनुभव की भट्टी में तपे हुए कण-दो कण
अंतदृष्टि के
झूठे नुस्खे, वाद रूढ़ि, उपलब्धि परायी प्रकाश से
रूप-शिव, रूप - सत्य की सृष्टि के

स्वातंत्र्य की अभीप्सा और अज्ञेय के व्यक्तित्व और कृतित्व की मूल अभीप्सा और खोज हैं, किंतु यह स्वातंत्र्य कोई पहले से प्रदत्त वस्तु नहीं उसके लिए निरंतर आविष्कार, शोध और संघर्ष अनिवार्य है। स्वयं अज्ञेय के ही शब्द में, 'उस शोध और संघर्ष को ही - स्वाधीनता की अंतहीन ललक को ही - स्वाधीनता का सार-तत्व कह सकते हैं।'अज्ञेय-साहित्य का यह स्थयी भाव है, उसमें निहित विद्रोह और आस्था दोनों का आधार। प्रारंभ में वह एक तरह का अराजकतावादी रुझान झलकाता है, बीच में वह वरण -स्वातंत्र्य और मानवीय कर्म की नैतिकता के प्रामाण्य का उत्तरोत्तर गहराता अनुसंधान है, और अपनी प्रौढ़ -परिपक्व परिणति पर वह संपूर्ण सत्ता की, सत्तामय जीवन की सघन पहचान और सुदृढ़ प्रतीति बन जाता है। अज्ञेय के शब्दों में - 'इसे यों भी कह सकते हैं कि संपूर्ण सत्ता का आदेश ही स्वतंत्रता है : उसके निर्देशन में जीना ही स्वाधीन जीवन है। यहाँ आकर चेतना, 'कांशेन्स' और स्वाधीनता एक हो जाते हैं - चेतन विवेक से निर्दिष्ट होकर जीना है। यह स्वाधीनता निर्भयता की अवस्था है। '

'स्रोत और सेतु नामक अज्ञेय के वैचारिक निबंधों के संग्रह का प्रारंभ ही जिस निबंध से होता है, उसका शीर्षक है : 'मेरी स्वाधीनता : सबकी स्वाधीनता।' इंग्लैंड के एक उद्यान में टहलते हुए अज्ञेय को खुली हरियाली में खड़ा एक अकेला पेड़ दीखा जो उनके लिए मानो बोधिवृक्ष की तरह प्रेरणादायी सिद्ध हुआ। क्या था वह बोध, जो उस 'वृक्ष' ने उनके मन में तत्काल जगाया?

'एक पेड़ - केवल एक पेड़ - लेकिन उसे वह आकार पा लेने दिया था जो प्रकृति ने उसके लिए आयोजित किया था - एक वृक्ष जो अपने आत्यन्तिक वृक्षत्व की चरम संभावनाओं को प्राप्त कर चुका था। वहाँ से स्वाधीनता की एक परिभाषा मुझे मिली जो तब से सर्वदा मेरे साथ रही है। स्वाधीन होना अपनी चरम संभावनाओं की संपूर्ण उपलब्धि के शिखर तक विकसित होना है।'

अज्ञेय के ही कथानुसार ' उस पेड़ को साथ ले आने का मतलब था एक बहुत बड़े बोझ और उत्तरदायित्व को साथ ले आना।' उस महावृक्ष का वाहन होने का अर्थ यह भी था कि उसके बोध के साथ-साथ उन असंख्य बौने और बुच्चे पेड़ों के जंगल का भी बोध भीतर धधक उठता है और छटपटाहट पैदा करता है ... 'तब क्या मैं भी अपने को स्वाधीन मान सकता हूँ?' - अज्ञेय पूछते हैं - क्या कोई अकेला स्वाधीन हो सकता है? देखा जाए तो यह बोध व्यक्तिगत मोक्ष की उस अपर्याप्तता के बोध सरीखा ही है, जिसने 'अवलोकितेश्वर' की अवधारणा को - उसमें निहित महाकरुणा को उकसाया - अपने निजी मोक्ष को तब तक स्थगित कर देने के लिए - जब तक सभी को मुक्ति नहीं मिल जाती। अज्ञेय स्वयं आगे कहते हैं कि 'ठीक यहीं पर स्वाधीनता का ऐसा बोध मानो तपस्या की यंत्रणा बन जाता है क्योंकि वह मानव मात्र की समान स्वाधीनता के प्रयत्न की अनिवार्यता बन जाता है।'

इसी संदर्भ में अज्ञेय ने एक जगह कहा है कि वे कभी ऐसा सोचते थे कि करुणा से व्यक्ति की कर्म की स्वाधीनता खंडित हो जाती है। पर अब वैसा नहीं सोचते।...'आज वयस्कता में जो जानता हूँ, वह इससे भिन्न है, अधिक सत्य है।... स्वाधीनता की सच्ची कसौटी 'मैं' नहीं 'ममेतर' है। वैज्ञानिक की स्वाधीनता सत्य के शोध की स्वाधीनता है किंतु कलाकार की स्वाधीनता में अनिवार्यता मूल्य के शोध की स्वाधीनता भी शामिल होनी चाहिए। जिसका अर्थ फिर यह हो जाता है कि साहित्यकार ऐसे समाज में स्वाधीन नहीं हो सकता जो समाज स्वाधीन नहीं है।'

'स्रोत और सेतु' में ही एक और लेख है - 'समय परिवेश की राजनीति।' इसमें अज्ञेय ने उस पाखंड को उघाड़ा है जिसके चलते हम एक ही साँस में विकेंद्रीकरण और सांस्कृतिक वैविध्य की बड़ी-बड़ी बातें भी कर सकते हैं और भारतीय जीवन में भारतीय भाषाओं को उनका उपयुक्त स्थान देने से इनकार भी करते रह सकते हैं। एक ओर कड़वी - खरी बात भी कह देना वह जरूरी समझते हैं कि 'हमें मानव-जीवन के संपूर्ण राजनैतिकीकरण का विष -व्यूह तोड़ना है, असली चुनौती तो वही है।' उसी सिलसिले में गांधी के जीवन और कर्म की प्रखर प्रासंगिकता का भी बड़ा सटीक और मार्मिक बखान उन्होंने किया है जिसे यहाँ उद्धृत करना जरूरी लग रहा है। अज्ञेय कहते हैं :

'महात्मा गांधी के जीवनकाल में उनके राजनीतिक आंदोलन की कई प्रवृत्तियों का मैं कटु आलोचक रहा किंतु मैं समझता हूँ जीवन के संपूर्ण राजनैतिकरण के दुष्परिणामों को गांधी जी अच्छी तरह समझते थे। इस लिए उनका राजनीतिक चिंतन सदैव राजनीति को व्यपकतर धार्मिक और आध्यात्मिक संदर्भो से भी जोड़ता रहा। ... आज के बौद्धिक के लिए इसमें एक बड़ा आदर्श और गहरी शिक्षा निहित है। ...बौद्धिक स्वातंत्र्य का दावा न केवल शुद्ध राजनीतिक दावा नहीं है, बल्कि हमें उसे राजनीतिक दावा बनने भी नहीं देना चाहिए। यह दावा राजनीतिक संदर्भ से बड़ा है क्योंकि स्वाधीनता राजनीतिक स्वातंत्र्य से बड़ी है। बौद्धिक को और विशेष रूप से सर्जनशील कलाकार को केवल राजनीतिक स्वतंत्रता का दावा न करके कला-जगत की स्वायत्तता का दावा करना है, जो दावा और जिसके लिए किया गया संघर्ष राजनीति से बड़ा हो जाता है।' (स्रोत और सेतु पृ. 130-134)

हम देख सकते है कि स्वतंत्रता अज्ञेय के लिए केवल अनेक मूल्यों में से एक मूल्य नहीं है, बल्कि अन्य सब मूल्यों की आधारभित्ति है। वह मानव की मानवता का प्रमाण है। उसका सृजनशील होना वस्तुतः यह प्रमाण देते रहना ही है। किंतु आज के युग की विडंबना यह है कि इतने सर्वव्यपी और सार्वकालिक मूल्य को एकमात्र राजनीतिक संदर्भ में घटाकर संकुचित कर दिया गया है। इस विडंबना का क्या इलाज है? स्वतंत्रता को पुनः परिभाषित करने की इस दुर्निवार्य चुनौती के सामने खड़े अज्ञेय को साफा दिख जाता है कि विकास - क्रम में पाये हुए मूल्य के रूप में स्वतंत्रता की परिभाषा हमें बहुत दूर नहीं ले जा सकती। विकासवादी व्याख्या पर्याप्त नहीं है। आखिर इसी बीसवीं सदी में ही श्री अरविंद के लिए कैसे संभव हुआ कि वे विकासवाद आदि अत्याधुनिक विचारधाराओं को स्वीकार करते हुए मानवात्मा के स्वाधीन कर्तव्य से उसका बखूबी सामंजस्य बिठा सके और मानव की भविष्यत् संभावनाओं का एक प्रगतिशील और आत्मातिक्रामी दर्शन भी प्रस्तुत कर सके - अपने 'मानव-चक्र' (ह्यूमन साइकिल) नामक महत्वपूर्ण ग्रंथ में। अज्ञेय के स्वाधीनता दर्शन के विकास में यह तथ्य बहुत महत्व रखता है कि वे भी विकासवादी चौखटे को लाँघकर मानव-स्वातंत्र्य के आध्यात्मिक आधार और आयाम को उत्तरोत्तर अधिकाधिक स्पष्टता से पहचानते जाते हैं। तभी तो वे कह सकते हैं कि -

'भारत ही एक ऐसा देश है और भारतीय संस्कृति ही ऐसी संस्कृति, जिसमें आरंभ से ही संस्कृति की परिभाषा को लेकर उठ खड़े होने वाले राजनीतिक बनाम आध्यात्मिक के विवाद का निराकरण हो गया है।...भारतीय दृष्टि से संस्कृति के क्षेत्र में 'धार्मिक बनाम लौकिक ' जैसा कोई विरोध -संबंध बनता ही नहीं था, उसका सार्थक होना तो दूर की बात। दूसरी ओर पश्चिम के चिंतन में आरंभ से ही 'रेलीजियस बनाम सेक्यूलर' अथावा 'सैक्रेड बनाम प्रोफेन' का बुनियादी द्वंद्व रहा।' ...

इसका अर्थ यह हुआ कि स्वातंत्र्य -दर्शन का सबसे गहरा और व्यापक आधार भारतीय संस्कृति में उसके मूलोद्गम पर ही विद्यमान है - आध्यात्मिक आधार, जो धार्मिक बनाम लौकिक के विरोध से मुक्त और परे है। निश्चय ही, जैसा कि उस 'पेड़' के साक्षात्कार से कवि ने पहचाना था, स्वतंत्रता के इस दर्शन में - 'ममेतर' की स्वतंत्रता के समान अधिकार की पहचान और उसका स्वीकार भी अनिवार्य हो जाता है। यहीं पर व्यक्ति और समाज के संबंध का और उसे नियंत्रित करने वाली व्यवस्था का प्रश्न उठता है। सब कुछ का राजनीतिकरण क्या हमारे बुद्धिजीवियों के लिए उस तरह चिंता का विषय है जिस तरह वह अज्ञेय के स्वातंत्र्य - विमर्श में है? जरा देखें तो सही, अज्ञेय इसी सिलसिले में आगे क्या कहते हैं :-

'...उन्नीसवीं शती के उत्तरार्द्ध में पश्चिम की पहली प्रतिक्रिया के रूप में देश में एक सांस्कृतिक पुनरूज्जीवन की पौ फटती दीखी थी। गांधी जी के युग में निरी प्रतिक्रिया से आगे बढ़कर हम सांस्कृतिक पुनरूज्जीवन की धनात्मक अवधारणा भी करने लगे थे, अपनी प्रत्यभिज्ञा की देहरी पार करने के लिए पैर उठा रहे थे कि वहीं हम जड़ हो गए। पिछले पचास वर्षों में देश में आर्थिक उन्नति हुई, बड़ा औद्योगिक विकास हुआ, विश्व - मंच पर भारत एक महत्वपूर्ण शक्ति के रूप में भी जाना जाने लगा है, लेकिन व्यापकतर मानवीय संदर्भ में हमें मानना होगा कि आज हमारे पास न कोई विश्व-दर्शन है, न कोई आत्म-दर्शन। (स्रोत और सेतु, पृ. 238)

क्या अज्ञेय की यह आलोचना व्यक्ति, समाज और व्यवस्था के स्वस्थ संबंध की यथातथ्य पहचान में से ही नहीं निकल रही है? आखिर अज्ञेय आजीवन साहित्य की स्वायत्त गरिमा पर क्यों इतना बल देते रहे? इसीलिए न, कि ... 'रचनात्मक कर्म के लक्ष्य राजनीति से बड़े होते हैं और इसलिए दमन के युग में वही रचनाएँ बच जाती हैं, जिन्हें झुकाया या तोड़ा नहीं जा सकता, वे रचनाएँ होती हैं, जिन्होंने केवल राजनीतिक प्रतिबद्धता के कारण अपने को पंगु या वध्य नहीं बना लिया होता। उनकी प्राणवत्ता का स्रोत बहुत गहरा होता है। राजनीति उस गहराई तक पहुँच नहीं सकती कि उसे अवरूद्ध कर सके। '... तो, क्या उस स्रोत की पहचान और जतन करना ही साहित्यकार और बुद्धिजीवी के रूप में हमारा कर्तव्य नहीं होना चाहिए? बड़े खेद की बात यह है कि हिंदी की वर्तमान साहित्यिक दलबंदी में तो अज्ञेय के इस स्वातंत्र्यनिष्ठ जीवन-दर्शन और शब्द -साधना का अनवरत विरोध होता ही रहा, गतानुगतिक-रीढ़विहीन विश्वविद्यालयी हल्कों में भी उसकी उपेक्षा और अपव्याख्या निर्बाध चलती रही। मात्र इस कारण, कि अज्ञेय निरंतर अपनी इस निष्ठा पर दृढ़ रहे कि .. अन्याय का मुकबला करने का बल साहित्य की राजनीतिक प्रतिबद्धता से नहीं, बल्कि किसी भी प्रतिबद्धता के अस्वीकार से आता रहा है।' मात्र इसलिए, कि उन्होंने स्वतंत्र व्यक्ति और स्वतंत्र वर्धनशील समाज के संबंध को राजनीति से कहीं अधिक विस्तृत और गहरे आयाम में - समूची मानव-संस्कृति में व्यप्त देखा-दिखया और अपनी इस निष्ठा को चरितार्थ भी किया कि 'स्वतंत्रता मानव -मन का नहीं, मानव-आत्मा का कुसुमन है (अज्ञेय के शब्द)'?

यहाँ थोड़ा ठहरकर आधुनिक भारत ही क्यों, आधुनिक विश्व के भी एक सर्वथा मौलिक और अंतदृष्टि-संपन्न विचारक की 'अत्यंत महत्वपूर्ण और विचारोत्तेजक कृति 'मानव-चक्र' का थोड़ा हवाला देना प्रस्तुत विषय के संदर्भ में उपयोगी होगा। इस विवेचना में श्री अरविंद मानव-समाज की प्रगति के विभिन्न सोपानों का उल्लेख करने के बाद भारत के अपने समकालीन युग को 'व्यक्ति-प्रधान युग' निरूपित करते हैं - अर्थात रूढ़ि प्रधान युग के विरूद्ध प्रगति का युग। इससे पूर्व के रूढ़ी -युग की व्याख्या करते हुए भारत के संदर्भ में वे दर्शा चुके हैं कि 'संतों' और धार्मिक सुधारकों की प्रेरणा कितनी ही शक्तिशाली क्यों न हो, काल-गति के प्रभाववश उनका प्रभाव क्षीण होने लगता है।' गौर करने लायक है कि ठीक यही बात तुलसीदास ने भी 'मानस' में किसी पात्र के मुँह से कहलाई है : 'काल सुभाउ करम बरिआई / भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाई।' आगे श्री अरविंद कहते हैं :-

'यह पतनोन्मूखगति हमें भारत के पिछले एक हजार वर्षों में उसकी बढ़ती हुई अंधकारमय अवस्था तथा असहायता में दिखाई देती है। शक्तिशाली महापुरूषों के सतत प्रयत्नों ने लोगों की आत्मा को तो जीवित रखा, परंतु प्राचीन स्वातंत्र्य -शक्ति की धारा को - उसके सत्य और ओज को वे पुररूज्जीवित नहीं कर सके, न ही दुष्प्रभावो से अभिभूत - जड़ीभूत समाज को सचमुच पूरी तरह जगा सके। कुछ ऐसी ही प्रक्रिया यूरोप की धर्म-परंपरा तथा कैथलिक संप्रदाय के बार-बार के नैतिक अधःपतन में दिखाई देती है। तब फिर एक ऐसा समय आता है जब सत्य और रूढ़ि के बीच की खाई असह्य हो उठती है और बौद्धिक शक्तिसंपन्न व्यक्तियों का प्रादुर्भाव होता है। ये स्वातंत्र्यचेता प्रबुद्ध व्यक्ति साँचे ढले रूपों और रूढ़ियों का दृढ़तापूर्वक प्रतिकार करते हुए मानवात्मा के बंदी गृह की भित्तियों पर प्रहार करते हैं और अपनी स्वाधीन मनीषा, नैतिक आदर्शवादिता तथा भाव-ऊर्जा के बूते फिर से उस सत्य की खोज एवं प्रतिष्ठा करते हैं जिसे समाज विस्मृत कर चुका होता है। तभी धर्म, विचार और समाज-निर्माण के व्यक्ति-प्रधान युग की सृष्टि होती है, तर्क तथा विद्रोह के युग का, प्रगति तथा स्वातंत्र्य -चेतना के युग का आरंभ होता है।'

अनंतर श्री अरविंद इस सोपान की भी सीमाओं का उद्घाटन करते हुए आगामी अनुभव प्रधान युग का संकेत करते हुए एक नवीन आवर्तनशील विकास-क्रम को स्वायत्त करने की बात करते हैं, जिसका उनके कथानुसार, 'अब उदय हो रहा है और जो मानव की अंतरात्मा आध्यात्मिक, कलात्मक, बौद्धिक और नैतिक प्रगति को समग्रता में चरितार्थ करना चाहता है।'

नए भारत की, स्वाधीन भारत की जो छवि अज्ञेय की कविता में प्रकट होती है, वह भी एक पश्चिमी तर्ज के प्रजातंत्र की अनुकृति भर नहीं है। श्री अरविंद जिस तरह मानवात्मा की प्रगति में पश्चिमी विचारों के योगदान को सराहते - स्वीकारते हुए भी भारत की अपनी सुदीर्घ साधना के मर्म को, उसके आत्मनिर्भर नियति -बोध को समूची मानवता के संदर्भ में दृढ़तापूर्वक थामे रहने के संकल्प से प्रेरित थे उसी तरह अज्ञेय की 'जनवरी छब्बीस' कविता भी कहती

है :-

किंतु रूपाकार यह केवल प्रतिज्ञा है
उत्तरोत्तर लोक का कल्याण ही है साध्य
अनुशासन उसी के हेतु है।

कवि अपने देशवासियों का आह्वान करता है - 'अपने उसी धुँधले युगों के स्वप्न की शोध में बढ़ चलने के लिए।' क्या है वह स्वप्न? वही मनुष्य की छवि जो अपनी दिव्यता की अनुभूति कर सकता है और इसी बूते अभयचेता स्वातुत्र्य की साधना में प्रवृत्त हो सकता है। बौद्धिक घृणा और प्रतिबद्धतापूर्ण व्यवसाय को जन्म देने वाली, तथा विश्व का अवधारणात्मक वशीकरण करके स्वयं को कृतकृत्य समझ लेने वाली मनोवृत्ति वह नहीं है। वह उस 'नर' की छवि है जिसकी आँखों में 'नारायण की व्यथा' भरी है। प्राण की वही छटपटाहट, जो कवि को सार्थक विद्रोह के लिए प्रेरित करती थी, वही उस आस्था को भी संभव करती है जो कवि से कहलवाती है : -

है राह कुहासे तक ही नहीं,
पार देहरी के है।
मैं हूँ तो वह भी है।

'मैं जीना चाहता हूँ' - इसका अज्ञेय की दृष्टि में मानव के लिए जो अर्थ है, वह यही है कि मैं स्वाधीन रहना चाहता हूँ : 'समाज से' स्वाधीन नहीं, बल्कि समाज में स्वाधीन, क्योंकि समाज भी स्वाधीनता के शोध और प्रयत्न के लिए रचा गया साधन ही है। अज्ञेय जानते थे कि 'श्रद्धा के' क्षेत्र के प्रश्नों का उत्तर विज्ञान नहीं दे सकता - ठीक वैसे ही, जैसे विज्ञान के क्षेत्र के प्रश्नों का उत्तर श्रद्धा से नहीं मिलता।' अज्ञेय की मानववादी आस्था का उल्लेख तो बहुत होता है किंतु ध्यान देने की बात यह है कि अज्ञेय की प्रश्नाकुलता का स्वरूप और विकास -क्रम क्या है। किस तरह वह क्रमशः गहराती जाती है और किस तरह वह पारंपरिक श्रद्धा - बुद्धि के तात्त्विक आधार को आधुनिक संवेदन और आधुनिक बुद्धि के धरातल पर अपनी तीक्ष्णतम अनुभूतियों की शब्दावली में स्वायत्व करने का उपक्रम करती है। परमात्मा को अमान्य कर देने पर आत्मा को मानने का आधार नहीं रहता और विवेक, अंतरात्मा की आवाज आदि भी सापेक्ष हो जाते हैं - इस कठिनाई का सामना करते हुए, अज्ञेय इस निष्कर्ष तक पहुँचते हैं कि 'मानवतावाद परलोकवाद का खंडन करता है, धर्म का नहीं।' मानव अपने से बड़े मूल्य का स्रष्टा है- इस विरोधाभासी प्रतीति में ही आवश्यक नैतिकता का मूल प्रश्न और उसका उत्तर भी मिल जाता है, ऐसा उनका सोचना था। यह भी, कि इन मूल्यों में भी सबसे प्रमुख मूल्य 'वरण की स्वतंत्रता ' का मूल्य है।

इस संदर्भ में अज्ञेय के चिंतन का आगे भी विस्तार होता है। 'भविष्य और साहित्य' पर विचार करते हुए अज्ञेय पाते हैं कि 'आशा का आधार कवि अथवा सर्जक में नहीं, स्वयं भाषा में है।' यों तो मनुष्य के सबसे बड़ी उपलब्धि भाषा है और वहीं से उसने स्वातंत्र्य की प्रथम अनुभूति पाई, यह तो अज्ञेय पहले ही कह चुके थे। अब, मगर वे जोर देकर एक नई बात उचारते है कि 'मनुष्य शायद भाषा की शक्ति का स्रष्टा नहीं है, केवल उसका आविष्कर्ता है। भविष्य के लिए आशा उस शक्ति की प्रत्यभिज्ञा में ही है। वह पहचान अगर है तो मनुष्य में ऐसा क्या है कि जिसके लिए हम उसी को बचाने की चिंता करें?

अज्ञेय के एतद्विषयक चिंतन का सर्वाधिक परिपक्व रूप 'स्मृति के परिदृश्य ' शीर्षक दो व्याख्यानों में उजागर हुआ है। यहाँ अज्ञेय पाते हैं कि 'भारत में धर्म न केवल सांस्कृतिक आधार है, बल्कि जिसे आधुनिक अर्थ में संस्कृति कहा जाता है, वह धर्म के अनुष्ठान पक्ष का एक विस्तार ही रही। ईसाइयत एक प्रवर्तक और एक आदि बिंदु से जुड़ी है। भारत में धर्म का स्वरूप बिल्कुल भिन्न है। ईसाई मत जिस तरह की ऐतिहासिकता का दावा करता है, वैसा दावा भारतीय संदर्भ में कोई अर्थ नहीं रखता। इसलिए भारतीय सभ्यता में एक बहुकेंद्रिकता रही, जिसके कारण ऐतिहासिकतावाद से आक्रांत होकर भी वह अपनी अस्मिता को टूटने से बचा सकी।'

आगे अज्ञेय कहते है कि स्मृति ही वह गतिशील सर्जनात्मक तत्व है,जो काल इतिहास, साहित्य और हाँ भाषा के भी नए परिदृश्य रचता जाता। मगर त्रासदी यह है कि आधुनिक जीवन की प्रवृत्तियाँ स्मृति के परिदृश्य को लगातार छोटा करती जाती है। निपट वर्तमान की संकुलता इस कदर हावी हो जाती है कि हमें न स्मरण के लिए समय मिले, न हमारी चेतना ही उधर प्रवृत्त हो पाए। अज्ञेय के सामने तब प्रश्न उठता है कि 'भाषा, अनुभव और स्मृति के इस अनवरत दरिद्रीकरण में साहित्यकार का क्या कर्तव्य बनता है?' इसका उत्तर उन्हीं के शब्दों में यह है कि - 'हमारी स्मृति के परिदृश्य उस बिंदु से बनते हैं जिस पर हम खड़े होते हैं। किसी भी देश का साहित्य उस देश के द्रष्टाओं द्वारा स्वीकृत और प्रतिष्ठापित परिदृश्यों को प्रस्तुत करता है। उनकी स्मृतियों का सर्जनात्मक संप्रेषण करता है। तो हमारी प्रामाणिकता ही कसौटी' का क्षेत्र यही है, जहाँ ये सारे परिदृश्य टकराते हैं।'

स्मृति की सत्ता की यह नई पहचान, नया बोध जहाँ अज्ञेय के चिंतन में नया आयाम जोड़ता है, उनके स्वातंत्र्य -दर्शन को भी नया विस्तार देता है, वही उनके कवि-कर्म को भी एक नया खुलापन देता है। 'ऐसा कोई घर आपने देखा है' नामक अंतिम संग्रह की रचनाएँ और अप्रकाशित 'मरूथल' सीरीज की कविताएँ इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। खास तौर पर 'आर्फेउस' नाम की काव्य-श्रृंखला, जिसके पीछे कार्यरत अंतःप्रक्रिया पर उक्त व्याख्यानोंसे प्रकाश पड़ता है। तनिक ध्यान दें, कवि-चिंतक अज्ञेय की इस साखी पर :-

'कवि को मिलने वाला आलोक दिव्य इसलिए है कि वह स्मृति का आलोक है और वह स्मृति तर्कातीत है। स्मृति के परिदृश्य इतिहास के परिदृश्य नहीं हैं, बल्कि इतिहास से मुक्ति के परिदृश्य हैं। यह दिव्य प्रकाश तथ्यों को मूल्यों से वेष्टित करता है। कवि के लिए यह मुक्त करने वाला मूल्य ही केंद्रीय तत्व है और उसी के आसपास सारा संसार घूमता हैं। ... इसी बोध का प्रकाश कवि की भाषा को अपूर्वानुमेय बना जाता है। अन्यथा तो भाषा एक सामाजिक समय है : समाज में संप्रेषण का आधार वही हो सकता है जो पूर्वानुमेय है... पर सर्जनात्मक भाषा अपूर्वनुमेय होती है, बंधनों से मुक्त करती है और मुक्ति के नए गलियारे उद्घाटित करती है।'

स्पष्ट ही, 'मुक्ति के नए गलियारों 'की यह पहचान अज्ञेय के स्वातंत्र्य -विमर्श में एक नया अध्याय जोड़ती है। उन्हें अपनी अवस्थिति की पहचान थी, जैसी कि बिरले ही लेखकों को हुआ करती है। उन्होंने इस त्रासद तथ्य को भी रेखांकित किया है कि 'हमारे अनुभव का प्रसार बहुत अधिक फैल गया है, लेकिन उस अनुभव का सार-तत्व लगातार सिकुड़ता गया है।' इसीलिए बीसवीं सदी के पश्चिमी साहित्य में मिथकीय परिवेश में जीने के प्रयत्न की मूल्यवत्ता बखूबी पहचानी जा सकती है। उसके पीछे उन्हीं के द्वारा 'संवत्सर' व्याख्यानमाला में अभिव्यक्त इस सत्य की गूँज भी सुनाई देती है कि 'अनुभव का कालातीत या शाश्वत आयाम मनुष्य की आवश्यकता है। नहीं तो उसका जीना, उसका व्यक्तित्व और उसकी अस्मिता काल के बिकाऊ यांत्रिक रूप से आहत होकर नष्ट हो जाएगी।'

टी. एस . एलियट ने एक जगह साफ कबूल किया है कि 'भारतीय दर्शन का अवगाहन करते हुए एक बिंदु ऐसा आया, जब मुझे लगा कि अब इससे आगे बढ़ा तो मैं कहीं अपनी यूरोपियन अस्मिता को ही न गँवा बैठूँ।' क्या अज्ञेय को भी कभी पश्चिम के धर्म-दर्शन के भीतर गहरे पैठते हुए खुद अपनी सांस्कृतिक अस्मिता खो बैठने के भय ने सताया होगा? उसी शताब्दी में श्री अरविंद और महात्मा गांधी ने पाश्चात्य संस्कृति के भीतर कितनी गहरी डुबकी लगाई थी। वे तो अपनी अस्मिता खोने के बदले उसे नए सिरे से परिपुष्ट करके लौटे। क्या अज्ञेय के बारे में भी यही सच नहीं है, जो युवावस्था में सचमुच के स्वतंत्रता - सेनानी होने के साथ-साथ प्रौढ़ावस्था में अपनी सांस्कृतिक परंपरा के सर्वोच्च मूल्य 'आत्म-प्रतिष्ठित स्वातंत्र्य' के भी सहज उन्मेष्टा और अनूठे सर्जक-चिंतक भी बने?

जब तक नहीं पालूँगा अपने से इतर अपने को कैसे होगी मुझे अपनी भी पहचान?

यह बात इस तरह टी. एस. एलियट नहीं कह सकते थे। यह केवल आधुनिक भारतीय कवि अज्ञेय ही कह सकते थे। यह भी, कि -

कितनी दूर जाना होता है पिता से
पिता जैसे होने के लिए।


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