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आलोचना

दहकती धरती पर चिंतन-बीज-मंत्र-अज्ञेय

श्रीराम परिहार


सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' के साहित्य-व्यक्तित्व ने गहरा प्रभाव भारतीय साहित्य पर छोड़ा है। उनके साहित्य-चिंतन में संस्कृति, समाज, क्षणवाद, व्यक्तिवाद, प्रकृति, परंपरा और सौंदर्य के गाढ़े रूपायन हैं। अज्ञेय का कवि निश्चित रूप से बड़ा है, लेकिन उनका गद्यकार भी अपने विस्तार में उतना ही गहरा और टटका है। अज्ञेय का निबंध-साहित्य सर्जनात्मकता से जुडी परिधियों का नवीन क्षितिज खोजता है। वे साहित्य, संस्कृति और समाज की अंतःप्रकृति और परिवर्तन की मूल अंतःऊर्जा पर नए संदर्भों के साथ बात करते हुए पाठक को अनेक संदर्भों से मुक्त करते हैं। छायावाद के बाद भारतीय काल - चिंतन, रूढ़ि, परंपरा, सौंदर्य-प्रतिमान, कला के उद्देश्य, मिथक-अस्तित्व, शब्द की केंद्रीय भूमिका पर अपनी जड़ों से उखड़े आलोचकों-चिंतकों-सर्जकों के बौद्धिक -सर्कस से नवीन किंतु ओछी अवधारणाओं के छाये कुहासे को अज्ञेय 'त्रिशंकु' के निबंधों में बहुत हद तक दूर करते हैं। उनके संदर्भों में साहित्य - चिंतन के साथ गहरा आत्म-मंथन है। वे अपने चिंतन में प्रकृत - भावभूमि पर विचरण करते हुए व्यक्ति-जीवन और साहित्य के मूल प्रश्नों को पाश्चात्य प्रभाव से मुक्त करते हैं।

अज्ञेय की कृति 'शाश्वती' के एक कथन के माध्यम से ही विमर्श को आगे बढ़ाते हैं - 'मानव जब अवधारणा शक्ति पा कर, भाषा पा कर, आत्मचेतन होकर अपूर्वानुमूय हो जाता है, तभी वह साथ और उसी मात्रा में सामाजिक भी हो जाता है। पूर्वानुमान से परे चले जाना स्वाधीन हो जाना है, पर उसी के साथ और उसी मात्रा में सामाजिक हो जाना भी है।'1 अज्ञेय मानव के आत्मचेतन और सामाजिक को इस कथन में जोड़कर देखते हैं। मानव के आत्म चेतन का विस्तार शब्द की दुनिया में साहित्य की बस्तियाँ बसाता है। 'साहित्य का संस्कृति और समाज - परिवर्तन की प्रक्रिया में कोई योगदान होता है या नहीं?' वे इस प्रश्न के उत्तर को बहुत अलग किंतु प्रामाणिक ढंग से खोजते हैं। वे साहित्यकार की समाज परिवर्तन में 'एक्टिविस्ट' की भूमिका को सिरे से नकारते हैं - 'आज साहित्यिक रचना और सामाजिक परिवर्तन में जैसा सीधा समीकरण बनाया जा रहा है, उसे मैं बिल्कुल अस्वीकार करता हूँ। समझता हूँ कि पिछले लगभग पचास वर्षों से इस तरह का सीधा संबंध बनाने और सिद्ध करने का जो एक प्रयत्न होता रहा है, उसने साहित्य का बहुत अहित किया है।'2 वे साहित्यकार की अपेक्षा साहित्य में अंतर्निहित मूल्यों की शक्ति को संस्कृति और समाज-परिवर्तन की प्रक्रिया में प्रमुख मानते हैं - 'आधारभूत मूल्य तो ये हैं, जिन्हें सर्जक-साहित्यकार की अंतदृष्टि समय-समय पर या बार-बार देख लेती है, दिखा देती है, उसके आलोक में सारा परिदृश्य बदल जाता है और सारी व्यवस्थाएँ, सारा समाज, सारी बिरादरियाँ अपनी कर्म-प्रवृत्तियों को फिर से देखने को बाध्य हो जाती हैं।'3 वे इस संबंध में अपनी स्थापना करते हैं- ' कुछ साहित्य समाज को बदलने का काम आ सकता है, लेकिन श्रेष्ठ साहित्य समाज को बदलता नहीं, उसे मुक्त करता है। फिर उस मुक्ति में समाज के लिए - और हाँ, संस्कृति के लिए, मानव मात्र के लिए - बदलाव के सब रास्ते खुल जाते हैं'।4

डॉ. कृष्णदत्त पालीवाल द्वारा संपादित पुस्तक 'साहित्य-संस्कृति और समाज परिवर्तन की प्रक्रिया' का दूसरा निबंध है - 'कला का स्वभाव और उद्देश्य'। इसमें कला को लेकर अज्ञेय का एकदम भिन्न दृष्टिकोण उजागर हुआ है। 'कला सामाजिक अनुपयोगिता की अनुभूति के विरुद्ध अपने को प्रमाणित करने का प्रयत्न-अपर्याप्तता के विरुद्ध विद्रोह - है।'5 इसी परिभाषा में अज्ञेय का कला के प्रति एकदम नया सौंदर्यबोधी चिंतन जीवन के क्षेत्र - विस्तार के परिप्रेक्ष्य में विश्लेषित होता हे। वे कहते हैं - 'हमारे कल्पित' 'कमजोर' प्राणी ने हमारे कल्पित समाज के जीवन में भाग लेना कठिन पाकर, अपनी अनुपयोगिता की अनुभूति से आहत होकर, अपने विद्रोह द्वारा उस जीवन का क्षेत्र विकसित कर दिया है - उसे एक नई उपयोगिता सिखाई है - सौंदर्य-बोध। पहला कलाकार ऐसा ही प्राणी रहा होगा, पहली कलाचेष्ठा ऐसा ही विद्रह रही होगी, फिर चाहे वह रेखाओं द्वारा प्रकट हुआ हो, चाहे प्रणी द्वारा, चाहे ताल द्वारा, चाहे मिट्टी के लोंदों द्वारा।'6 अज्ञेय के अनुसार कला के प्रस्फुटन के कारण - केंद्र में 'अपर्याप्तता' की भावना ही रहती है, जो व्यक्ति से विद्रोह करवाती है।यह विद्रोह ही कला-आयामों को उत्पन्न कर व्यक्ति को संपूर्णता की ओर ले जाता है। यह व्यक्ति की अपने को सिद्ध प्रमाणित करने की चेष्टा है। उसे अज्ञेय ने अंततः एक प्रकार का आत्म दान स्वीकार किया है। यहीं अज्ञेय कला के संदर्भ में उदात्त भाव का प्रतिपादन करते हुए आत्मदान, नैतिकता और स्वांतः सुखाय को सेतुबंध करते हैं।

'रूढ़ि और मौलिकता' पर अज्ञेय का चिंतन भारतीय धरातल पर खड़े होकर तर्क सम्मत ढंग से नई स्थापनाएँ करता है। जिस रूढ़ि और परंपरा को बिना गहराई से समझे अस्वीकार किया जाता रहा है, उसे अज्ञेय कलाओं की सर्जन-प्रक्रिया और अनुभव-सिद्धि हेतु अनिवार्य मानते हैं। रूढ़ि का उन्होंने उदार और विशालतर अर्थ लेते हुए उसकी साधना साहित्यकार के लिए वांछनीय ही नहीं : साहित्यिक प्रौढ़ता प्रप्त करने के लिए अनिवार्य भी सिद्ध की है। 'साहित्यकार के लिए आवश्यक है कि साहित्य में और जीवन में 'आसीत' का और 'अस्ति' का जो 'अचिर' हो गया है, उसका और जो 'चिर' है उसका, और इन दोनों की परस्परता, अन्योन्याश्रयता का, ज्ञान उसमें बना रहे।'7 अज्ञेय प्रत्येक रचना और कलावस्तु में पूर्व परंपरा का सन्निवेश पाते हैं। प्रत्येक कवि और कलाकृति की पड़ताल करते समय उसके पूर्ववर्ती साहित्यकारों और कवियों - कलाकारों के संबंधों की जाँच करेंगे। 'कोई भी कलावस्तु चाहे कितनी भी नई क्यों न हो, ऐसी वस्तु नहीं है, जो अकस्मात् अपने - आप घटित हो गई है, वह ऐसी वस्तु है, जो अपने-आप में नहीं, अपनी पूर्ववर्ती तमाम कला-वस्तुओं की परंपरा के साथ घटित हुई है।'8 इस तरह वे साहित्य और कला के अनुभव-स्रोत में समय-समाज की क्रियात्मक गतिमानता को अवस्थित पाते हैं। इस निरंतरता में अंकन, मूल्यांकन के साथ नए का अंकुरण और विस्तार की प्रक्रिया निरंतर रहती है। वे स्पष्ट कहते हैं - 'प्रत्येक नई रचना के आते ही पूर्ववर्ती परंपरा के साथ उसके संबंध, उनके परस्पर अनुपात और सापेक्ष मूल्य अथवा महत्व का फिर से अंकन हो जाता है, तथा 'पुरातन' और 'नूतन', 'रूढ़' और 'मौलिक', 'परंपरा' और 'प्रतिभा' में एक नया तारतम्य स्थापित हो जाता है।'9 वे रूढ़ि और परंपरा के प्रति विद्रोह का साकारात्मक रूप इसमें पाते हैं कि हम अपने को परंपरा के आगे जोड़ दें। वे परंपरा की विकसित परिभाषा करते हैं - 'वह वर्तमान के साथ अतीत की संबद्धता और तारतम्य का नाम है।'10

अज्ञेय भारतीय वाङमय और संस्कृति के अवधूत - अध्येता हैं। उनके अध्ययन की सरणियाँ प्रश्न-प्रति - प्रश्न में खुलती चलती हैं और बुद्धि तथा हृदय की आपसदारी के साक्ष्य में उत्तर को प्रस्तुत करती हैं। बातचीत की शैली में प्रश्न और परिस्थिति का परिचय होता है और समाधान की राह स्पष्ट होती जाती है। निबंध-शैली का इसे एक नयापन भी कहा जा सकता है। वे निबंधों में उन तत्वों को नए छोर से उठाते हैं, जिन्हें साहित्यिकों-आलोचकों ने नए-साहित्य की बिरादरी से बाहर ढकेलने की कोशिश की। 'सौंदर्य-बोध और शिवत्व-बोध' की विमर्श - परिधि में वे साहित्य में मूल्य, उक्ति वैचित्र्य, रूपवाद, शब्द की महात्ता और भाषा की उपादेयता के प्रश्नों से नए कोणों से टकराते हैं और परंपरा - प्रसूत किंतु संतुष्टिकारक समाधान खोजते हैं। इस रूप में एक तरह से वे भारतीय वाङमय की चिंतन - प्रक्रिया और साहित्य के कालजयी निकषों का समर्थन और पोषण करते हैं। 'मूल्यों का प्रश्न केवल आचार्यों के लिए महत्व रखता हो, ऐसा नहीं, साहित्य के प्रत्येक अध्येता के लिए यह एक गुरूतर प्रश्न है और लेखक के लिए तो उसकी मौलिकता असंदिग्ध है, क्योंकि कृतिकार अपनी कृति का सबसे पहला और कदाचित् सबसे अधिक निर्मम परीक्षक है।'11

अज्ञेय ने सौंदर्य - बोध को बुद्धि का व्यापार माना है। बुद्धि ही सौंदर्य - तत्वों की बुद्धि ही सौंदर्य - तत्वों की पहचान करती है। उन तत्वों की कसौटी मानव का अनुभव है। अतः वे बुद्धि और अनुभव का एक रिश्ता उजागर करते हैं। एक पारस्पिरिकता रेखांकित करते हुए 'बुद्धि और हृदय' की विपरीतताओं पर केंद्रित बहस को निरस्त करते हैं तथा आचार्य रामचंद्र शुक्ल की अवधारणा 'यात्रा के लिए निकलती रही है बुद्धि किंतु हृदय को साथ लेकर' का एक तरह से विस्तार करते हैं। नए आलोचकों ने साहित्य में उक्ति की वक्रता को रूपवाद से अभिहित करते हुए उसे छिछला साहित्यिक कर्म सिद्ध करने की 'चार्वाक कोशिश' की। अज्ञेय वक्रता के सौंदर्य को प्रकृति और जीवन की मूल लय अथवा रिद्म की संपृक्ति अनुभव करते हुए कहते हैं-' लयात्मकता कला का अथवा सुंदर का एक मूल गुण है, तो क्या यह अपाने अनुभूत सत्य का निरूपण ही नहीं है? इस प्रकार हम मानते हैं कि सीधी रेखा सुंदर नहीं होती, वक्र रेखाएँ सुंदर होती है : यहाँ क्या फिर हम अपना अनुभव नहीं दुहरा रहे हैं? हमारे अंगों का कोई भी सहज निक्षेप वक्रता ये गोलाई लिए होता है - अबोध शिशु भी जब हाथ-पैर पटकता है, तो मंडलाकार गति से - सहज गति सीधी रेखा में होती नहीं, और रेखा में अंग-संचालन अत्यंत क्लेश-साध्य होता है। अतः वक्रता को कला गुण या सौंदर्य-तत्व मानने में हम फिर अपना अनुभव दोहरा रहे हैं। गोचर अनुभाव का कार्य - कारण-ज्ञान के सहारे (बुद्धि द्वारा) प्राप्त किया हुआ निचोड़ ही हमारे सौंदर्य-बोध का आधार है और चित्र या मूर्ति में जो रेखा की वक्रता है, अर्थात् जो दृश्य, स्पृश्य अथवा स्थूल है, वही यदि काव्य में आकर उक्ति की वक्रता का परम सूक्ष्य रूप ले लेती है, तो क्या हमारी बुद्धि उसे पकड़ नहीं सकती? गोचर अनुभव से पाया हुआ सूक्ष्म बोध क्या वहाँ हमारा सहायक नहीं होता?12 यह कला के द्वारा आनंद प्राप्ति का और हमारे उन्नयन का सहज उपक्रम है। अनुभव, बुद्धि, विवेक निरंतर विकासशील हैं।

सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय अपनी निबंध-कृति 'आत्मनेपद' में संगृहीत 'भारतीयता' नामक निबंध में काल की अवधारणा के आलोक में बहुत महत्वपूर्ण बात कहते हैं - 'भारतीयता का पहला लक्षण या गुण है सनातन की भावना, काल की भावना, काल के आदि-हीन, अंत-हीन प्रवाह की भावना-और काल केवल वैज्ञानिक दृष्टि से क्षणों की सरणी नहीं, काल हमसे, भारतीय जाति से, संबद्ध विशिष्ट और निजी क्षणों की सरणी के रूप में'13 अपनी इस सम्मति का विस्तार 'काल का डमरू-नाद' निबंध में वे करते हैं। देश और काल के बीच ही सारा सौंदर्य-विधान है। काल की लधुतम इकाई 'क्षण' की निरंतरता और अजस्र अनवरतता काल की अखंडता और अनंतता का मूलाधार है। 'क्षण' इसलिए महत्वपूर्ण है कि वह काल का अत्यल्प हिस्सा होते हुए भी काल के वैराट्य और निस्सीमता का बीज है। 'क्षण' काल का 'अणु' है। जिस 'क्षण' की महत्ता वात्स्यायन जी काल - प्रवाह और काल-सिंधु के लिए प्रदर्शित करते हैं, उसी क्षण को अनुभूति की सफलता और उपलब्धि के लिए भी साहित्यायन में अनिवार्य आसन देते हैं। वे काल को डमरू के प्रतीक से व्याख्यायित करते हैं। डमरू का कटि-बिंदु वर्तमान है और उसके दोनों भाग अतीत-भविष्य। काल चक्राकार है। इसी बिंदु पर वे अपने चिंतन का विस्तार करते हैं। 'काल का वृत्त भी और उस पर डमरू द्वारा प्रतीकित क्षण-चेतना भी जो अतीत - वर्तमान-भविष्यत् की नित्य - श्रृंखला स्वीकार करती हुई भी अपनी दृष्टि के केंद्रित कर रही है उस क्षण पर ही जो यथाशक्य छायारहित क्षण है - स्तृति और आकांक्षा दोनों के संस्पर्श से यथासंभव मुक्त है। यह एक निरवधि, प्रवहमान अस्ति है - प्रत्यावर्ती सनातन काल के चक्र पर अविखंडनीय कालाणुओं का अजस्र क्रम।'14 (देखिए संदर्भित ग्रंथ में चित्र क्र. 9)

अज्ञेय विज्ञान, पुराण और रचनाकर्म के अंतःसंबंधों और अंतःक्रियाओं के बारे में सुचिंतित विवेचन करते हैं। उनका निबंध 'वैज्ञानिक सत्ता, मिथकीय सत्ता और कवि' विज्ञान मिथक और रचना के वास्तविक और सही अर्थ का स्थापन करता है। वे चार बुनियादी प्रश्नों को उठाते हुए उनकी विश्लेषण परिधि में सनातन अवधारणाओं से लेकर वर्तमान तक की मनीषा - धरोहर को पाँखुरी-पाँखुरी खोलते हुए सँवारते हैं। वे प्रश्न हैं - सृष्टि कैसे हुई? पर्यावरण कैसे बना? समाज कैसे बना? मैं इसमें कहाँ हूँ - मैं कौन हूँ? ये चार बुनियादी प्रश्न हैं। मिथक इन प्रश्नों के उत्तर खोजता है और विज्ञान भी। लेकिन दोनों की समान प्रश्न-भूमि पर भी आगे चलकर दोनों के रास्ते भिन्न हो जाते हैं - 'पुराण की यात्रा में एक यात्रांत भी है, क्योंकि वह एक निश्ययात्मक प्रतीति चाहता है, एक ध्रुव विश्वास, जिसमें जिज्ञासा का शमन हो जाता है, दूसरी ओर विज्ञान का कोई यात्रांत नहीं है, कोई मंजिल नहीं है बल्कि क्षितिजों का एक क्रम है। विज्ञान मूल प्रश्नों की ओर लौटता नहीं क्योंकि यात्रा के दौरान प्रश्न रूपांतरित हो चुके होते हैं।' 15 मूल चार प्रश्नों का कर्त्ता मनुष्य ही है। वह उत्तर खोजी प्रक्रिया में कवि के रूप में जब प्रस्तुत होता है, तो विज्ञान और मिथक द्वारा प्रतिपादित तथ्यों, विश्वासों, अभिप्रायों से संपृक्त होता हुआ अपनी दृष्टि विकसित करता है। एक ऐसी सम्यक् दृष्टि जो दोनों को जोड़ सके।

अज्ञेय व्यक्ति की, रचनाकार की स्वाधीनता को उसके दृष्टि - विकास में आधारभूत कारक स्वीकार करते हैं। व्यक्ति या रचनाकार अपनी दृष्टि या किसी भी चीज के लिए उत्तरदायी तभी हो सकता है, जब वह स्वाधीन कर्मी हो। अज्ञेय स्पष्ट करते हैं कि यदि व्यक्ति स्वाधीन नहीं है, उसे किसी चीज के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता। 'सिर्फ स्वाधीन कर्मी होने के दावे के साथ ही मैं यह कह सकता हूँ कि यह मेरा 'कर्म' है। अगर मैं स्वाधीन नहीं हूँ, तो जो कुछ है वह मैंने नहीं किया है, चाहे वह मेरे ही निमित्त से हुआ, और जब मैंने नहीं किया, तो उसके लिए मैं उत्तरदायी नहीं हूँ। उत्तरदायी होने के लिए पहली शर्त स्वाधीन होना है।'16 अज्ञेय अपने निबंध - 'आँखों देखी और कागद लेखी 'में व्यक्ति की स्वाधीनता का धर्म के संदर्भ में विवेचन करते हैं। भारतीय धर्म ने स्वाधीनता का वातावरण दिया। भारतीय धर्म का आधार किसी विश्वास की रूढ़ी नहीं, आचरण रहा हे। लिखते हैं - 'किसी मतवादी रूढ़ि से अलग धर्म की उद्भावना मैं संसार को भारतीय चिंतन की बहुत बड़ी देन मानता हूँ। संसार के किसी भी धर्म ने मनुष्य के मानस को उतनी स्वाधीनता का वातावरण नहीं दिया, जितना भारतीय धर्म ने, किसी ने स्वस्थ जीवन की उतनी गहरी नींव नहीं डाली, जितनी भारतीय धर्म ने। अवश्य ही इस समझ तक पहुँचने में मुझे समय लगा और यह भी नहीं कि यात्रा में मैंने ठोकरें नहीं खाईं। लेकिन यहाँ तक पहुँचकर मुझे जो सुख मिला है, उसे वे ही लोग समझ सकते हैं जो निष्ठापूर्वक तीर्थयात्रा कर के घर लौटते हैं।'17 सनातन धर्म सनातन मूल्यों पर आधारित, जिसके सत्य, ऋत्, तप, दान आदि मूल तत्व हैं। भारतीय लोक जीवन में इसीलिए ऋतुओं और प्रकृति का अटल और सघन स्थान है।

अपने 'शब्द, मौन, अस्तित्व' निबंध में वे स्पष्ट कहते हैं - 'मेरी खोज भाषा की खोज नहीं है, केवल शब्दों की खोज है। भाषा का उपयोग मैं करता हूँ, निस्संदेहः लेकिन कवि के नाते जो मैं कहता हूँ, वह भाषा के द्वारा नहीं, केवल शब्दों के द्वारा।' 18 वे विश्वस्त हैं कि 'केवल सही शब्द मिल जाएँ तो' भाषा का सही कलात्मक स्वरूप बनता है जो संप्रेषण में सहायक होकर आनंदानुभूति कराता है। 'जोग लिखी' संग्रह के 'उन्मेषशालिनी प्रतिभा' नामक निबंध में कवि प्रतिभा, ममेतर के संदर्भ में संप्रेषण का महत्व प्रतिपादित करते हुए वे कहते हैं - 'मैं निरपवाद रूप से मानता हूँ कि समस्त रचनाकर्म में दूसरे तक पहुँचना एक अनिवार्य प्रेरणा है। रचना मात्र का लक्ष्य आनंद है,और यह आनंद अभिव्यक्ति का नहीं, संप्रेषण का है। ' 19

'नदी के द्वीप' कविता और उपन्यास के माध्यम से अज्ञेय का व्यक्तिवादी -सामाजिक चिंतन स्फुरित हुआ है। समाज-चिंतकों ने भी व्यक्ति को उसकी केंद्रापसारी शक्तियों के साथ ही सामाजिक दायित्वों के बीच खड़ा पाया है। व्यक्ति एक इकाई है, लेकिन सामाजिकता और सामूहिकता के सर्जन में एक-एक मिलकर दहाई बनने की शक्ति- गतिशीलता भी उसमें है। 'आत्मनेपद' में उनका वक्तव्य है - ' व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिंब भी, पुतला भी, इसी तरह वह अपनी जैविक परंपरा का भी प्रतिबिंब और पुलता है - जैविक सामाजिक के विरोध में नहीं। ... वह निरा पुलता, निरा जीव नहीं, वह व्यक्ति है, बुद्धि-विवेक संपन्न व्यक्ति।' 20

वात्स्यायन जी के पास सौंदर्य की अखंड दृष्टि है। उनके पास अनुभूति की सघनता जितनी गहरी और प्रशांत है, अभिव्यक्ति उतनी ही तीव्रतर और नव्यतन है। अणु-अणु, तृण-तृण, किरन-किरन, बिंदु-बिंदु में तरलायित और आलोड़ित सौंदर्य को निसर्ग और मनुष्य के भीतर स्थिर गतिमय सौंदर्य की अखंडता में समर्पित उनकी 'असाध्य वीणा' बजती है।

'हरी घास पर क्षण भार' बिरमकर, बैठकर, समाधिस्थ होकर अज्ञेय का प्रज्ञान सृष्टि और मानव की अंतः प्रक्रियाओं और अनुभूति संज्ञान को साहित्य में प्रत्ययीभूत कर सका है। यह चिंतन अंत में आर्ष अनुभव के क्षेत्र में प्रवेश कर जाता है।

घर के भीतर प्रकाश हो। इसकी मुझे चिंता नहीं,
प्रकाश के घेरे के भीतर। मेरा घर हो।
इसी की मुझे तलाश है।
               (ऐसा कोई घर देखा है आपने।)

संदर्भ :

1. शाश्वती - अज्ञेय - पृष्ठ- 38

2. साहित्य, संस्कृति और समाज परिवर्तन की प्रक्रिया - सं. कृष्णदत्त पालीवाल - पृष्ठ-27

3. साहित्य, संस्कृति और समाज परिवर्तन की प्रक्रिया-सं. कृष्णदत्त पालीवाल - पृष्ठ-27

4. साहित्य, संस्कृति और समाज परिवर्तन की प्रक्रिया - सं. कृष्णदत्त पालीवाल - पृष्ठ-41

5. त्रिशंकु - अज्ञेय - पृष्ठ - 26

6. त्रिशंकु - अज्ञेय - पृष्ठ - 29

7. त्रिशंकु - अज्ञेय - पृष्ठ - 34

8. त्रिशंकु - अज्ञेय - पृष्ठ - 35

9. त्रिशंकु - अज्ञेय - पृष्ठ - 35

10. त्रिशंकु - अज्ञेय - पृष्ठ - 44

11. साहित्य, संस्कृति और समाज परिवर्तन की प्रक्रिया - सं. कृष्णदत्त पालीवाल - पृष्ठ-61

12. साहित्य, संस्कृति और समाज परिवर्तन की प्रक्रिया - सं. कृष्णदत्त पालीवाल - पृष्ठ-63

13. आत्मनेपद - अज्ञेय - पृष्ठ - 100

14. साहित्य, संस्कृति और समाज परिवर्तन की प्रक्रिया - सं. कृष्णदत्त पालीवाल - पृष्ठ-78

15. साहित्य, संस्कृति और समाज परिवर्तन की प्रक्रिया - सं. कृष्णदत्त पालीवाल - पृष्ठ-83

16. जोग लिखी - अज्ञेय - पृष्ठ - 15

17. जोग लिखी - अज्ञेय - पृष्ठ - 30

18. जोग लिखी - अज्ञेय - पृष्ठ - 106

19. जोग लिखी - अज्ञेय - पृष्ठ - 63

20. आत्मनेपद - अज्ञेय - पृष्ठ - 71


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