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आलोचना

अज्ञेय का भाषा चिंतन

चित्तरंजन मिश्र


व्यक्तित्व और सर्जना का जैसा प्रेरक और आश्चर्यचकित करने वाला वैविध्य अज्ञेय के यहाँ है, वह हिंदी साहित्य के परिदृश्य में अन्यत्र दुर्लभ है। कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना, निबंध के साथ साहित्य की अन्य विधाओं में भी मानदंड स्थापित करने वाली रचनाओं का सृजन एक ओर तो, क्रांतिकारी जीवन, का वरण करते हुए अमर शहीद भगत सिंह को छुड़ाने का प्रयत्न, बम बनाते हुए गिरफ्तारी, दिल्ली जेल की काल-कोठरी, लाहौर किले और अमृतसर की हवालात में लगभग चार वर्षों का बंदी जीवन, असम वर्मा-फ्रंट पर सेना में नौकरी, सप्तकों का संपादन, दिनमान, साप्ताहिक-हिंदुस्तान, प्रतीक जैसी पत्रिकाओं की शुरुआत, 'शेखर : एक जीवनी' जैसे उपन्यास का सृजन और कविता की धारा को नवता से जोड़ने का, नई प्रतिभाओं को सामने लाने के लिए अनेक मंचों और संस्थाओं की स्थापना करते हुए इनमें विपुल साहित्य का सृजन अज्ञेय जैसे प्रतिभा संपन्न, विलक्षण चिंतक अथक उद्यमी व्यक्तित्व के यहाँ ही एक साथ संभव हुआ है। सृजन के प्रति इतनी गहरी आस्था कि अपने-अपने अजनबी की योके सोचती है - 'ईश्वर भी शायद स्वेच्छाचारी नहीं है - उसे भी सृष्टि करनी ही है, क्योंकि उन्माद से बचने के लिए सृजन अनिवार्य है' - यह महत्वपूर्ण उपपत्ति अज्ञेय के समूचे व्यक्तित्व और लेखन के केंद्रीय सरोकार की तरह है।

अज्ञेय के निबंधों का विषय क्षेत्र भी विविधता की उनकी अपरिहार्य नियति का ही प्रतिरूप है। उन्होंने मानवीय विवेक, गरिमा और चेतना की स्वाधीनता को निर्मित और प्रभावित करने वाले सभी संभव अनुषंगों को अपने विचार का विषय बनाया है। इन निबंधों में एक उत्तरदायी प्रबुद्ध संवेदनशील सर्जक की मानसिक यात्रा की उलझनें भी हैं, ठहराव भी हैं और लक्ष्य तक पहुँचने की हड़बड़ी दिखाए बिना लक्ष्य की सार्थकता के प्रति एक सतत, जिज्ञासा भी है, जो इस मानसिक यात्रा को रुकने नहीं देती। त्रिशंकु (1945) से लेकर मृत्यु के बाद प्रकाशित निबंध संग्रह छंदा (1989) तक के निबंधों में अज्ञेय ने साहित्य, भाषा, संस्कृति, जीवनमूल्य, इतिहास-बोध, परंपरा आधुनिकता, समाज, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, भारतीयता, यांत्रिकता, सूचना और संप्रेषण आदि विषयों पर, जीवन-द्रव्य को निर्मित और प्रभावित करने वाले संदर्भ में गहनतर विचार किया है। मानवीय व्यक्तित्व के आहत और क्षरित होने की स्थितियों पर जितनी उदग्रता और संयत प्रतिरोध अज्ञेय के निबंधों में है वह अलग से अपने अध्ययन और विश्लेषण की माँग करता है। स्वाधीनता और सर्जनात्मकता पर अत्यधिक बल देने के कारण नितांत तात्कालिकता में जीने और सोचने वालों के जितने दुष्प्रचार और आक्रमणों का सामना अज्ञेय को करना पड़ा उनकी निरर्थकता को बदले हुए समय ने स्वतः प्रमाणित कर दिया है।

अज्ञेय के रचना-मानस का निर्माण रूढ़ि की हद तक संस्कारी पारिवारिक परिवेश और स्वाधीनता की गहरी आकांक्षा से प्रेरित संघर्षरत समाज के बीच हुआ था, इस लिए उनके समूचे रचना-व्यवहार में रूढ़ियों एवं वर्जनाओं के प्रति गहरी विद्रोह भावना तथा स्वाधीनता की चेतना का समावेश है। औपनिवेशिक मूल्यों एवं अवधारणाओं की गिरफ्त में फँसे हुए समाज में उत्पन्न हुई स्वाधीनता की आकांक्षा भारतीय चेतना के इतिहास का एक नया अध्याय लिख रही थी। अज्ञेय का समूचा चिंतनपरक और विश्लेषणात्मक लेखन या तो स्वाधीनता की आकांक्षा की अभिव्यक्ति या स्वाधीनता के मूल्य को आत्मसात करके उसे आचरण का हिस्सा बनाने वाले नागरिक विवेक के सृजन की चेष्टा है। जिन प्रत्ययों एवं अवधारणाओं ने हमारी गुलामी की जड़ों को गहरा किया था उन सबको नए सिरे से स्वाधीनता के नव आलोक में समझना और समझाना चेतना की स्वाधीनता के लिए आवश्यक था। चेतना की इस स्वाधीनता, सर्जना, संस्कृति, भाषा जैसे विषयों को अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए निबंधों में मानवीय गरिमा से जोड़ा।

मानवीय व्यक्तित्व की व्याख्या के लिए अज्ञेय ने भाषा को अनिवार्य तत्व माना है। भाषा उनके लिए माध्यम नहीं अनुभूति है। आत्मनेपद में अज्ञेय ने लिखा - 'मैं उन व्यक्तियों में से हूँ - और ऐसे व्यक्तियों की संख्या शायद दिन-प्रतिदिन घटती जा रही है - जो भाषा का सम्मान करते हैं और अच्छी भाषा को अपने आप में एक सिद्धि मानते हैं।' अज्ञेय जी के लिए अच्छी भाषा की अच्छाई का मतलब ऐसी भाषा से है जो परिष्कृत होने के साथ अनुभूति से भी अद्वैत स्थापित करने में समर्थ हो। उनका यह मत मात्र भाषा के बारे में सिद्धांत-निश्चय तक सीमित नहीं है, बल्कि उनकी रचना-भाषा के संदर्भ में पूरी तरह चरितार्थ होता है।

भाषा और संस्कार के परस्वावलंबन पर भी अज्ञेय ने बहुत विचार किया है। वे मानते हैं कि भाषा भी एक संस्कार है, वह हमारी सबसे पुरानी परंपरा भी है। 'भवंती' में उनका यह विचार मुखर हुआ है जहाँ वे कहते हैं, 'यह कहने के लिए कि हम परंपरा से मुक्त हैं, भाषा का उपयोग करना कितनी बड़ी विडंबना है। भाषा हमारी सबसे पुरानी, सबसे कड़ी अनुल्लंघनीय सांस्कृतिक रूढ़ि है : अपने दावे के लिए उसका सहारा लेना - और दावे के लिए भाषा अनिवार्य है - सिद्ध कर देता है कि दावा बेमानी है। या एक तरह की मुक्ति उनकी है जिनके पास संस्कारी भाषा नहीं है। जिस हद तक उनकी भाषा खिचड़ी या अनगढ़ है उस हद तक उनके संस्कार भी अनगढ़ या खिचड़ी हैं' ठीक इसी संदर्भ में रचना - भाषा के बारे में विचार करते हुए भाषा-व्यवहार के सबसे समर्थ प्रयोक्ता 'कवि' के संदर्भ में उनका मानना है कि वह परंपरा को निरंतर नया रूप देता रहता है और परंपरा में से कुछ को छोड़ता है कुछ को जोड़ता हुआ वह नया होता चलता है। वे कहते है कि 'कवि शब्द का संस्कार ग्रहण करता हुआ - और शब्द को निरंतर नया संस्कार देता हुआ - भाषा की रूढ़ि से मुक्ति होता चले, शब्द के संस्कार बदलता भी चले और भाषा की रूढ़ि बदलता भी जाए और तोड़ता भी चले। हर अच्छा कवि यह करता भी है। यही भाषा का आर्ष प्रयोग है : जहाँ भाषा की रूढ़ि टूट गई है, परंतु शब्द का संस्कार और समृद्ध हो गया है।'

उपर्युक्त उद्धरणों से गुजरते हुए कोई भी अनुभव करेगा कि अज्ञेय के लिए भाषा मात्र भावों और विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं है, वह सिर्फ उच्चारण अवयवों द्वारा उच्चरित ध्वनि प्रतीकों की एक व्यवस्था भी नहीं है, बल्कि उनके लिए भाषा मनुष्य के मनुष्य होने की पहचान और शर्त है। अज्ञेय जी मानते हैं कि भाषा ही वह सीढ़ी है जिसे पार करके पशु मनुष्य बनता है, मनुष्यत्व प्राप्त करता है। अवधारणा करने की शक्ति और उनके साथ साथ यह प्रश्न पूछने की शक्ति कि मैं कौन हूँ या क्यों हूँ, यही मनुष्यत्व की पहचान है और भाषा में ही, भाषा से ही, संभव है। बिना यह विवेक अर्जित किए कि वह अपने बारे में प्रश्न पूछ सके, कोई भी समाज अपनी अस्मिता की पहचान नहीं कर सकता। इसलिए कहा जा सकता है कि अज्ञेय जी के लिए भाषा अपने आप को पहचानने का साधन है। यदि किसी समाज को उसकी भाषा से काट दिया जाता है तो इतना ही नहीं कि उससे एक भाषा छीन कर उसे दूसरी भाषा में डाल दिया जाता बल्कि उसकी अस्मिता को खंडित कर दिया जाता है और एक समाज के रूप उसके अस्तित्व, उसकी अस्मिता तथा उसकी स्वाधीनता को भी बाधित किया जाता है। अज्ञेय के समूचे चिंतन और सृजन के केंद्र में स्वाधीनता का जो मूल्य है, उसको बनाने बचाने और निरंतर बचाए रखने में सबसे महत्वपूर्ण चीज भाषा ही है। हिंदी के एक साधक के रूप में अज्ञेय ने स्वीकार किया है कि जैसा संबंध मैं अपनी भाषा से जोड़ता और निभाता हूँ दूसरी सभी भाषाओं के बोलने वालों का अपनी-अपनी भाषाओं के प्रति वैसा ही मनोभाव रखने का अधिकार स्वीकार करता हूँ।

अज्ञेय जी मानते है कि भाषा सिर्फ हमारे अस्तित्व की, हमारी अस्मिता की पहचान नहीं कराती है बल्कि हमारे भीतर एक मूल्यबोध का सृजन भी करती है। मनुष्य शेष प्राणियों से इसलिए भी अलग है कि वह सिर्फ जीवन को जीता नहीं है बल्कि जीने का कोई आधार भी खोजता रहता है। ये आधार ही हमें मूल्य-बोध से जोड़ते हैं, और आदमी की भाषा में यह मुहावरा चल पड़ता है कि मैं इस मूल्य के लिए जीता हूँ। तो भाषा की एक शक्ति और उसका महत्व इसमें भी है कि वह इसमें मूल्यबोध का एक आधार हमें देती है। मनुष्य ही भाषा के सहारे अपने जीने के ऐसे आधार-मूल्य बनाता है जिसे वह अपने जीवन से भी बड़ा मान लेता है, और जिनके लिए वह जीवन को न्यौछावर करके संतोष का अनुभव करता है। यह विशेषता मनुष्य की हो सकती है कि वह अपने जीवन को दिशा देने, नियंत्रित, निर्देशित करने के लिए, कुछ मूल्यों की सृष्टि करता है, उन्हें जीवन से बड़ा मान लेता है, और उनकी रक्षा के लिए अपने को मिटा देने को प्रस्तुत रहता है। अज्ञेय जी मानते हैं कि यह शक्ति मनुष्य को भाषा से ही मिलती है। भाषा मनुष्य को मनुष्य बनाती ही है उसे उच्चतर लक्ष्यों तक की यात्रा के लिए अंतःप्रेरणा भी प्रदान करती है।

अज्ञेय जी की दृष्टि में उचित ही स्वाधीनता का गहरा संबंध भाषा से है। कोई भी देश या समाज अपनी स्वाधीनता की रक्षा और स्वाधीन जीवन मूल्यों का निर्वाह यही अर्थों में अपनी भाषा के व्यवहार के द्वारा ही कर सकता है। कोई भी समाज, यदि अपनी प्रणाली के लिए किसी पराई भाषा पर निर्भर हो जाता है तो वह धीरे-धीरे अपनी अस्मिता, अपना मूल्यबोध और अपनी स्वाधीनता से हाथ धो बैठता है। 'भाषा और अस्मिता' विषयक अपने निबंध में अज्ञेय जी ने लिखा है - 'बहुत अधिक समय तक, बड़े करुण भाव से, इस मिथ्या भावना से चिपटे रहते है कि एक पराई भाषा उन्हें संपूर्ण आत्माभिव्यक्ति का साधन दे सकती है। और इस मोह का, मोह भंग का पूरा पुरस्कार या दंड आज मिल रहा है। कुछ थोड़ से लोगों को पराई भाषा से चाहे जितने शब्द मिल जाएँ कोई समाज किसी पराई भाषा में जी नहीं सकता, जीना आरंभ भी नहीं कर सकता और जब वह समाज, साथ ही स्वतंत्रता के लिए स्वतंत्रता में संपूर्ण जीवन के लिए संघर्ष कर रहा हो, तब तो पराई भाषा में जीने का प्रयत्न सफलता की और भी कम संभावना रखता है। किसी समाज को अनिवार्यतः अपनी भाषा में जीना होगा - नहीं तो उसकी अस्मिता कुंठित ही होगी और उसमें आत्म बहिष्कार और अजनबीपन के विकार प्रकट होंगे ही। हम जानते हैं कि अंग्रेजी भाषी और स्वयं देश का अंग्रेजी भाषी अंग इस बात को भाषागत मतांधता कहकर उड़ा देना चाहेगा लेकिन स्पष्ट है कि स्वयं उसकी राय ही बुनियादी तौर पर पूर्वाग्रह-दूषित होगी।'

अज्ञेय जी बराबर प्रमाणित करने की चेष्टा करते रहे कि भाषा का बहुत गहरा रिश्ता संस्कृति से होता है, बल्कि संस्कृति के निर्माण के प्रमुख अवयव ही भाषा से जुड़े हैं। अज्ञेय जी मानते हैं कि संस्कृति के निर्माण के लिए यथार्थ की पहचान, अस्मिता की पहचान और मूल्यबोध अनिवार्य हैं, और इनकी अवधारणा में इनकी निर्मिति में भाषा का योगदान सबसे बढ़कर है। इसलिए भाषा संस्कृति की बुनियाद होती है। हमें याद रखना चाहिए कि संस्कृति और समाज दो अलग-अलग अवधारणाएँ नहीं है। 'भाषा और समाज' शीर्षक निबंध में अज्ञेय जी कहते हैं 'संस्कृति एक व्यापक और दीर्घकालीन ढाँचा है जिसके अंदर हमारी समाज की भावना उदित होती है और रूप लेती है। समाज के साथ भाषा का संबंध भी मैं इसी संदर्भ में जोड़ता हूँ। जैसे समाज कहने पर मैं संस्कृति की समग्र और सतत प्रक्रिया के किसी एक देश काल में बँधे हुए रूप को सामने लाता हूँ उसी तरह समाज के साथ जब भाषा को जोड़ता हूँ तो उसकी भी उसी काल सीमा के भीतर की अवस्था पर विचार करता हूँ।'

एक विचारक और सर्जक के रूप में अज्ञेय भाषा के अवमूल्यन को लेकर भी अपनी गंभीर चिंताएँ व्यक्त करते हैं। भाषा के बिना क्योंकि किसी भी सामाजिक या असामाजिक व्यवहार की कल्पना संभव नहीं है इसलिए भाषा का एक रूप 'फंक्सनल' या प्रयोजनमूलक भी है। मीडिया और राजनीति में भाषा के अवमूल्यन को चिंताजनक मानते हुए अज्ञेय जी इस चिंता को अपनी प्रकृति और प्रवृत्ति के अनुकूल एक गहराई देते हैं। समाज का कोई भी व्यवहार भाषा के बिना नहीं चल सकता तो मीडिया और राजनीति को भाषा के अवमूल्यन से विरत कैसे किया जा सकता है। अज्ञेय जी मानते है कि इन दोनों माध्यमों का आधुनिक समाज में आतंककारी प्रभाव है और दोनों भाषा के सहारे ही अपना संपूर्ण व्यवहार संचालित करते हैं - हाँ उनकी भाषा एक व्यवहारवादी भाषा होती है। अज्ञेय जी लिखते हैं - 'पूरी समस्या को आसान रूप में प्रस्तुत करने लगूँ तो कहूँगा कि जिस आविष्कार को आज की भाषा में मीडिया कहा जाता है, जहाँ से उसका आरंभ हुआ है, जहाँ से व्यापक संचार माध्यमों का विस्तृत लोक संपर्क, प्रचार-विज्ञापन या मास-कांटेक्ट के लिए, इन दूर प्रभावी साधनों का इस्तेमाल होने लगा, वहीं से भाषा का अवमूल्यन होता है। यह समस्या व्यवहार की नहीं है। यह उससे व्यापकतर समस्या का एक पहलू है। भाषा का अवमूल्यन इसलिए होता है कि व्यापक जनसंपर्क के नाम पर हम वास्तव में कुछ अन्य चीजों का, या सही बात करें तो कुछ गहरे मूल्यों का अवमूल्यन कर रहे हैं। भाषा का अवमूल्यन हमारा लक्ष्य या कि उद्देश्य नहीं होता, उन मूल्यों का अवमूल्यन हमारा उद्देश्य होता है या कि उद्देश्य नहीं भी होता तो भी हम उसका अवमूल्यन जानते बूझते करते हैं और प्रतिक्रिया परिणाम नहीं भाषा का अवमूल्यन होता है।'

भाषा के सर्जनात्मक व्यवहार के बारे में अज्ञेय जी ने निरंतर विचार किया है और रचनाशीलता के उत्स के रूप में स्वीकार किया है। व्यक्ति के रूप में भी और समाज के रूप में भी। कवि की सतर्कता के लिए जो भी प्रमाण होने चाहिए अज्ञेय जी शब्द व्यवहार की सतर्कता को सबसे अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। शब्द के संस्कार को, वे कविता का आवश्यक गुण धर्म मानते हैं। तीसरा सप्तक की भूमिका में उन्होंने लिखा है - 'प्रत्येक शब्द का प्रत्येक समर्थ उपयोक्ता उसे नया संस्कार देता है। इसी के द्वारा पुराना शब्द नया होता है - यही उसका कल्प है। नए कवि की उपलब्धि और देन की कसौटी इसी आधार पर होनी चाहिए। जिन्होंने शब्द को नया कुछ नहीं दिया, वे लीक पीटने वाले से अधिक कुछ नहीं हैं।'

अज्ञेय ने भाषा को मनुष्य की स्वाधीन विवेक चेतना का सबसे महत्वपूर्ण अवयव स्वीकार किया, उसे स्वाधीन समाज की स्वाधीनता को बचाए रखने का एक अनिवार्य और अपरिहार्य उद्यम भी माना। पराई भाषा में कोई समाज अपने को अभिव्यक्त नहीं कर सकता जैसा दर्शन विकसित किया। भाषा के सर्जनात्मक व्यवहार और इसके इतर व्यवहारवादी प्रयोगों पर भी विचार किया। एक रचनाकार के रूप में भाषा संबंधी अपनी मान्यताओं और आग्रहों को सिर्फ विचार और सिद्धांत विवेचन तक सीमित नहीं रखा बल्कि उसे अपनी सर्जना-प्रणाली में आत्मसात भी किया। उनके चिंतन के इस महत्वपूर्ण पक्ष को सामने लाना अपनी स्वाधीनता अपना विवेक अपनी मूल्य चेतना और अपनी संस्कृति को समझने और उसकी गतिशीलता को बचाए रखने के लिए बहुत जरूरी है।


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