हिंदी यात्रा साहित्य का विकास अधिक नहीं हुआ है। साहित्येतिहास में भी यात्रा-साहित्य पर ज्यादा बातें नहीं लिखी गई हैं। बच्चन सिंह 'हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास' में यात्रा-साहित्य पर केवल यही लिखकर चुप हो जाते हैं कि 'यात्रा-वृतांत लिखनेवालों में रामनारायण मिश्र, सत्यदेव परिव्राजक, राहुल सांकृत्यायन, यशपाल, देवेंद्र सत्यार्थी, अज्ञेय, धर्मवीर भारती प्रमुख हैं, 'हिंदी साहित्य का विवेचनात्मक इतिहास' में यात्रा-साहित्य का नामोल्लेख भी नहीं मिलता, ऐसी स्थिति में हिंदी में उपलब्ध यात्रा-साहित्य की गुणवत्ता को परखने के लिए कोई कसौटी ही उपलब्ध नहीं होती। केवल प्रभाकर माचवे ने अपनी कृति 'अज्ञेय' में यात्रा-साहित्य पर थोड़ी-बहुत टिप्पणियाँ दी हैं।
यायावरी जीवन या घुमक्कड़ वृत्ति एक प्रकार का नशा ही है। अपनी जिज्ञासा-वृत्ति को शांत करने की इच्छा किसमें नहीं होती। इसलिए तो राहुल सांकृत्यायन लिखते हैं - 'जिसने एक बार घुमक्कड़-धर्म अपना लिया, उसे पेंशन कहाँ, उसे विश्राम कहाँ? (किन्नर देश में) अज्ञेय लिखते हैं - 'यायावर को भटकते चालीस बरस हो गए, किंतु इस बीच न तो वह अपने पैरों तले घास जमने दे सका है, न ठाठ जमा सका है, न क्षितिज को कुछ निकट ला सका है।'
यात्रा साहित्य के प्रकार :
देश अथवा विदेश में यात्रा करनेवाले जब उस यात्रा से संबंधित घटनाओं तथा अनुभवों को लिखित व साहित्यिक रूप प्रदान करते हैं, तो उसे यात्रा साहित्य की संज्ञा ही जाती है। यात्रा-वर्णन की चार प्रमुख प्रवृत्तियाँ मिल जाती हैं - (क) वर्णनात्मक अथवा परिचयात्मक (ख) देश-विदेश की सामाजिक स्थिति को प्रस्तुत करनेवाली (ग) यात्रा से उद्भूत वैयक्तिक प्रतिक्रिया को व्यक्त करनेवाली तथा (घ) साहित्यिक। प्रथम पद्धति के अंतर्गत आनेवाले यात्रा साहित्य में यायावर जिस देश की यात्रा करता है, उसका वर्णन या परिचय मात्र प्रस्तुत कर देता है। राहुल सांकृत्यायन के अधिकांश यात्रा साहित्य इसी कोटि के है। दूसरी पद्धति के यात्रा-साहित्य में यायावर जिस देश की यात्रा करता है, उस देश की सामग्रिक परिस्थितियों का विशद अध्ययन कर उसे अपनी लेखनी में स्थान देता है, डॉ. सत्यनारायण सिन्हा का 'आवारे यूरोप की यात्रा' इसी प्रकार का यात्रा-साहित्य है। तीसरी पद्धति वाले यात्रा साहित्य का उदाहरण है मोहन राकेश का 'आखिरी चट्टान तक', जिसमें राकेश ने दक्षिण भारत की यात्रा से मानस में उत्पन्न अनुभूतिओं को शब्दबद्ध किया है। चौथी तथा अंतिम पद्धति है - साहित्यिक। यात्रा-साहित्य लेखन की सर्वश्रेष्ठ पद्धति साहित्यिक ही है। अज्ञेय का यात्रा-साहित्य साहित्यिक यात्रा साहित्य के अंतर्गत आता है। हाँ, तीसरी पद्धति के यात्रा साहित्य के समान अपनी मानसिक प्रतिक्रिया को व्यक्त करने की प्रवृत्ति भी अज्ञेय में उपलब्ध है।
अज्ञेय का यात्रा साहित्य :
अज्ञेय के यात्रा साहित्य को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है : (क) भारत-भ्रमण से संबंधित, जिसमें उन्होंने असम से गुजरात तक तथा कश्मीर से कुयाटिका तक की गई अपनी यात्राओं को साहित्यिक रूप प्रदान किया है। 'अरे यायावर रहेगा याद?' इसी कोटि का यात्रा-वृत्तांत है। (ख) विदेश भ्रमण से संबंधित जिसमें उन्होंने यूरोप, अमरीका, जापान आदि देशों की यात्रा से प्राप्त अनुभवों को साहित्यिक रूप प्रदान किया है। 'एक बूँद सहसा उछली' विदेश भ्रमण पर आधारित यात्रा-साहित्य है।
'अरे यायावर रहेगा याद?' सर्वाधिक सफल यात्रा साहित्य है। इस पुस्तक की प्रशंसा करते हुए डॉ. रघुवशं लिखते हैं - 'कुछ ऐसे यायावर हैं जो अपने यात्रा-साहित्य को समग्र जीवन की अभिव्यक्ति के रूप में ग्रहण करते हैं - उनके यात्रा-साहित्य में महाकाव्य और उपन्यास का विराट तत्व, कहानी का आकर्षण, गीतिकाव्य की मोहक भावशीलता, संस्मरणों की आत्मीयता सब एक साथ मिल जाती है। उत्कृष्ट यात्रा-साहित्य ऐसा ही होता है। अज्ञेय के 'अरे यायावर रहेगा याद?' में ऐसा ही सौंदर्य तथा आकर्षण है'। (हिंदी साहित्य कोश, भाग-2)
डॉ. रघुवंश के इस कथन से 'अरे यायावर रहेगा याद?' की श्रेष्ठता का प्रतिपादन ही नहीं होता बल्कि श्रेष्ठ यात्रा-साहित्य को परखने के लिए सहायक आवश्यक तत्वों का भी खुलासा हो जाता है।
उत्कृष्ठ यात्रा-साहित्य का स्थायी महत्व होता है। जिसमें प्रतिभाशाली यायावर अपनी उत्कृष्ट अनुभूति तथा विचारों को कलात्मक अभिव्यक्ति प्रदान करता है। उत्कृष्ट यात्रा साहित्य पाठक के मन में अमिट प्रभाव छोड़ता है जो प्रायः स्थायी होता है।
'अरे यायावर रहेगा याद?' के कई लेखों में ललित निबंध सी विशेषताएँ मिल जाती हैं, लेखक पाठक से सीधी बातें करते हैं। ऐसी पंक्तियाँ बड़ी आकर्षक होती हैं। एक उदाहरण देखिए - 'वहाँ जाना नहीं हुआ। अभी तक अमरकंटक नहीं देखा है और इस प्रकार का कांटा अभी तक सालता ही है। पर नक्शे की यात्रा तो कई बार की है और अमरकंटक के बारे में उतना सब जानता हूँ जो वहाँ जाकर जान पाता, ऐसा ही एक नाम था तरंगंबारी - यों नक्शे में उसका रूप विकृत होकर त्रांकुबार हो गया है। 'तरंगोंवाली बस्ती' - सागर के किनारे के गाँव का यह नाम सुनकर क्या आपके मन में तरंग नहीं उठती कि जाकर देखें। (बहता पानी निर्मला)
उत्कृष्ट यात्रा-साहित्य में जन-जीवन के साथ-साथ वहाँ की सांस्कृतिक झाँकियाँ भी प्रस्तुत की जाती हैं। 'अरे यायावर रहेगा याद?' में संकलित कई लेखों में अज्ञेय ने विराट भरतीय संस्कृति की झाँकियाँ प्रस्तुत की हैं। एक उदाहरण देखिए - 'मदुरै की मीनाक्षी और तंजाबूर के वृहदीश्वर या कि चिदंवरम के नटराज? सभी के मंदिर अद्वितीय हैं और विराट की ओर उन्मुख एक श्रद्धा को मूर्त करते हैं जो स्वयं हम में हो न हो अपनी स्वतः प्रमाणता से हमें चौंधिया जाती हैं। (सागर सेवित मेध मेखलित)
अज्ञेय ने यात्रा-साहित्य में अपने विचार और अनुभूति को भी कहीं-कहीं साकार रूप दिया है - विशेषकर ऐतिहासिक घटनाओं पर विचार व्यक्त करते समय। ऐतिहासिक तथ्य के अनुसार औरंगजेब ने भी अन्य शासकों की भाँति अपनी समाधि बनवा ली थी। दूसरी ओर एलोरा की गुफाएँ मिलती हैं, जो भारतीय संस्कृति की धरोहर है। दोनों की तुलना करते हुए अज्ञेय ने लिखा है - 'अपनी समाधि पहले बनवा रखने की बात औरों को भी सूझती रही, ठीक है - मृत्युपूजक और भी रहे पर तुमने यह स्थल क्यों चुना?-- तुम्हारे मातृघाती, पितृघाती, अपत्यघाती, कुलद्रोही कुनबे की कब्रें आज भी चकचक लिपी पुती हैं, लेकिन एलोरा आज भी एक अचरज है बल्कि रंग न होने से उसका मूल सौंदर्य और उभर आया है और तुम-तुम्हारी समाधियाँ...,' (एलोरा)
'अरे यायावर रहेगा याद?' को मिली लोकप्रियता से स्वयं अज्ञेय भी आश्वस्त थे। पुस्तक के परवर्ती संस्करण की भूमिका में लेखक का यह उद्गार पुस्तक की सफलता का द्योतक है - 'अरे यायावर रहेगा याद?' की बढ़ती हुई लोकप्रियता यदि इस बात का संकेत है कि पाठकों में अपने देश को एक समग्र इकाई के रूप में पहचानने की उत्सुकता बढ़ रही तो वह मेरे लिए विशेष सुखद बात है। भ्रमण या देशाटन केवल दृश्य परिवर्तन या मनोरंजन न होकर सांस्कृतिक दृष्टि के विकास में भी योग दे, यही उसकी वास्तविक सफलता होती है।
'एक बूँद सहसा उछली' अज्ञेय की विदेश यात्रा के मार्मिक अनुभवों को प्रस्तुत करता है। उन्होंने कई बार यूरोप तथा अन्य देशों की यात्रा की है। 'एक बूँद सहसा उछली' देश-विदेश का परिचयात्मक रूप तो ट्रेवल एजेंसियाँ ही प्रस्तुत कर देती हैं। अज्ञेय ने पुस्तक की भूमिका में इस बात का उल्लेख किया है - 'यह पुस्तक मार्गदर्शिका नहीं है कि इसके सहारे यूरोप की यात्रा करनेवाला यह जान लेना चाहे कि कैसे वह कहाँ जा सकेगा, या कैसे मौसम के लिए कैसे कपड़े उसे ले जाने होंगे या कि कहाँ कितने में उसका खर्चा चल सकेगा, तो उसे निराशा होगी।'
'एक बूँद सहसा उछली' एक साधारण यात्रा-वृतांत नहीं है। यह एक साथ गद्य-काव्य, रूपक, ललित निबंध तथा आत्म-संलाप का मिला-जुला रूप भी है। पुस्तक में कुल बाईस अध्याय हैं। अध्यायों के शीर्षक भी अभिनव हैं जो जिज्ञासाएँ उत्पन्न करते हैं। कतिपय शीर्षक देखिए - यूरोप की अमरावती - रोमा, यूरोप की पुष्पावती - फिरेंजे, बालू की भीत पर, यूरोप की छत पर स्विटजरलैंड, नीलम का सागर, पन्ने का द्वीप, सागर-कन्या और खग शावक, पतझड़ का एक पात आदि।
अज्ञेय मूलतः कवि हैं और एक भावुक कवि जब इटली की खूबसूरत राजधानी रोम को, वहाँ की अट्टालिकाओं, सड़कों और आकर्षक बगीचों को देखता है तो और भावुक हो जाता है। इसमें आश्चर्य की क्या बात है। अज्ञेय को रोम बायरन के द्वारा देखे गए रोम के समान ही आकर्षक लगता है। रोम के सौंदर्य को देख बायरन ने गाया था - 'रोम, मेरा देश आत्मा की नगरी / सभी अनाथ हृदय तेरी ओर मुड़ते हैं। सात पहाड़ियों से घिरे रोम को देख अज्ञेय को दिल्ली की याद आती है। निम्नलिखित पंक्तियाँ देखिए - 'नई विस्तृत नई दिल्ली' भी शायद रोम की सात पहाड़ियों के समान सुंदर हो सकती - यदि हमने सातों पहाड़ियों को खोदकर सपाट न कर दिया होता और यदि स्थापत्य की हमारी अपनी परंपरा होती। इटली में प्राचीन स्मृति स्तंभों को सुरक्षित रखा गया है। अज्ञेय ने लिखा कि रोम में सभी सुरक्षित है, एक ओर अत्याधुनिक रेलवे स्टेशन को लेकर रोमवासी गौरव का अनुभव करते हैं तो प्राचीन पुरावस्तुओं को लेकर भी वे वैसे ही गौरव का अनुभव करते हैं। अज्ञेय यह सोचकर वेदना का अनुभव करते हैं कि हमने दिल्ली की पहाड़ियों को सपाट बना कर अच्छा नहीं किया।
इटली का ही एक नगर है फिरेंजे जिसे अंग्रेजी में फ्लोरेंस कहा गया है। इसी को अज्ञेय ने यूरोप की पुष्पावती कहा है। फिरेंजे के उद्यान, वहाँ के पुल के दोनों ओर स्थित दुकानों की पंक्तियाँ, उन दुकानों में प्राप्त विभिन्न आकर्षक वस्तुएँ, वहाँ से दृश्यमान खूबसूरत बलखाती हुई नदी कवि को मंत्र-मुग्ध बना देती है। लेखक की प्रतिक्रिया देखिए - 'हम इतना तो पहचान सकते हैं कि यही कहीं दांते को उस अलौकिक प्रेम की उपलब्धि हुई होगी और मान सकते हैं कि वैसा होना अवश्य संभव रहा होगा।' यही नहीं, अपनी अनुभूति को अज्ञेय ने कविता के माध्यम से भी प्रस्तुत कर दिया है। जरा देखिए - दृश्य के भीतर से / सहसा कुछ उमड़ कर बोला / सुंदर के सम्मुख यह तुम्हारी जो उदासी है / वह क्या केवल रूप, रूप, रूप की प्यासी है / जिसने बस रूप देखा है / उसने बस / भले ही कितनी भी उत्कट लालसा से / केवल कुछ चाहा है / जिसने पर दिया अपना है दान / उसने अपने को, अपने साथ सबको / अपनी सर्वमयता को निबाहा है - '
कवि हृदय अज्ञेय ने यूरोप के जनजीवन की व्यस्तता और उल्लास को ही नहीं देखा, बल्कि मृत्यु और उदासी को भी देखा, मृत्यु-बोध से वे पीड़ित भी हुए। अज्ञेय को यह अनुभव स्वीडन की राजधानी स्टाकहोम से उत्तरी दिशा में काफी दूरी पर स्थित एक जगह आबिस्कों में हुआ। अधिकांश यात्री वहाँ 'मध्यरात्रि का सूर्य' देखने जाते हैं। अत्यधिक ठंड उस वन प्रदेश में अज्ञेय को झिल्ली और मच्छरों की गुंजार सुनाई देती है। कुछ दिन का मेहमान झिल्ली वहाँ अत्यधिक ठंड के कारण ठिठुरकर मर जाता है। फिर भी उनका उल्लास जारी है। अज्ञेय लिखते हैं - झिल्ली का अविरत उल्लास / देता है संकेत कहीं क्या उसे / मृत्यु है कितनी पास।'
भारतीय दर्शन में मृत्यु को सहज रूप में अपनाने पर बल दिया गया है। अतः यह समस्या नहीं है। परंतु पाश्चात्य में मृत्यु एक विकट समस्या है। अज्ञेय ने 'प्राची-प्रतीची' नामक अध्याय में भारतीय और यूरोवीय विचारधारा (मृत्यु संबंधी) को तुलनात्मक रूप में प्रस्तुत किया है। उन्होंने लिखा है - 'आधुनिक पश्चिम की समस्या के दो पहलू हैं। पहला - काम (सेक्स) का स्वीकार अथवा दमन? दूसरा - मृत्यु का स्वीकार अथवा दमन? - पहली समस्या चेतना की समस्या है। पश्चिम ने अब इसके कामचलाऊ उत्तर या अनेक उत्तरों की परंपरा पा ली है। दूसरी समस्या आत्मा की समस्या है। अभी तक पश्चिम इससे कतराता ही रहा है।' (यह समस्या भारत में नहीं है)। किसी भी प्रश्न से कतराना या उसका दमन करना अस्वस्थ है - अस्वस्थता का परिचायक है - रोग उत्पन्न करता है। काम के दमन के दुष्परिणाम कहीं भयानक हैं।
'एक बूँद सहसा उछली' में और भी अनेक ऐसे प्रसंग मिल जाते हैं जो अज्ञेय के मृत्यु बोध, जिज्ञासा और जीवन-दर्शन को पाठक के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। अंततः कहा जा सकता है कि अज्ञेय का यात्रा-साहित्य हिंदी की श्रेष्ठतम साहित्यिक उपलब्धि है। अज्ञेय के समस्त साहित्य में नए प्रयोग के प्रति एक आग्रह मिलता है और यात्रा-साहित्य भी इसका अपवाद नहीं है।