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कविता

बदतमीज

सुमित पी.वी.


कभी नहीं सुना था मैंने यह शब्द
लेकिन सुना था कई बार तमीज शब्द
शायद उसके लिए लायक रहा करता था
सुनना पड़ा आज मुझको यह
दोषी मानता हूँ अपने आप को
क्यों किया तुमने ये सब?

हजारों उँगलियाँ इशारा करती हैं मुझ पर
पूछने लगते हैं और साबित करते हैं
तुम, तुम और सिर्फ तुम
परंतु मैं नहीं जानता अभी भी,
क्या मैं दोषी हूँ?
अगर गलती हुई तो भी अभी बहस करने से कोई फायदा?
दोषी ठहराने से क्या मतलब?
चोट लगेगी मन को
जो कभी सूखेगी नहीं,

सीख रहा हूँ, अब
कैसे जीना है जीकर दिखाना है
मगर खामोशी का भी अर्थ ढूँढ़ लेने वालों
की इस दुनिया में मैं टिक पाऊँ कि नहीं...
जिनको मैंने अपना माना
वे भी दूर हो जाते हैं
दिल को चीर कर!
अब मुझे सवाल करना ही होगा...
हूँ मैं बदतमीज???
 


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