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कविता

प्यार, प्रिया और दिल्ली

सुमित पी.वी.


दो बरस पुराने हुए
अपने प्यार से मिलने
राजधानी पहुँचा
ठंड से हड्डियाँ पिघल रही थीं
फिर भी प्लेटफार्म के बेंच पर इंतजार करता रहा
आई-गई कई गाड़ियाँ
आखिर इंतजार भी तो एक सुखद अनुभव होता है
मैं सोचता रहा
समय कटता गया, रात बढ़ती गई।

प्लेटफार्म पर इधर उधर बिखरे बैठे थे
कई मारवाड़ी लोग अपने परिवार समेत
वे भी इंतजार में ही थे, मेरी तरह नहीं!!
बच्चे, बूढ़े, स्त्री-पुरुष सब नींद के कगार पर थे

कुछ दूर हटकर आवारा लोग आग सुलगाकर
बीडियाँ फूँक रहे थे
उनकी स्त्रियाँ आग को तेज करने में
व्यस्त थीं।

पटरियों की ओर देखते बैठा
एक चूहा पटरियों के बीच इधर-उधर सैर करता दिखा
इंतजार फिर आगे बढ़ता गया
कहीं नींद के चौखटे में घुसते ही
विश्व प्रसिद्ध इमारत के नाम वाली गाड़ी
से वह आई
अपनी सहेली के साथ

जिसके इंतजार में जनवरी की ठंड में
मुझे संयम होकर
इस स्टेशन में रुकना पड़ा था
आखिर वह आ गई है

लंबी यात्रा के बाद पहुँची प्रिया को चाय पिला दी मैंने
हालचाल पूछना तो बाद की बात रही
इस बीच रुकने की जगह
की भी तलाश करनी थी
इतनी रात हो चुकी कि
अब कहाँ मिलेगी जगह?

सड़ी गली में ही सही
मिल गया एक कमरा
रात-रात-रात
बातचीत आगे बढ़ती गई
कल, आज, कल
सब बातें आ टपकी एक के बाद एक
कब सोए कब जागे
इसका तो बयान नहीं
जब होश आया
देखा कि प्लेटफार्म की बेंच पर
आस-पड़ोस में
कोई नहीं था
बस मैं था...
...ठंड थी...


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