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कविता

बेरोजगार

लाल सिंह दिल


घिस चुकी कमीज की आस्तीनें छुपाकर चलना
टूटे जूते पहनकर चलने की महारत
जुबाँ से निकाल फेंकना मुरव्वत का जिक्र
पलकों में अरथियाँ छुपाना-मुस्कराना
पर मेरे सामने, ये शीशे के हैं तेरे वस्त्र
साफ शीशे का बदन
साफ दीखता है तुम्हारे भीतर बहता लहू
क्योंकि हम बहुत बार इकट्ठे मिलते हैं
तीसरे दर्जों में
चाय के ढाबों या कबाड़ी की दुकान पर
मैंने भी अपने वे कागजात
जो रोजगार दफ्तर के कर्मचारी
कभी-कभी खिड़की से बाहर फेंक देते हैं
हवा में उड़ते उठाए हैं।

 


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