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कविता

चाय की दुकान

लाल सिंह दिल


अल्लसुबह ही निकल लेते हैं
गिलासदान से गिलास
ढाई दर्जन गिलास
दिन भर पागल बनाए रखते हैं
'मीठा कम है, पत्ती में मिरचे हैं, दूध कैसा है?
आप नहीं चला सकते कैंटीन'
कभी-कभी वकील लोग हिसाब समझाते हैं
'दस किलो दूध से हजार कप बनते हैं'
ठेका शराब की याद आने लगती
आँखों में सरूर भर जाता।
'उधार हो गया, किराए से कट गए पैसे।
पहले ले गए थे वे पूरे हो गए पैसे।
जो कलवाले थे, मैंने लेने थे।'
तब भी कोई-न-कोई आ जाता है
अमीर का कभी भी न चलनेवाला नोट
प्यारा लगता है
मेरे जैसे का लगे शक्की।
फिर मुड़ने लगते चाय के गिलास कबूतरों की तरह
गिलासदान में
कुछ लोगों ने शराब पीने के लिए कुछ
गिलास छुपा लिए हैं
ठेका शराब का... सरूर आँख की वहशत बनता
कितनी बुरी बात है यारो
जो भोजन करने लायक
शराब भी न मिले।


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