सो रही होंगी अपने घोसले में बया और बंदर भीग रहा होगा उसी पेड़ के नीचे बैठा-बैठा
बया अब बंदर को उपदेश नहीं देतीं वे साक्षर हो गई हैं काँटेदार वृक्षों पर बनाती हैं घोसले
बंदर का अब भी कोई ठिकाना नहीं उसे जागना होगा अपनी युगों-युगों की नींद से।
हिंदी समय में मोहन सगोरिया की रचनाएँ