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कविता

बनारस हो जाती हूँ

शैलजा पाठक


एक शब्द विछोह

पहली बार मन रोया था
जब अपने प्रायमरी स्कूल को
अलविदा कहा
पिछले डेस्क पर छूट गया
पुराना बस्ता
गुम हो गया वो अंडे के आकार
वाला स्टील का टिफिन
जिसमे अम्मा ठूँस के रखा करती थी पूरी अचार
तमाम रंगबिरंगी पेंसिल का खोना पाना
महकने वाले रबर में सबकी हिस्सेदारी

उस आखिरी दिन डैनी सर ने
मेरे गाल को थपथपा के चूम लिया
वापस दिए मेरे घुँघरू ये कह कर
की डांस सीखती रहना
अतीत की खुबसूरत यादों के
दरवाजे पर टँगा है घुँघरू
जब भी यादें अंदर आती हैं
सब छम छम सा हो जाता है

बड़े और समझदार होने के क्रम में
हम लगातार बिछड़ते रहे
स्कूल कॉलेज दोस्त
फिर वो आँगन भाई का साथ
पिता की विराट छाती से चिपक कर
वो सबसे दुलारे पल
और आखिर में हमेशा के लिए
बिछड़ गई अम्मा
बेगाना हो गया शहर
राजघाट के पुल से गुजरती ट्रेन
डूबती गंगा ...शीतला माता के
माथे का बड़ा टीका सारे घाट मुहल्ला
विश्वनाथ मंदिर का गुंबद सब बिछड़ गया

अब रचती हूँ यादों की महकती मेहँदी अपने हाथों में
चूमती हूँ अपना शहर ...और बनारस हो जाती हूँ...

 


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