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कविता

कठपुतली

शैलजा पाठक


कठपुतली
बन गई तेरी

समय के साथ
मौसमों के अलग गीतों
पर थिरकती

बिना किसी भाव के

मेरे हँसने की भी आवाजें
निकालता है तू

तेरी उँगलियों में
बँधी डोर से
रिसता तो होगा
कतरा कतरा पश्चाताप

नेपथ्य में छुपा तू
कब तक दिखाएगा ये तमाशा
बनाएगा जरिया मुझे
अपनी कमाई का

तुम्हारे समय के काले
बक्से में बंद
उस लोहे की काली मजबूत
दीवार को भेदकर

वो रचने वाली है इतिहास
बुनने वाली है एक आसमान
तुम्हारी डोरियों से छूटकर

आज तुम्हारा आखिरी शो है...

 


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