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कविता

समझ सको तो समझो

शैलजा पाठक


काश की छातियों के दर्द सा दर्द होता
सच सिहर जाते तुम
गुजरना हो दर्द से तो उन रातों से गुजरो
जब बेहाल बच्चों की माएँ धरती पर फिरकी सी घूमती रहीं
अँधेरे कुचले गए उनके पैरों तले
लालटेन पर बत्तियाँ ऊपर करती
ये कम तेल सी जिंदगी में
जलती गई काली पड़ती गई
प्रेम दर्द दुश्वारियों को तीन पाटों में बाँट कर
चोटियों में बाँधती है
कभी गुजरना हो प्रेम से
तो इनकी आँखों से गुजरो
सच बदल जाओगे

आँखों के गोल काले पड़ गए किनारों के बीच
ये छुपा कर रखती हैं नीली झील
सिंदूरी शितिज के किनारे पर ये आज भी बैठी हैं
अपने प्रेमी के साथ
अपने अथाह सपनों के साथ
ये अपने रास्तों की तलाश में चुन दी गई दीवारों में
ये गीतों में बेसुरी होती हैं तो बंद आँखें कर
अपने प्रेम को चूम लेती हैं
ये निराश होती है तो अपनी कलाई पर कसी अतीत की
अँगुलियाँ चूमती हैं

ये मुस्करा कर बदलती हैं करवट
और शितिज के किनारे जा बैठती हैं
ये दर्द के चरम पर प्रेम सोचती हैं
प्रेम के चरम पर दर्द सोखती हैं
ये अपने चुप में घुल रहीं
ये कमर से जानी गईं
देह भर मानी गईं
पुराने अतीत सी भुला दी गईं
तुम्हें दर्द और प्रेम का पाठ पढ़ा सकती थीं
किसी शाम तीन पाटों में बँधी इनकी चोटियों को खोल कर देखो
सच बिखर जाओगे...


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