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सिनेमा

मुट्ठी में तकदीर और आँखों में उम्मीदों की दिवाली : बूट पालिश

विमल चंद्र पांडेय


देश के 1947 में आजाद होने से पहले माहौल कुछ इस तरह का बन गया था कि आजादी मिलते ही देश का कायाकल्प हो जाएगा। भुखमरी, सूखा, बाढ़ और बेरोजगारी हर समस्या का एक ही इलाज नजर आता था आजादी। उम्मीदें बहुत बढ़ गई थीं और उनमें से ज्यादातर झूठी थीं। बेसब्री से आजादी का इंतजार करते लोग जब तक ये समझ पाते कि सत्ता गोरे अँग्रेजों के हाथ से निकल कर काले अँग्रेजों के हाथ में चली गई है, बहुत देर हो चुकी थी। नेहरू और अन्य सियासतदानों ने आजादी के बाद के जो लक्ष्य निर्धारित किए थे, उनकी कलई खुल चुकी थी और सारे वादे और सपने झूठे साबित हुए थे। मगर 1954 में प्रदर्शित हुई 'बूट पॉलिश' इस निराशाजनक माहौल में भी उस आशा की बात करती है जिससे जीने की एक वजह बची हुई है। दो बच्चों के जरिए कही गई इस कहानी में वैसे तो मुंबइया फिल्मों के कई तय संयोगों का प्रभाव जरूर है मगर फिर भी कहानी जो आशा और उम्मीद देती है, उसकी वजह से प्रासंगिक हो जाती है।

फिल्म के नायक नायिका दो बच्चे हैं भोला और बेलू जो अपने माता पिता की मौत के बाद एक ऐसी रिश्तेदार के पास भेज दिए जाते हैं जो कर्कशा है, उन्हें बात-बात पर मारती है और भीख माँगने के लिए दबाव डालती है। बच्चों का पड़ोसी जॉन चाचा उन्हें भीख माँगने से मना करता है और कहता है की मर जाओ लेकिन भीख मत माँगो। ये दो हाथ दुनिया का हर काम कर सकते हैं। वह झुग्गी के सभी बच्चों से पूछता है 'नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है' तो बच्चे जवाब देते हैं, 'मुट्ठी में है तकदीर हमारी'। मुट्ठी में अपनी तकदीर और आँखों में उम्मीदों की दिवाली लिए ये बच्चे फिर भी भीख माँगने को मजबूर हैं क्योंकि उन्हें उनके बड़ों द्वारा कुछ और नहीं सिखाया जाता। यह कहानी सिर्फ भोला की जिजीविषा की कहानी है जो जॉन चाचा की इस बात को गाँठ बांध चुका है की वह मर जाएगा लेकिन भीख नहीं माँगेगा।

भोला का सपना है कि वह भीख माँगना छोड़ कर बूट पॉलिश करे और इसके लिए वह अपनी बहन के साथ भीख माँग कर पैसे जुटाता है ताकि एक लाल पॉलिश, एक काली पॉलिश और ब्रश खरीद सके। एक भीगती शाम भोला एक ज्योतिषी के चंगुल में फँसता है जो दो पैसे में उसका भविष्य बताने को कहता है। दो पैसे का भविष्य बताते हुए ज्योतिषी कहता है कि बच्चा तू आगे बिलकुल नहीं पढ़ेगा। इस पर भोला सवालिया निगाहों से कहता है कि बाबा मैंने तो पीछे भी कुछ नहीं पढ़ा। वह ज्योतिषी से अपने काम के बारे में पूछना चाहता है जिस पर ज्योतिषी झल्ला कर कहता है जा तू जिंदगी भर जूतियाँ रगड़ेगा। भोला की आँखें चमक जाती हैं, जूतियाँ रगड़ना तो उसका सपना है। वह चहक कर ज्योतिषी से पूछता है क्या सचमुच बाबा जी, क्या मैं सचमुच जिंदगी भर जूतियाँ घिसूँगा? ये सपना बूट पॉलिश की जगह किसी भी और सपने से स्थानापन्न किया जा सकता है और भोला उस सपने के लिए हर संभव जतन करता है, कई बार टूट भी जाता है लेकिन हार नहीं मानता। आखिरकार वो अपनी बहन बेलू के साथ जाकर बूट पॉलिश और ब्रश खरीद कर ले आता है। अपनों के नाम पर उनके पास जॉन चाचा हैं और जॉन चाचा के पास वे दोनों बच्चे। वे जॉन चाचा को यह खुशखबरी सुनाने के लिए आते हैं और उसकी आँखें बंद करवाते हैं। जॉन जब आँखें खोलता है तो वह देखता है की दोनों बच्चों ने अपना सपना पूरा कर लिया है और ईसा मसीह की फोटो के सामने आले पर जूते की पॉलिश और ब्रश रखे हुए हैं। खुद दारू का धंधा करने वाला जॉन मेहनत की कीमत समझता है, उसकी जिंदगी बर्बाद हो चुकी है लेकिन वह चाहता है की देश का भविष्य भीख न माँगे बल्कि मेहनत से पेट भरे। वह ईसा मसीह की तस्वीर को प्रणाम करता है और बच्चों को बूट पॉलिश खरीदने के लिए बधाई ही नहीं देता, भोला को बूट पॉलिश करने का तरीका भी बताता है ताकि वह ग्राहकों के जूते खराब किए बिना पैसे कमा सके।

बच्चे अपनी तथाकथित चाची से मार खाकर जॉन चाचा के ही पास आते हैं। भूख लगने पर जब जॉन रोती हुई बेलू से पूछता है कि बेटा तुझे भूख लगी है क्या तो बेलू रोती हुई एक दिल दहला देने वाला जवाब देती है, 'हाँ चाचा मुझे रोज-रोज भूख लग जाती है।' जॉन कहता है कि भूख हमारे वतन की सबसे बड़ी बीमारी है। जॉन ये भी कहता है कि इन झुग्गियों में रहने वाले लोग आज जैसी काली रात से भी काली जिंदगी गुजारते हैं। लेकिन उसे उम्मीद है कि एक दिन सुबह जरूर होगी और बच्चे पढ़ लिख कर एक अच्छा भविष्य पाएँगे। पूरी फिल्म का सार इस सपने में ही है। भले ही फिल्म कोई समाधान नहीं बताती और एक अयथार्थवादी और खुशनुमा अंत के साथ कई सवाल अनसुलझे छोड़ जाती है, फिर भी भोला के सच और मेहनत की कमाई के लिए जद्दोजहद देखने योग्य है। देश की उम्मीदें जब टूट रही हों, ऐसे में यह उम्मीद ही बहुत है एक न एक दिन वह सुबह जरूर आएगी जिसमें सबको खाना मिलेगा और देश के भविष्य को किसी के सामने हाथ फैलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। भोला के रूप में रत्तन कुमार का सहज अभिनय देखने लायक है जिसने दो बीघा जमीन में बलराज साहनी यानि शंभू महतो के बेटे कन्हैया की भूमिका में जान डाल दी थी। बेलू की भूमिका में बेबी नाज और जॉन चाचा की भूमिका में डेविड भी सहजता से अपने अपने किरदारों को जीते हैं। फिल्म इटली के नियो-रिअलिज्म आंदोलन से प्रभावित थी और कांस फिल्म समारोह में भारत की और से अधिकारिक इंट्री के तौर पर भेजी गई थी। इसे सर्वश्रेष्ठ फिल्म का फिल्मफेयर पुरस्कार भी मिला था और इसे राज कपूर की बेहतरीन फिल्मों में गिना जाता है हालाँकि फिल्म के कुछ दृश्य और बच्चों के मुँह से बुलवाए गए कई संवाद नकली से लगते हैं, खास तौर पर राज कपूर को श्री 420 के गेटअप में (जिसकी उस समय शूटिंग हो रही थी) एक दृश्य में फिल्म में डालना फिल्म के यथार्थवादी माहौल में नाटकीयता उत्पन्न करता है। इसी तरह मंदिर में उसी औरत से और बेर बेचते समय उस आदमी से भोला का मिलना बहुत नकली और फिल्मी संयोग लगते हैं जो बेलू को पाल रहे हैं। फिल्म खत्म होने से पहले अपने सुखद और नाटकीय अंत का आभास पहले ही दे देती है और बिना किसी समाधान की ओर इशारा किए मुंबइया फिल्मों की तरह फील गुड करते हुए खत्म हो जाती है लेकिन इससे जॉन चाचा के उस सपने को कोई फर्क नहीं पड़ता जिसमे वो कहता है कि नई दुनिया आएगी नहीं बल्कि ये बच्चे नई दुनिया बनाएँगे। फिल्म में एक दृश्य में महान गीतकार शैलेंद्र को देखना एक सुखद अनुभव है। हसरत जयपुरी, शैलेंद्र और दीपक के लिखे गीत फिल्म में चार चाँद लगाते हैं, खास तौर पर 'नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है' और 'रात गई फिर दिन आता है' सदाबहार हैं। 'चली कौन से देश गुजरिया तू सज धजके' 'लपक झपक तू आ रे बदरवा' 'ठहर जरा जानेवाले' और 'मैं बहारों कि नटखट रानी' भी अच्छे गीत हैं। तारा दत्त का छायांकन बहुत अच्छा है और शंकर जयकिशन का संगीत फिल्म की जान है।

फिल्म के निर्देशक प्रकाश अरोड़ा की यह एकमात्र फिल्म है। कहते हैं जब राज कपूर के सहायक रहे अरोड़ा ने राज कपूर को फिल्म के रश प्रिंट्स दिखाए तो उन्हें फिल्म पसंद नहीं आई और उन्होंने इसे री-शूट किया। प्रकाश अरोड़ा की तरह फिल्म के लेखक भानु प्रताप की भी यह एकमात्र फिल्म है।


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